कभी किताबों में दिखता था ‘सिनेमा’

■ अनिरुद्ध दुबे

वह भी क्या हसीन ज़माना था जब कोई फ़िल्म ज़्यादा चर्चा में आ जाए तो उसकी किताब प्रकाशित होकर सिने प्रेमियों के हाथों में पहुंच जाया करती थी। उस किताब में न सिर्फ फ़िल्म के संवाद बल्कि उसके कुछ ख़ास मनमोहक चित्र भी हुआ करते थे। उस समय ऐसे भी जुनूनी लोग थे जो फ़िल्म तो देखते ही थे ऊपर से उस पर आई किताब पढ़ने का आनंद भी ले लिया करते थे। शो मैन राज कपूर साहब की फ़िल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ उतनी क़ामयाब नहीं रही थी, लेकिन उस पर आई किताब मार्केट में खूब बिकी। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ प्रदर्शन से पहले ही काफ़ी चर्चा में आ गई थी। ज़ीनत अमान को काफ़ी बोल्ड ऐक्ट्रेस माना जाता था और उनके बारे में यह धारणा थी कि वह दिखती खूबसूरत हैं लेकिन उनका ऐसा कोई काम नहीं आया जिसे लंबे समय तक याद रखा जा सके। ज़ीनत का सपना था कि उनकी कोई तो ऐसी फ़िल्म रहे जिसमें उनके काम को लोग याद रखें। यही वजह रही कि ज़ीनत ने खुद से होकर राज कपूर से अनुरोध किया था कि उन्हें एक अवसर ज़रूर दें। ज़ीनत अमान देवानंद की खोज थीं। देव साहब के मन में ज़ीनत को लेकर काफ़ी लगाव था। अक्सर पार्टियों में दोनों साथ दिखा करते थे। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के लिए राज कपूर ने ज़ीनत अमान का स्क्रीन टेस्ट लिया। राज कपूर को भरोसा हो आया कि ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की गांव की लड़की रूपा का किरदार ज़ीनत कर लेंगी। इस तरह ज़ीनत उस रोल के लिए फाइनल हो गईं। जैसे ही फ़िल्म इंडस्ट्री में ख़बर सामने आई कि ज़ीनत राज साहब का प्रोजेक्ट कर रही हैं देव साहब के मन में उदासी छा गई। देव साहब ने खुद को ज़ीनत से काफ़ी दूर कर लिया। एक जाने-माने टीवी चैनल व्दारा लिए गए इंटरव्यू में देव साहब ने खुलकर स्वीकार किया था कि ज़ीनत के इस तरह अचानक लिए गए फैसले से उन्हें बुरा लगा था। यह अलग बात है कि मॉर्डन गर्ल की भूमिका में लगातार नज़र आने वाली ज़ीनत को ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में ग्रामीण लड़की की भूमिका में दर्शक स्वीकार नहीं कर पाए। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ औसत चली और हिट फ़िल्मों की श्रेणी में उसका नाम दर्ज नहीं हो सका। फिर ज़ीनत ने कभी भी अपने करियर में इस तरह किसी ख़ास कैरेक्टर को लेकर प्रयोग नहीं किया। वह बोल्ड ऐक्ट्रेस की छवि में बंधकर रह गईं। बहरहाल ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के डायलॉग वाली सचित्र किताब मेरे देखने व पढ़ने में आई थी।

