● छत्तीसगढ़ी सिनेमा का पहला पन्ना- ‘कहि देबे संदेस’

(फरवरी 2000 में फ़िल्म निर्देशक सतीश जैन भिलाई में ‘मोर छंइहा भुंइया’ शूट कर रहे थे। तब मैं सांध्य दैनिक ‘हाईवे चैनल’ में पत्रकार था। वही समय था जब मुझे छत्तीसगढ़ी सिनेमा पर कलम उठाने का मौका मिला। हालांकि उससे पहले हिन्दी सिनेमा पर लेखनी का सिलसिला जारी था। ‘मोर छंइहा भुंइया’ के पहले दो छत्तीसगढ़ी फ़िल्में ‘कहि देबे संदेस’ (1965) एवं ‘घर व्दार’ (1971) आ चुकी थीं। ‘घर व्दार’ एवं ‘मोर छंइहा भुंइया’ के बीच 29 बरसों का फासला रहा। ‘हाईवे चैनल’ के संपादक प्रभाकर चौबे जी की प्रेरणा से पहले ‘कहि देबे संदेस’ एवं उसके बाद ‘घर व्दार’ से जुड़े इतिहास को खंगालने मेरी तरफ से कोशिश हुई। छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास का पहला पन्ना ‘कहि देबे संदेस’ पर मैं जो कुछ जानकारियां जुटा पाया, उसका प्रकाशन 7 फरवरी 2000 को ‘हाईवे चैनल’ में हुआ था। मामूली संशोधन के साथ ‘कहि देबे संदेस’ से जुड़ी दास्तान एक बार फिर आप सब के सामने पेश है…)

■ अनिरुद्ध दुबे

जब भोजपुरी में बनी पहली फ़िल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ इतिहास रच सकती है तो छत्तीसगढ़ी में कोई क्यों नहीं, यह सवाल छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र मनु नायक के मन को मथते रहा था। काफ़ी हिम्मत जुटाकर नायक जी ने 1964 में पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ का निर्माण किया। कड़े संघर्ष के बाद वे सन् 1965 में इस फ़िल्म को सिनेमाघरों में ला पाए। इस तरह ‘कहि देबे संदेस’ को छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास का पहला पन्ना कहलाने का गौरव हासिल हुआ।

निर्देशक मनु नायक मूलतः कुर्रा बंगोली (खरोरा) के रहने वाले हैं। ‘कहि देबे संदेस’ की स्क्रीप्ट खुद नायक जी ने लिखी थी, जिसके पीछे उनके प्रेरणा स्त्रोत जाने-माने साहित्यकार एवं राजनीतिज्ञ डॉ खूबचंद बघेल थे। नायक जी इस फ़िल्म का निर्देशन निर्जन तिवारी से कराना चाहते थे। निर्जन तिवारी ने अपना नाम निर्जन बाद में रखा, पहले वह लखन तिवारी के नाम से जाने जाते थे। लखन तिवारी पंडित रामदयाल तिवारी के पुत्र थे। पंडित रामदयाल तिवारी छत्तीसगढ़ की बड़ी हस्ती थीं। उनकी गिनती जाने-माने लेखकों में होती थी। पिता की लेखन कला लखन को विरासत में मिली थी। कलम की साधना करते-करते लखन ने निर्जन नाम अपना लिया। निर्जन तिवारी को मुम्बई ले जाने में बड़ी भूमिका ख्याति प्राप्त फ़िल्म निर्देशक महेश कौल की रही थी। महेश कौल कभी रायपुर शहर के गुढ़ियारी एवं सत्ती बाज़ार मोहल्ले में अलग-अलग समय में रहे थे। मुम्बई में ही मनु नायक की मुलाक़ात निर्जन तिवारी से हुई। मनु नायक के अनुरोध पर निर्जन तिवारी ने ‘कहि देबे संदेस’ का निर्देशन करना स्वीकार कर लिया। दोनों का रायपुर आना हुआ और फ़िल्म की तैयारियां शुरु हो गईं। इसके पहले कि शूट शुरु हो पाता मनु नायक एवं निर्जन तिवारी के बीच मनमुटाव हो गया। तिवारी जी वापस मुम्बई चले गए। एक संकल्प लेकर कि वह भी एक छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बनाएंगे। इधर, निर्माता मनु नायक ने ‘कहि देबे संदेस’ के निर्देशन की ज़िम्मेदारी खुद संभाल ली। गीत लिखने का ज़िम्मा उन्होंने हनुमंत नायडू (नागपुर) को सौंपा। संगीतकार मलय चक्रवर्ती के संगीत निर्देशन में बॉम्बे (अब मुम्बई) में गीतों की रिकॉर्डिंग हुई। गीतों को स्वर दिया मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर एवं मीनु पुरुषोत्तम ने।

