●… तो पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म का नाम ‘कहि देबे भइया ला संदेस’ होता… डॉ. खूबचंद बघेल व निर्जन तिवारी का नाम जुड़ते-जुड़ते रह गया…

■ अनिरुद्ध दुबे

यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि डायरेक्टर मनु नायक ने सन् 1963 में पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बनाने की जो घोषणा की थी उसका नाम ‘कहि देबे भइया ला संदेस’ था। बाद में फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ के नाम से बनी। नाम बदलने के साथ एक बड़ा घटनाक्रम सामने आया। पहले फ़िल्म के लेखक के रूप में जाने-माने साहित्यकार एवं नेता डॉ. खूबचंद बघेल एवं निर्देशक के रूप में निर्जन तिवारी का नाम सामने आया था। बाद में दोनों ही नाम हट गए। निर्देशक मनु नायक ही ने फ़िल्म के सारे दृश्य लिखे। ‘कहि देबे संदेस’ के प्रदर्शन के बाद कुछ ऐसा घटित हुआ कि कुछ सुप्रसिद्ध लोग एक दूसरे पर शाब्दिक हमला करने से नहीं चूके।

लगता है भोजपुरी सिनेमा और छत्तीसगढ़ी सिनेमा का जन्म जन्मांतर का रिश्ता है और आगे भी रहेगा। 22 फरवरी 1963 को पटना के वीणा सिनेमा हॉल में पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ के प्रदर्शन के साथ मानो छत्तीसगढ़ी सिनेमा के लिए राह खुल गई। तब जाने-माने डायरेक्टर महेश कौल का मुम्बई में दादर क्षेत्र में ऑफिस हुआ करता था। कौल साहब अनुपम चित्र के बैनर तले फ़िल्म बनाया करते थे। कौल साहब के पास ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ के लेखक एवं अभिनेता नज़ीर हुसैन का आना जाना हुआ करता था। अनुपम चित्र के दफ़्तर में नज़ीर हुसैन ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ की कहानी सुनाते नहीं थकते थे। इसमें कोई दो मत नहीं कि फ़िल्म ने प्रदर्शित होने के साथ ही धूम मचा दी थी। इस फ़िल्म को ताबड़तोड़ सफलता मिलते ही आठ-दस और भोजपुरी फ़िल्में अनाउंस हो गई थीं। उसी समय मनु नायक के मन में सपना आकार लेने लगा कि जब भोजपुरी में फ़िल्में बन सकती हैं तो छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं! तब मुम्बई के एल्फिंस्टन कॉलेज़ में छत्तीसगढ़ निवासी  हनुमंत नायडू प्रोफेसर थे। वे दुर्ग के तकियापारा मोहल्ले के निवासी थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ी गीतों पर पीएचडी की थी। मनु नायक ने हनुमंत नायडू से राय मशविरा किया कि क्या छत्तीसगढ़ी में फ़िल्म बनाई जा सकती है। नायडू ने नायक का उत्साहवर्धन करते हुए कहा कि इस दिशा में ज़रूर प्रयास होना चाहिए। नायक के अनुरोध पर महेश कौल के भाई सुरेंदर कौल छत्तीसगढ़ी फ़िल्म के लिए कहानी लिखने तैयार हो गए। इसी बीच सुरेंदर कौल के सामने कुछ व्यस्तताएं आ गईं और वे कहानी नहीं लिख पाए। महेश कौल के एक और सहायक थे निर्जन तिवारी, जो कि छत्तीसगढ़ के ही निवासी थे। मनु नायक ने निर्जन तिवारी से कहा कि “कोई कहानी तैयार कर छत्तीसगढ़ी में फ़िल्म बनाते हैं जिसका निर्देशन आप करें।“ तिवारी डायरेक्शन के लिए सहर्ष तैयार हो गए। तय हुआ कि छत्तीसगढ़ के जाने माने नेता एवं साहित्यकार डॉ. खूबचंद बघेल से फ़िल्म की कहानी लिखवाई जाए। मनु नायक बताते हैं- “इस काम के लिए तिवारी जी मुम्बई से रायपुर पहुंचे। यहां वे डॉ. खूबचंद बघेल से मिले। डॉ. बघेल फ़िल्म को लिखने के लिए तैयार भी हो गए थे लेकिन समय को लेकर दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठ पाया। डॉ. बघेल कहानी के लिए सुबह का समय देने को तैयार थे, लेकिन तिवारी जी की दिनचर्या में सुबह ज़ल्दी उठना शामिल नहीं था। इसलिए हमने जैसा सोच रखा था वैसा नहीं हुआ।“