1973 में गुलजार साहब व्दारा निर्देशित एवं विनोद खन्ना अभिनीत फ़िल्म ‘अचानक’ आई थी। 80 के दशक में इस फ़िल्म का दिल्ली दूरदर्शन से प्रसारण हुआ था। दस रील की फ़िल्म रही होगी। अवधि डेढ़ घंटे के आसपास। इस फ़िल्म में एक भी गाना नहीं था। महान फ़िल्म लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास लिखित ‘अचानक’ एक ऐसे फौजी (विनोद खन्ना) की कहानी थी जो अपनी पत्नी (लिलि चक्रवर्ती) को अपने दोस्त के साथ संदिग्ध अवस्था में देख लेता है। फौजी को यह बर्दाश्त नहीं होता और पत्नी की हत्या कर फ़रार हो जाता है। इसके बाद कानून व्यवस्था उस फौजी की तलाश में लग जाती है। विनोद खन्ना का भागना और उधर पुलिस व्दारा उसकी तलाश में पीछे लगे रहना, वो मन को झकझोर देने वाले दृश्य हैं। फौजी कानून की गिरफ़्त में आ जाता है और उसका कोर्ट मार्शल होता है। फिर उसे मौत की सज़ा होती है। ‘अचानक’ विनोद खन्ना की यादगार फ़िल्मों में गिनी जाती है। इस फ़िल्म के अन्य कलाकार फरीदा जलाल, ओम शिवपुरी, इफ़्तिख़ार, असरानी एवं केस्टो मुखर्जी थे। चूंकि इस फ़िल्म मंफ मनोरंजन के तत्व की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी, अतः इसे ज़्यादा दर्शक नहीं मिले। राजधानी रायपुर के शास्त्री बाज़ार के सामने पुरानी पुस्तक खरीदने व बेचने की एक दुकान हुआ करती थी। वहां पुरानी पुस्तकें आधी कीमत में मिल जाया करती थीं। ‘अचानक’ फ़िल्म मेरी टीवी पर देखी हुई थी फिर भी पता नहीं क्या मन हुआ मैंने उसके संवादों वाली किताब उस बुक स्टॉल से आधी कीमत में खरीद ली। उसे पढ़ा और समझने की कोशिश की कि संवाद कैसे सिलसिलेवार लिखे जाते हैं। दुर्भाग्य से उस किताब को मैं संभालकर नहीं रख पाया। उसके खो जाने की तकलीफ आज भी होती है। सत्तर के दशक तक टेलीविजन एवं टेप रिकॉर्डर आम आदमी के पहुंच के बाहर की चीज़ थी। घर में मनोरंजन के नाम पर रेडियो-ट्रांज़िस्टर या किताबें ही उपलब्ध हुआ करती थीं। वह उपन्यासों का दौर था। उस दौर में गुलशन नंदा जैसे उपन्यासकार हुए जिनके ‘दाग’ एवं ‘कटी पतंग’ जैसे उपन्यास पर फ़िल्म बनी। इन दोनों ही फ़िल्मों के हीरो राजेश खन्ना थे। तब के समय में राइटर गुलशन नंदा की हैसियत किसी सिलेब्रिटी से कम न थी। सत्तर व अस्सी के दशक में ‘सुषमा’, ‘मेनका’, ‘फ़िल्मी कलियां’ एवं ‘चित्रलेखा’ ऐसी फ़िल्म पत्रिकाएं थीं, जिनके अंतिम पृष्ठों पर एक या दो फ़िल्मों की कहानियां डायलॉग सहित पढ़ने मिल जाया करती थीं।

पहले फ़िल्म बनी हो, बाद में उस पर संवादों वाली किताब निकली ऐसे उदाहरण तो बहुत देखने मिल जाएंगे पर ऐसा भी हुआ कि कोई नाटक लिखा गया और बाद में उस पर फ़िल्म बनी। हमारे छत्तीसगढ़ में जन्मे और पले-बढ़े जाने-माने लेखक डॉ. शंकर शेष का नाटक है ‘पोस्टर।‘ यह नाटक पहले पब्लिश हुआ और बाद में उस पर फ़िल्म बनी। ‘पोस्टर’ से काफ़ी पहले डॉ. शंकर शेष ने ‘घरौंदा’ नाटक लिखा था जो कि मुम्बई के मिडिल क्लास परिवार पर केन्द्रित था। नाटक की पृष्ठभूमि कुछ ऐसी थी कि पति (अमोल पालेकर) एवं पत्नी (ज़रीना वहाब) एक छोटा सा घर खरीदने का सपना देखते हैं। आगे उनकी ज़िंदगी में उथल-पुथल मच जाती है। ‘घरौंदा’ नाटक पूरा होने पर डॉ. शंकर शेष ने उसे अपने कुछ बेहद करीबी मित्रों को सुनाया। डायरेक्टर भीमसेन ने जब ‘घरौंदा’ को सुना तो तत्काल उस पर फ़िल्म बनाने का फैसला कर लिया। ‘घरौंदा’ पर फ़िल्म पहले बनी और इसका नाटक के रूप में मंचन बाद में हुआ। ‘घरौंदा’ फ़िल्म 1977 में पर्दे पर आई थी, जिसके मुख्य कलाकार अमोल पालेकर, ज़रीना वहाब, डॉ. श्रीराम लागू, साधु मेहर, जलाल आगा, दीना पाठक एवं टी.पी. जैन थे। वह सत्तर व अस्सी का दशक था जब कला सिनेमा का दौर चला हुआ था। तब ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘भूमिका’, ‘मृगया’, ‘चक्र’, ‘मंडी’, ‘आक्रोश’, ‘अर्ध सत्य’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘बाज़ार’, ‘स्पर्श’, ‘पार’, ‘पार्टी’, ‘खंडहर’, ‘सारांश’, ‘दामुल’, ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘कलयुग’, ‘मिर्च मसाला’, ‘अंधी गली’, ‘सूखा’, ‘गोदाम’, ‘ये जो वो मंज़िल नहीं’, ‘एक रुका हुआ फैसला’, ‘सुबह’, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’, ‘पेस्टन जी’, ‘जाने भी दो यारों’, ‘कथा’, ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’, ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’, ‘मैसी साब’, ‘36 चौरंगी लेन’ (अंग्रेजी), ‘विजेता’ एवं ‘उत्सव’ जैसी कला फ़िल्में आई थीं। कला सिनेमा के उस आंदोलन को समानांतर सिनेमा का नाम दिया गया था। उसी दौर में डॉ. शंकर शेष के नाटक ‘पोस्टर’ पर कला फ़िल्म ‘पोस्टर’ का निर्माण हुआ। उस कालखंड में हिन्दी में एक उत्कृष्ट पत्रिका ‘धर्मयुग’ का प्रकाशन हुआ करता था। ‘धर्मयुग’ का साल में एक बार समानांतर सिनेमा पर अलग से विशेषांक निकला करता था। एक बार ऐसे ही ‘धर्मयुग’ के समानांतर सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित एक लेख का लीक से हटकर शीर्षक पढ़ने को मिला ‘पा/पो/पा।‘ कोई एक नज़र इस शीर्षक पर डाले तो उलझ जाए कि आख़िर ये ‘पा/पो/पा’ क्या है? आर्टिकल पर गहरी दृष्टि दौड़ाने पर बात समझ आती थी कि तीन फ़िल्मों ‘पार’, ‘पोस्टर’ एवं ‘पार्टी’ को लेकर लेखक ने अपनी बात रखने की कोशिश की है। इन तीनों फ़िल्मों के पहले अक्षर से वह शीर्षक बना था ‘पा/पो/पा।‘

