● कारवां (7 मई 2023)- राम जी चलें ना हनुमान के बिना…

■ अनिरुद्ध दुबे

दो भजन काफ़ी गाए और सुने जाते रहे हैं- “तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को करे…” और “दुनिया चले न श्री राम के बिना, राम जी चलें न हनुमान के बिना…।“ आज की स्थिति में देखें तो दोनों ही भजन भारतीय जनता पार्टी पर काफ़ी फिट बैठते नज़र आ रहे हैं। 1980 में भाजपा जब अस्तित्व में आई उसके बाद से ही राम मंदिर उसका महत्वपूर्ण एजेंडा रहा है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। कोशिश यही चल रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो जाए। 10 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है। कर्नाटक में चुनावी संग्राम के दौरान कुछ ऐसे समीकरण बैठे कि कांग्रेस ने वक़्त आने पर बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात कह दी। वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कर्नाटक की चुनावी सभा में अपील की कि “जब मतदान केन्द्र में पहुंचें तो बजरंगबली का स्मरण करें और मतदान करें।“ कर्नाटक की हवा बहते-बहते छत्तीसगढ़ तक भी आ पहुंची। हालांकि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने को अभी क़रीब 7 महीने का वक़्त है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा है कि “ज़रूरत पड़ी तो छत्तीसगढ़ में भी बजरंग दल को बैन करने पर सोचा जा सकता है।“ वहीं इसके जवाब में राजधानी रायपुर में भाजपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं ने हनुमान चालीसा पढ़कर अपना विरोध दर्ज कराया। हनुमान चालीसा पाठ के बाद पूर्व मंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा विधायक बृजमोहन अग्रवाल ने मीडिया के सामने कहा कि “कांग्रेसी- ताड़का, पूतना एवं कालनेमी राक्षसों के रूप में काम कर रहे हैं।“ उल्लेखनीय है कि बजरंग दल एवं विश्व हिन्दू परिषद को कहीं न कहीं आरएसएस से ही जुड़ा माना जाता है। भाजपा की डोर आरएसएस के हाथों मानी जाती रही है। कर्नाटक चुनाव में बजरंगबली का नाम कांग्रेस एवं भाजपाइयों दोनों के मुख से किसी न किसी रूप में निकल रहा है। राम भले ही आने वाले साल में चर्चा में रहें लेकिन अभी तो हनुमान की अराधना जारी है। फिर बात वही भजन की उस लाइन पर आकर रूक जाती है “रामजी चलें न हनुमान के बिना…”

बाहर आई साय

के मन की बात

वरिष्ठ आदिवासी नेता नंद कुमार साय का कांग्रेस में चले जाना भाजपा को बड़ा धक्का पहुंचाने वाला रहा। वो भी यह घटनाक्रम तब हुआ जब विधानसभा चुनाव को क़रीब 7 माह बचे हैं। साय ने कांग्रेस प्रवेश के बाद यही कहा कि “मुझे भाजपा में लगातार अपमानित किया जा रहा था।“ इधर, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इशारे ही इशारे में बड़ा तीर छोड़ा कि “साय ने आदिवासियों के मन की बात कही है।“ फिर साय का इस्तीफ़ा जिस दिन हुआ उसी रोज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन की बात का सौंवा एपिसोड सामने आया था। भाजपा के दिग्गज आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर एवं सरगुजा में खोया हुआ जनाधार पाने एड़ी-चोटी एक किए हुए हैं। ऐसे में सरगुजा के वज़नदार आदिवासी नेता का इस तरह चले जाना कम बड़ा झटका नहीं। इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो छत्तीसगढ़ में भाजपा से दो ही धाकड़ आदिवासी नेता निकले, बस्तर से बलिराम कश्यप एवं सरगुजा डिवीजन से नंद कुमार साय। छत्तीसगढ़ राज्य जब बन रहा था तब इसके आदिवासी बहुल राज्य होने की बात हुआ करती थी। अजीत जोगी के पहले मुख्यमंत्री बनने के पीछे जो कुछ बड़े कारण रहे उसमें एक बड़ा कारण उनका आदिवासी कहलाना रहा था। हालांकि आज जोगी के आदिवासी होने पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है! जोगी मुख्यमंत्री बने तो छत्तीसगढ़ विधानसभा का नेता प्रतिपक्ष भी आदिवासी ही होना चाहिए इस पर जोर देते हुए नंद कुमार साय को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था। 2003 में जब भाजपा की सत्ता आई मानो उसी समय से साय के पीछे की तरफ जाने की शुरुआत हो चुकी थी। जहां तक बलिराम कश्यप की बात है तो वे बातचीत से लेकर आचार व्यवहार सब में आक्रामक थे। यही कारण है कि उन्हें किनारा लगा पाना राजनीतिक धुरंधरों के लिए कोई हॅसी खेल नहीं था। रही बात साय की तो उनकी सरलता और सहजता ही शायद उनके लिए नुकसानप्रद रही। भाजपा छोड़ते वक़्त उन्होंने कहा कि “2003 में मैं तपकरा सीट से विधानसभा चुनाव लड़ना चाहता था लेकिन जान-बूझकर मुझे मरवाही से अजीत जोगी के खिलाफ़ उतारा गया।“ बहरहाल साय के इस तरह कांग्रेस में चले जाने के बाद भाजपा के प्रदेश प्रभारी ओम माथुर एवं सह प्रभारी नितीन नवीन को छत्तीसगढ़ में खोई हुई ज़मीन वापस पाने के लिए अब कई पहलुओं पर नये सिरे से विचार करना होगा। देखने वाली बात तो यह भी रहेगी कि आने वाले समय में साय कांग्रेस में किस जगह पर खड़े नज़र आएंगे।