बहरहाल ‘कहि देबे संदेस’ के निर्माण से लेकर उसके प्रदर्शित होने तक जो कुछ भी घटा उसका अपने आप में बड़ा दिलचस्प इतिहास है। 6 दिसंबर 1963 को रायपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ तथा 8 दिसंबर 1963 को ‘महाकोशल’ एवं ‘नवभारत’ में ख़बर प्रकाशित हुई कि ‘कहि देबे भइया ला संदेस’ का निर्देशन प्रतिष्ठित साहित्यकार स्व. रामदयाल तिवारी के पुत्र निर्जन तिवारी जो अनेक वर्षों से निर्देशक महेश कौल के सहायक रहे, कर रहे हैं। स्क्रिप्ट सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता एवं साहित्यकार डॉ. खूबचंद बघेल लिख रहे हैं। सीपी बरार क्षेत्र के लिए इस फ़िल्म के वितरण का अधिकार मेसर्स चित्र निकेतन रायपुर के पास है। तीन अख़बारों में छपी ख़बर से इस बात की पुष्टि होती है कि पूर्व में डॉ. खूबचंद बघेल एवं निर्जन तिवारी ‘कहि देबे भइया ला संदेस’ के हिस्सा थे। 2 जनवरी 1964 को नई दुनिया के रायपुर संस्करण में विज्ञापन छपा था- “चित्र संसार बम्बई आभारी है उन सहयोगियों एवं शुभचिंतकों का जिन्होंने प्रथम छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे भइया ला संदेस’ के लिए अपनी सेवाएं प्रस्तुत करने में तत्परता दिखलाई। संस्था के पास इतने अधिक पत्र आए हैं कि उन सब का व्यक्तिगत रूप से शीघ्र उत्तर देना बहुत ही कठिन है। संस्था इसके लिए प्रयत्नशील है परन्तु फिर भी विलंब के लिए क्षमा चाहेगी। सदैव स्मरण रखिए निर्माता मनु नायक की प्रथम छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे भैया ला संदेस’ आपकी है, आपके लिए है।“ यह विज्ञापन चित्र संसार रणजीत स्टूडियो दादर बम्बई के नाम से जारी हुआ था। इस विज्ञापन से यह माना जा सकता है कि पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म के प्रोजेक्ट को लेकर कितना उत्साह था। मई 1964 में ‘छत्तीसगढ़ सहयोगी’ नाम की पत्रिका में प्रथम छत्तीसगढ़ी ‘फ़िल्म कहि देबे संदेस की प्रगति’ शीर्षक से जानकारी प्रकाशित हुई थी। इससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि फ़िल्म का नाम बदलकर ‘कहि देबे संदेस’ सन् 1964 में फरवरी से अप्रैल माह के बीच रखा गया होगा। मनु नायक के क़रीबी रहे साहित्यकार स्वराज्य करुण (स्वराज्य दास) ने कहीं पर लिखा है “नवम्बर 1964 को मुम्बई के कलाकारों की टीम ‘कहि देबे संदेस’ की शूटिंग के लिए रायपुर पहुंची थी। वहीं 17 जनवरी 1965 में राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के फ़िल्मी समाचार कॉलम में ‘कहि देबे संदेस लगभग पूर्ण’ शीर्षक से ख़बर प्रकाशित हुई थी।“ माना जा सकता है कि नवम्बर-दिसम्बर 1964 में ‘कहि देबे संदेस’ को लेकर युद्ध स्तर पर काम हुआ होगा। 7 अप्रैल 1965 को सेंसर बोर्ड ने यू सर्टिफिकेट के साथ ‘कहि देबे संदेस’ को पास किया। 8 अप्रैल 1965 को महाकोशल अख़बार में विज्ञापन कुछ इस अंदाज़ में प्रकाशित हुआ था- “9 अप्रैल को भव्य उद्घाटन, तरुण दुर्ग एवं कमलछाया राजनांदगांव में… छत्तीसगढ़ के आसूंओं व मुस्कानों की कहानी कहि देबे संदेस… सितारे- उमा, कान मोहन, कपिल, दुलारी, वीना, सतीश, कमला, पाशा, फरिश्ता, रमाकांत, गीत- राजदीप, संगीत मलय चक्रवर्ती, लेखक निर्माता निर्देशक मनु नायक… शीघ्र प्रदर्शित रायपुर एवं भिलाई में।“ हालांकि मनु नायक फ़िल्म के प्रदर्शन की जो तारीख़ बताते हैं वह इस विज्ञापन की तारीख़ से अलग है। नायक बताते हैं- “फ़िल्म का प्रदर्शन 16 अप्रैल 1965 को दुर्ग एवं भाटापारा में हुआ था। बाद में सितंबर 1965 में यह फ़िल्म रायपुर में राजकमल टॉकीज़ में लगी थी। जिस दिन रायपुर में यह फ़िल्म लगी सिनेमा हॉल के भीतर और बाहर भीड़ देखने लायक थी।“