हमारे छत्तीसगढ़ के किशोर साहू ने हिन्दी सिनेमा संसार में जो योगदान दिया वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। उन्होंने अभिनेता, निर्देशक एवं लेखक के रूप में अलग ही छाप छोड़ी। उनके व्दारा निर्देशित ‘नदिया के पार’(दिलीप कुमार-कामिनी कौशल), ‘काली घटा’, ‘राजा’, ‘वीर कुणाल’ एवं ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हें पुराने लोग आज भी याद करते हैं। फ़िल्म ‘गाइड’ में रोज़ी के पति की भूमिका किशोर साहू ने निभाई थी। वे ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ में देवानंद एवं ज़ीनत अमान के पिता की भूमिका में नज़र आए थे। बतौर लेखक किशोर साहू का उपन्यास प्रकाशित हुआ था ‘एक सीप एक मोती।‘ इस उपन्यास के कवर पर बाकायदा अभिनेता जितेन्द्र एवं अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित की तस्वीर थी और तस्वीर के किनारे लिखा था- “इस उपन्यास पर ‘अपनापन’ फ़िल्म बनने जा रही है।“ ‘अपनापन’ सन् 1977 में रिलीज़ हुई थी जिसे मशहूर डायरेक्टर जे. ओमप्रकाश ने निर्देशित किया था। मुख्य भूमिकाएं जितेन्द्र, सुलक्षणा पंडित, रीना राय, संजीव कुमार, अरूणा ईरानी, इफ़्तिख़ार एवं पिंचू कपूर ने निभाई थी। यह फ़िल्म सुपर डुपर हिट रही थी। इसका एक गीत आज भी खूब सुना जाता है- “आदमी मुसाफ़िर है… आता है जाता है… आते जाते रस्ते में वो यादें छोड़ जाता है…” इस गीत के लिए आवाज़ दी थी मोहम्मद रफ़ी एवं लता मंगेशकर ने। यह गीत ‘अपनापन’ के राइटर किशोर साहू पर भी कितना सटीक बैठता है! जब किशोर साहू से छत्तीसगढ़ का संदर्भ आ ही निकला है तो इस ‘गढ़’ के कुछ और बड़े महारथियों की अनमोल कृतियों की भी चर्चा कर ली जाए।

प्रयोगवादी फ़िल्मकार मणि कौल ने महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कृति ‘सतह से उठता आदमी’ पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई थी, जिसे 1980 में पर्दे पर देखा गया। ‘सतह से उठता आदमी’ में मुख्य भूमिकाएं भरत गोपी, विभूति झा, सत्येन कुमार, एम.के रैना एवं नीला अहमद (नीलू मेघ) ने निभाई थीं। उल्लेखनीय है कि लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध एवं ऐक्ट्रेस नीला अहमद छत्तीसगढ़ से हैं। आगे हमारे छत्तीसगढ़ की एक और बड़ी शख्सियत विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ पर मणि कौल ने ही फ़िल्म निर्देशित की। ‘नौकर की कमीज़’ में पंकज सुधीर मिश्रा (भिलाई), अनु जोसेफ, ओमप्रकाश व्दिवेदी, विकृष्णा भट्ट, समीर अहमद, वीना मेहता, अबरार कसन मुख्य किरदार में थे। 1999 में इस फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ। नाट्य निर्देशक योगेन्द्र चौबे व्दारा निर्देशित छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘गांजे की कली’ सन् 2013 में रुपहले पर्दे पर आई थी। सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के बहुचर्चित उपन्यास ‘गांजे की कली’ पर यह फ़िल्म बनी थी जिसकी छत्तीसगढ़ी में पटकथा व संवाद अशोक मिश्रा ने लिखे। वहीं छत्तीसगढ़ के ही जाने-माने लेखक संजीव बख्शी के उपन्यास ‘भूलन कांदा’ पर छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों के मशहूर डायरेक्टर मनोज वर्मा ने छत्तीसगढ़ी-हिन्दी मिश्रित ‘भूलन द मेज़’ फ़िल्म बनाई, जिसे हाल ही में क्षेत्रीय फ़िल्म कैटेगरी में राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा हुई है।

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