यू ट्यूब के बाद बड़े

पर्दे पर भी चला

अमलेश नागेश का जादू

छत्तीसगढ़ी सिनेमा में इन दिनों अमलेश नागेश नाम का तूफान आया हुआ है। हाल ही में अमलेश की पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘ले सुरू होगे मया के कहानी’ रिलीज़ हुई है जिसकी बॉक्स आफिस पर धूम मची हुई है। ‘ले सुरू होगे मया के कहानी’ के डायरेक्टर सतीश जैन हैं जो पूर्व में ‘मोर छंइहा भंइया’, ‘मया’ एवं ‘हॅस झन पगली फॅस जबे’ जैसी सुपर डूपर हिट फ़िल्में देकर इतिहास रच चुके हैं। बताते हैं अमलेश यू ट्यूब स्टार हैं। वे अपने दोस्तों आर. मास्टर और नितेश के साथ मिलकर कॉमेडी के छोटे-छोटे टूकड़े बनाते हैं और उसे यू ट्यूब पर डालते हैं। यू ट्यूब पर उनकी कॉमेडी को देखने वालों की संख्या लाखों में है। अमलेश हाल ही में राजहरा के बरसाटोला गांव में जब छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘गुइयां’ की शूटिंग कर रहे थे उनसे मिलने के लिए आसपास के गांव के युवाओं का मज़मा लगे रहता था। एक-दो बार तो ऐसे भी दृश्य देखने मिले कि मेटाडोर में भरकर दूसरे गांव के लोग उनसे मिलने पहुंचे। अमलेश के साथ सेल्फी लेने ऐसी होड़ लगी रहती कि कुछ देर के लिए फ़िल्म की शूटिंग रूक जाती थी। अमलेश की ख़ासियत है कि वो किसी को भी निराश नहीं करते। किसी से ठीक से सेल्फी लेते नहीं बने तो खुद ही मोबाइल हाथ में लेकर सेल्फी ले देते हैं। जनता जनार्दन जिंदाबाद।

20 लाख वाले कवि की

छत्तीसगढ़ में भारी डिमांड

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख़्याति प्राप्त कर चुके  एक कवि की इस समय छत्तीसगढ़ में काफ़ी डिमांड है। अंदर की ख़बर रखने वाले तो यही बताते हैं कि ये इंटनेशनल कवि एक कवि सम्मेलन का 20 लाख रुपये चार्ज करते हैं। 2005-2006 के दौर में इनका रेट 5 लाख था। कोरोना काल के बाद दो ही चीजों के रेट सबसे ज़्यादा ऊपर जाते दिखे, एक तो सोना और दूसरे ये ऊर्जावान कवि। आज की तारीख़ में ये देश के सबसे महंगे कवि हो गए हैं। सन् 2000 के पहले की बात करें तो देश में कोई भी कवि 1 लाख से ऊपर नहीं पहुंच पाया था। बहरहाल इस समय दूसरे नंबर पर सबसे ज़्यादा रेट लेने वाले में टीवी सीरियल से लोकप्रियता हासिल कर चुके एक कवि का नाम है जो ढाई लाख तक चार्ज करते हैं। वैसे अपना छत्तीसगढ़ भी पीछे नहीं। हास्य की चाशनी बहाने में अग्रणी छत्तीसगढ़ के एक कवि का रेट 1 लाख तक पहुंच चुका है। हमारे यहां की एक कवयित्री पिछले दिनों डेढ़ लाख में राज्य के बाहर प्रोग्राम देकर आई हैं। बाक़ी छत्तीसगढ़ में और भी कुछ क़ाबिल कवि हैं, जो कि 5 से 25 हज़ार तक चार्ज करते हैं। कई बार यह भी प्रश्न उठते रहा है कि कविता और गद्य की ज़्यादा गहरी समझ रखने वाले लोग छत्तीसगढ़ में कहां ज़्यादा हैं? साहित्यकारों की तरफ से ज़वाब यही आता है कि वैसे तो पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में पढ़ने लिखने वाले लोग मौजूद हैं, लेकिन पद्य यानी कविता और गद्य की सबसे ज़्यादा समझ रखने वाले लोग धमतरी, राजनांदगांव, रायगढ़ एवं जगदलपुर में मिलते हैं।