रायपुर शहर के ऐसे बुजुर्ग जिन्होंने उस दौर को देखा है, उनका कहना है- “कहि देबे संदेस के प्रदर्शन के होते ही काफ़ी बवाल मच गया था। ब्राह्मण समुदाय की इस पर गहरी आपत्ति थी कि फ़िल्म की नायिका ब्राह्मण है, उसे किसी दूसरी जाति के नायक से प्रेम करते कैसे दिखा दिया गया। माना यही जाता है कि इसी विवाद के कारण रायपुर शहर में इस फ़िल्म का प्रदर्शन थोड़ा रुककर किया गया था। ‘कहि देबे संदेस’ पर जो विवाद छिड़ा उसकी चर्चा अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक में हुई थी। विवाद इतना तूल पकड़ चुका था कि तत्कालीन सांसद मिनी माता ने तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से इस फ़िल्म को देखने का अनुरोध किया था।“ मनु नायक बताते हैं “इंदिरा जी ने समय निकालकर इस फ़िल्म को देखा था और तारीफ़ भी की थी।“

‘कहि देबे संदेस’ की रिलीज़ के समय अख़बारों पर किस कदर वैचारिक युद्ध छिड़ा था इसका अंदाज़ा जाने-माने कवि, फोटोग्राफर एवं छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी दूसरी फ़िल्म ‘घर व्दार’ में महत्वपूर्ण रोल अदा कर चुके बसंत दीवान के उस बयान से लगाया जा सकता है, जो 13 जून 1965 को ‘रायपुर न्यूज़’ समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था। अपने बयान में दीवान ने कहा था कि “गत 28 मई को रायपुर के एक दैनिक में डॉ. खूबचंद बघेल का वक्तव्य पढ़कर मुझे अत्यंत शोक के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे अपने ही वरिष्ठ एवं कर्मठ नेता व्दारा की गई ज्ञात अथवा अज्ञात भूलों को कोरी झूठ के आवरण में लपेटकर अपने आपको निर्दोष बताने की चेष्टा कर सकते हैं। जनसाधारण पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा सोचनीय बात है। डॉ. बघेल ने अपने वक्तव्य में बड़ी दृढ़ता के साथ यह दावा किया है कि यदि किन्हीं तीन छत्तीसगढ़ियों की समिति ने प्रमाणित कर दिया कि ‘कहि देबे संदेस’ की कहानी उन्होंने (डॉ. बघेल ने) लिखी है तो वे जीवन भर प्रमाणकर्ताओं की गुलामी करने को तैयार हैं। प्रमाणित न कर सकने पर आरोपियों को चाहिए कि वे डॉ. खूबचंद बघेल से क्षमा मांगें। मैं अपने बुजुर्ग नेता डॉ. खूबचंद बघेल से निवेदन करना चाहता हूं कि इस सत्य को न तो प्रमाण की आवश्यकता है और न ही उनको जीवन भर किसी व्यक्ति विशेष की गुलामी कर राष्ट्र के लिए अर्पित अपने जीवन के दुरुपयोग करने की आवश्यकता है। जहां तक इस बात को प्रमाणित करने का सवाल है, मेरे पास कोई लिखित प्रमाण तो नहीं, परन्तु मैं एक ऐसे व्यक्ति को डॉ. बघेल के सामने खड़ा कर सकता हूं जिन्हें वे अच्छी तरह जानते हैं। जिनको उन्होंने अपनी एक मुलाक़ात में बताया था कि छत्तीसगढ़ी भाषा में बनने वाली ‘कहि देबे संदेस’ की कहानी लिखने कार्य उन्हें दिया गया है। वे उसे निभा रहे हैं। