● स्मृति शेष
■ अनिरुद्ध दुबे
17 फरवरी की रात दुखद ख़बर आई की रंगमंच, टीवी सीरियल एवं सिनेमा जगत के मशहूर अभिनेता शाहनवाज़ प्रधान नहीं रहे। वे 59 साल के थे। क़रीबी मित्र उन्हें शानू भाई से संबोधित किया करते थे। मेरा उनसे परिचय 1984 से था। मुलाक़ात के पीछे वज़ह बनी थी ड्रामा संसार से जुड़ाव। जब मैंने ड्रामा को नज़दीक से देखना शुरु किया शाहनवाज़ भाई रायपुर रंगमंच की दुनिया का जाना-पहचाना नाम हो चुके थे। तभी पता चला कि नाट्य संस्था ‘रंगसंघ’ के बैनर तले हुए नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में शाहनवाज़ भाई का अहम् किरदार था। मोहन राकेश लिखित इस नाटक को प्रदीप चक्रवर्ती ने निर्देशित किया था। देर रात रायपुर के मालवीय रोड स्थित भानजी भाई की दुकान के सामने एक चाय दुकान (दर्जी लाइन) हुआ करती थी जहां शाहनवाज़ भाई से अक्सर मुलाक़ात हो जाया करती। नाट्य लेखक एवं व्यंग्यकार अख़्तर अली, शाहनवाज़ प्रधान, भूपेन्द्र ठाकुर, युवराज वर्मा, मकीउद्दीन एवं कुछ अन्य लोगों की देर रात उस चाय दुकान में बैठक हुआ करती। मैं भी उस बैठक का छोटा सा हिस्सा बन जाया करता था। बातचीत करते कब रात के दो-तीन बज जाते पता नहीं चलता था। चाय, बीड़ी एवं सिगरेट के दौर के बीच घंटों रंगमंच या अन्य विषयों पर चर्चा छिड़ी रहती।
आख़री अवार्ड समारोह
रंगमंच शाहनवाज़ भाई लिए पूजा थी। नाट्य विधा की गरिमा को ठेंस पहुंचाने वाला कोई भी व्यक्ति उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। एक बार हुआ यूं कि एक ड्रामा चल रहा था। बड़ी संख्या में दर्शक मौजूद थे। चलते ड्रामे के बीच रायपुर शहर के एक सीनियर आर्टिस्ट ने पहले शराब का घूंट गले से नीचे उतारा और इसके बाद सीधे मंच पर अपनी अभिनय कला का प्रदर्शन करने जा पहुंचे। उस समय शाहनवाज़ भाई मंच पर विंग्स के किनारे खड़े थे। सामने जो कुछ भी घटा वह उनके बर्दाश्त के बाहर था। वह कभी-कभी भावावेश में कहा करते थे कि मौका मिला तो रंगमंच का निरादर करने वाले इस एक्टर की चप्पल से आवभगत करूंगा। हालांकि ऐसी नौबत नहीं आने पाई। शाहनवाज़ भाई को और भी ज़्यादा नज़दीक से जानने का मौका तब मिला जब वे 1985 की गर्मियों में नेताजी सुभाष स्टेडियम में लगे ग्रीष्मकालीन नाट्य शिविर में कम अवधि के दो नाटक ‘सारे सर्वनाम’ एवं ‘चिड़िया’ निर्देशित कर रहे थे। उन दोनों नाटक में मैं था। शिविर के पहले ही दिन खड़ी भाषा में उन्होंने कहा था कि “जो कोई भी सिनेमा या टीवी सीरियल में जाने की हसरत पालकर यहां आया हो यह वर्कशाप छोड़कर चला जाए।“ यह अलग बात है कि आगे चलकर शानू भाई को धारणा बदलनी पड़ी और उसी सिनेमा एवं सीरियल संसार ने उनको बड़ी पहचान दिलाई। इसी वर्कशॉप के समय में मेरा उनके बैजनाथपारा स्थित घर में एक-दो बार जाना हुआ था। उनका रूटीन हैरान कर देने वाला था। वे रात भर जागते रहने के बाद सुबह 5 या 6 बजे सोया करते और फिर दोपहर ढलने के बाद 4 बजे के आसपास सोकर उठा करते थे। पलंग के पास एक छोटा सा टेप रिक़ार्ड हुआ करता था और स्टूल पर पढ़ने की एक-दो किताबें नज़र आ जाया करती थीं। हालांकि आगे जाकर उनकी देर से सोने और देर से उठने वाली यह आदत बदल चुकी थी। 