ख़ूब आ रहे नये

रायपुर के सपने

राजनीति के कुछ धुरंधर एवं व्यापार जगत से जुड़े लोगों को इन दिनों लगातार नया रायपुर के सपने आ रहे हैं। आएं भी क्यों न, नया रायपुर को आगे किस तरह का स्वरूप दिया जाना है इसकी भनक जो लग चुकी है। बताते हैं मंदिर हसौद से नया रायपुर जाने के लिए जो ब्रिज बना है वहां से लेकर आगे एयरपोर्ट मोड़ तक बिजनेस कॉरीडोर बनाने की तैयारी है। वहीं धमतरी रोड की तरफ से बाल्को हॉस्पिटल के लिए जो रास्ता है वहां 500 एकड़ से अधिक ज़मीन बिजनेस हब के लिए दी जा रही है। माना एयरपोर्ट का पास दिल्ली-मुम्बई की तरह एयरो सिटी बनाने का प्लान है, जहां दो से तीन बड़े हॉटल बनाने कुछ लोगों की तरफ से कागज़ी कार्यवाही शुरु हो चुकी है। राजधानी रायपुर के बड़े नेता का भी एयरपोर्ट के पास फाइव स्टार हॉटल बनाने का प्लान है। ज़मीन के क़रोबार से जुड़े लोग यही बताते हैं कि अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री थे नया रायपुर की एंट्री पोता, चेरिया एवं ऊपरवारा से देना चाह रहे थे, लेकिन बाद में मंदिर हसौद की तरफ से नया रायपुर का मुख्य प्रवेश व्दार बना दिया गया। वज़ह ये कि कुछ रसूखदार लोगों ने वहां पर ज़मीन खरीदकर रख छोड़ी थी। किसी समय में इनकी ज़मीन जहां 10 लाख रूपये एकड़ के आसपास थी वह आज़ बढ़कर एक करोड़ रुपये एकड़ पर जा पहुंची है।

कार्यकारी अध्यक्ष और

आरडीए डायरेक्टर

आरडीए (रायपुर विकास प्राधिकरण) में लंबे समय से जो खींचतान का दौर चले आ रहा है, लगता है वो चुनावी आचार संहिता लगने के बाद ही जाकर थमेगा। मीडिया में आरडीए की छोटी-बड़ी ख़बरों को अपने नाम के साथ हाइलाइट कराने को लेकर मशहूर हो चुके एक नेता लगातार यह जानने की कोशिश में लगे हैं कि आरडीए अध्यक्ष का कार्यकाल कितने साल का होता है। दरअसल उन्हें किसी ने बता दिया है कि तीन साल का होता है। वह नेता आरडीए के अफ़सरों व कर्मचारियों से जा-जाकर पूछ रहे हैं कि क्या वाकई तीन साल का होता है। यदि तीन साल का होता है तो आरडीए में किसी तरह की हलचल होती क्यों नहीं दिख रही है! तीन साल तो गुज़र चुका!! वहीं बीच में आरडीए के गलियारे में ही हवा उड़ गई थी कि अध्यक्ष तो सुभाष धुप्पड़ हैं ही किसी को यहां कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है। बात हवा में थी और हवा में ही रही, क्योंकि बनाए जाने का प्रावधान तो 1 अध्यक्ष, 2 उपाध्यक्ष एवं 5 संचालक मंडल के सदस्यों का ही है, फिर ये कार्यकारी अध्यक्ष की बात कहां से आ गई? यह अलग बात है कि संचालक मंडल का कोई सदस्य खुद को आरडीए का डायरेक्टर कह ले या अख़बार में छपवा ले। आरडीए डायरेक्टर जैसा शब्द तो 2018 की सरकार आने से पहले प्रचलन में था ही नहीं।

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