मनु नायक ने पलारी एवं उसके आसपास फ़िल्म की शूटिंग करना तय किया। मुम्बई से कान मोहन, कपिल कुमार, उमा, सुरेखा, दुलारी जैसे कलाकार पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ का हिस्सा बनने छत्तीसगढ़ पहुंचे। छत्तीसगढ़ के भी कुछ कलाकारों को नायक जी ने अपनी फ़िल्म से जोड़ा, जिनमें रायपुर के जाफ़र अली फ़रिश्ता, पोटियाकला (दुर्ग) के शिव कुमार दीपक, राजनांदगांव की कमला बैरागी, राजनांदगांव के ही रमाकांत बख्शी शामिल थे। रमाकांत बख्शी जाने-माने साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भतीजे थे। ‘कहि देबे संदेस’ का सब्जेक्ट उस दौर में काफ़ी बोल्ड था, जिसमें दिखाया गया कि ब्राह्मण लड़की का प्रेम अन्य जाति के युवक से हो जाता है। बहरहाल फ़िल्म तेजी से बनी और पहले दुर्ग की तरुण टॉकीज़ तथा उसके बाद रायपुर की राजकमल टॉकीज़ (अब राज टॉकीज़) में प्रदर्शित हुई थी। वह समय 1965 का था। ‘कहि देबे संदेस’ के पर्दे पर पहुंचते ही बवाल मच गया। कुछ लोगों को ब्राम्हण लड़की का अन्य जाति के लड़के के साथ प्रेम वाला विषय बर्दाश्त नहीं हुआ। विरोध जताने लोग सड़कों पर उतर आए। फ़िल्म का एक पात्र है कमलनारायण। विरोध करने वालों को यह भी आपत्ति थी कि पात्र का नाम आख़िर कमलनारायण कैसे रखा गया! जानकार लोग यह भी बताते हैं कि इस फ़िल्म के लिए मनु नायक ने ख़ून पसीना एक किया था। दिन में पलारी एवं उसके आसपास शूटिंग होती थी और रात में नायक जी रायपुर आकर पैसों की व्यवस्था कर रहे होते थे। नायक जी बताते हैं- “यह फ़िल्म अच्छी चली थी। इस फ़िल्म ने मुझे कुछ कमाकर ही दिया था।“ नायक जी ने अस्सी के दशक में एक और छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘पठौनी’ बनाने की घोषणा की थी। गानों की रिकॉर्डिंग को छोड़कर ‘पठौनी’ का आगे का कोई और काम नहीं हो पाया। इस तरह नायक जी के एक और बड़े सपने पर रंग चढ़ते-चढ़ते रह गया। फरवरी 2000 में मनु नायक जी मुम्बई में थे। तब इस लेखक की लगातार फोन पर उनसे चर्चा हुई थी। तब नायक जी ने अफ़सोस जताते हुए कहा था कि “पठौनी बनाने का इरादा तो होता है पर समस्या पैसों की है। काश, कोई पैसा लगाने सामने आता।“  नायक जी ने आगे कहा था- “छत्तीसगढ़ी में फ़िल्म बनाने के लिए नौजवानों को आगे आना चाहिए। हमने तो रास्ता दिखा दिया था। ‘कहि देबे संदेस’ के लिए हमें कितना विरोध नहीं झेलना पड़ा था। यकीन नहीं होता तो अपने शहर के बुजुर्गों से पूछ लीजिए वह आपको बताएंगे।“

‘कहि देबे संदेस’ का एक महत्वपूर्ण दृश्य रायपुर नगर पालिका (अब नगर निगम) के हाल में फ़िल्माया गया था। उस हाल में वार्ड मेंबरों (पार्षदों) की सामान्य सभा हुआ करती थी। ‘कहि देबे संदेस’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सुरेखा मुम्बई से थीं। उन्होंने मशहूर लेखक ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फ़िल्मों में काम किया था। पुराने लोग सुरेखा की ‘शहर और सपना’ एवं ‘आसमान महल’ फ़िल्म को आज भी याद करते हैं। सुरेखा ने ख्वाज़ा अहमद अब्बास के नाटक ‘लाल गुलाब की वापसी’ में भी काम किया था। इस नाटक का कभी रायपुर में मंचन हुआ था। नाटक के लिए जो टीम रायपुर आई थी उसमें सुरेखा के अलावा मनमोहन कृष्ण, टीनू आनंद, शौकत आज़मी (अभिनेत्री शबाना आज़मी की मां) एवं युनूस परवेज़ जैसे कलाकार थे। इस टीम को लेकर आए थे जाफ़र अली फ़रिश्ता। किसी कारणवश इस नाटक के कुछ कलाकार रायपुर नहीं पहुंच पाए थे। तब उनकी भूमिकाओं को रायपुर के ही रंगकर्मी अनिल पटेरिया एवं जलील रिज़वी ने निभाया था।

(फ़िल्म निर्देशक मनु नायक, साहित्यकार स्व. हरि ठाकुर एवं नाट्य निर्देशक जलील रिज़वी से बातचीत के आधार पर)

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