1986 में ख्याति प्राप्त नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर नाटक पर एक वर्कशाप लेने दिल्ली से एक बड़ी नाट्य हस्ती कार्तिक अवस्थी को रायपुर बुलवाए थे। कार्तिक अवस्थी की पत्नी सपना अवस्थी भी आई हुई थीं, जो कि एक बेहतरीन गायिका हैं। कार्तिक अवस्थी ने यहां एक नाटक ‘नंद राजा मस्त है’ निर्देशित किया था जिसमें शाहनवाज़ भाई ने एक महत्वपूर्ण किरदार निभाया था। ‘नंद राजा मस्त है’ के बाद शाहनवाज़ भाई हबीब तनवीर के ग्रुप ‘नया थियेटर’ से जुड़ गए। हबीब साहब के सानिध्य में उन्होंने ‘हिरमा की अमर कहानी’, ‘चरणदास चोर’, ‘मिट्टी की गाड़ी’ एवं ‘लाला शोहरत राय’ जैसे ड्रामे किए। देश के विभिन्न हिस्सों में इन नाटकों का प्रदर्शन हुआ था। आगे चलकर शाहनवाज़ भाई को लगने लगा था कि पंख फैलाकर अब लंबी उड़ान भरनी होगी। 1989 में वे मुम्बई पहुंचे। वहां सीरियल व फ़िल्मों के लिए संघर्ष शुरु हो गया। रायपुर-भिलाई के कला एवं सिनेमा जगत से जुड़े लोगों के लिए शाहनवाज़ से जुड़ी पहली बड़ी ख़बर यह आई थी कि मशहूर निर्देशक रामानंद सागर के सीरियल ‘कृष्णा’ में वे नंद बाबा की भूमिका निभाने जा रहे हैं। इसके बाद वे धारावाहिक ‘अलिफ़ लैला’ में सिंदबाद जहाज़ी की भूमिका में नज़र आए। और भी कई सीरियल किए। सैफ अली ख़ान स्टारर फ़िल्म ‘फैंटम’ में उन्होंने हाफिज़ सईद का जो किरदार निभाया उसे काफ़ी सराहना मिली। शाहरुख़ ख़ान स्टारर फ़िल्म ‘रईस’ में भी वे एक अहम् किरदार में नज़र आए। हाल ही में वेब सीरिज ‘मिर्ज़ापुर’ में उनके काम को सराहा गया। मुम्बई में डबिंग आर्टिस्ट के रूप में भी उनकी अलग पहचान थी।
सन् 2002 में वरिष्ठ पत्रकार राजेश मिश्रा ने राजधानी रायपुर में वीआईपी रोड के पास स्थित अजूबा में पहला छत्तीसगढ़ी फ़िल्म अवार्ड समारोह करवाया था। उस अवार्ड समारोह की जूरी में मेरे अलावा वरिष्ठ पत्रकारगण राजेश गनौदवाले, विजय मिश्रा एवं गुरबीर चावला थे। उसी दौर में शाहनवाज़ भाई ने एक छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘बनिहार’ की थी, जिसमें उनका नेगेटिव किरदार था। उस किरदार को उन्होंने बेहतरीन निभाया था। जूरी के हम सदस्यों ने ‘बनिहार’ फ़िल्म के लिए शाहनवाज़ भाई को बेस्ट खलनायक चुना। इस पुरस्कार को लेने वे मुम्बई से रायपुर नहीं आ सके थे। उनके कलाकार साथी सलीम अंसारी ने मंच पर जाकर यह अवार्ड ग्रहण किया था।
मुम्बई में आख़री मुलाक़ात
सितम्बर 2017 को मैं मशहूर फ़िल्म लेखक सलीम खान एवं हिन्दी तथा मराठी फ़िल्मों के जाने-माने अभिनेता रमेश देव का इंटरव्यू करने मुम्बई पहुंचा हुआ था। 9 सितंबर 2017 की रात मुम्बई के अंधेरी वेस्ट के किसी चौराहे पर पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत मेरी शाहनवाज़ भाई से मुलाक़ात हुई थी। वह हमारी आख़री मुलाक़ात थी। एक संवेदनशील इंसान जो अपने मित्रों के दुख-सुख का साथी था और हर समय सहयोग के लिए तत्पर रहा करता था मुम्बई में आयोजित एक अवार्ड समारोह में अवार्ड ग्रहण करने के बाद अचानक इस संसार से चला गया। शाहनवाज़ भाई ज़िन्दगी में हमेशा बड़ी सोच लेकर चले। मंच हो या छोटा पर्दा या फिर बड़ा पर्दा उनका किरदार हमेशा चौंकाता था। वे इस फ़ानी दुनिया से गए भी तो चौंका कर गए।