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि अपने अख़बारी वक्तव्य में बघेल ने साफ-साफ कहा है कि उन्होंने मनु नायक को प्रारंभ में ही यह कहकर कहानी लिखने से इंकार कर दिया था कि वे फ़िल्मी कहानी लिखकर नाम नहीं कमाना चाहते। इसलिए मनु नायक से उनकी अनबन हो गई थी। मनु नायक ने उनके पास आना-जाना ही छोड़ दिया था। दूसरी बात यह कि जब उपरोक्त फ़िल्म का प्रारंभिक कार्य बम्बई में शुरु हुआ था तब मैं एवं छगन परमार मनु नायक से मिलने रणजीत स्टूडियो दादर पहुंचे थे। जहां उन्होंने हम दोनों को प्रारंभिक प्रचार संबंधी कुछ डिज़ाइनें बनाने का कार्य दिया था। उन डिज़ाइनों में उपरोक्त फ़िल्म के निर्देशक की जगह निर्जन तिवारी एवं लेखक की जगह डॉ. खूबचंद बघेल का नाम था। बाद में निर्देशक की जगह से श्री तिवारी का नाम तो इसलिए निकाल दिया गया था कि उनसे कुछ आपसी मतभेद हो गए, परन्तु लेखक की जगह से डॉ. बघेल का नाम किसी मतभेद के कारण नहीं बल्कि वर्तमान आरोपों से उन्हें मुक्त रखने के लिए पहले ही होशियारी बरत ली गई थी। मनु नायक से मैंने बम्बई में कई बार मुलाक़ात की एवं उन्होंने स्वतः कई बार मुझे बताया कि कहानी डॉ. बघेल लिख रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि रायपुर के दैनिक अख़बारों के पुराने पन्ने यदि पलटाएं जाएं तो जहां तक मेरा ख़्याल है उनमें भी डॉ. बघेल का नाम संवाद लेखक की जगह मिल सकता है। यदि डॉ. बघेल ने प्रारंभ में ही कहानी लिखने से इंकार कर दिया था तब जब उनका नाम अख़बारों एवं प्रचार संबंधी डिज़ाइनों में दिया गया तब वे ख़ामोश क्यों रहे? जैसा कि डॉ. बघेल ने अपने प्रकाशित वक्तव्य में कहा है कि वे जात-पात के विरोधी हैं एवं किसी भी कार्य को ज़ल्दबाजी से करने के आदी न होकर क्रमानुसार धीरे-धीरे करने के पक्षपाती हैं। क्रांति नहीं, बल्कि उत्क्रांति के समर्थक हैं। तौ मैं उनसे कहना चाहूंगा कि मैं भी जाति भेद का कट्टर विरोधी हूं, पर शादी सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है और जाति से मेरा तात्पर्य किसी भी समाज में विद्यमान उसकी स्थितियों-परिस्थितियों एवं रहन-सहन से है। वैवाहिक संबंध केवल उन्हीं दो समाजों के मध्य स्थापित होता है जो उपरोक्त गुणों में प्रायः समान होते हैं।“

बसंत दीवान के इस बयान के सामने आने से पहले मई 1965 में निर्देशक मनु नायक का समाचार पत्रों में एक पत्र जो प्रकाशित हुआ वह गौर करने लायक है। पत्र में मनु नायक ने डॉ. खूबचंद बघेल को संबोधित करते हुए लिखा कि “6 मई 1965 को रायपुर से प्रकाशित होने वाले एक दैनिक समाचार पत्र में हमारे चित्र से संबंधित समाचार पढ़कर मुझे अत्यंत क्षोभ हुआ। किसी भी अच्छे उद्देश्य को ग़लत ढंग से प्रकाशित करना संपादक के लिए न केवल निंदनीय बल्कि अक्षम्य भी है। उक्त समाचार पत्र का यह कहना कि धनी-मानी लोगों ने मनु जी के इस प्रयास के लिए योग नहीं दिया असत्य है। यदि समाज या समाचार पत्रों का सहयोग नहीं मिलता तो मुझे इस चित्र का निर्माण करने में सफलता ही नहीं मिलती। रायपुर जिले के पलारी गांव को ही मैंने शूटिंग के लिए क्यों चुना, इसे कोई भी दर्शक चित्र में गांव के सुंदर एवं आकर्षक दृश्यों को देखकर समझ सकता है। लगभग आठ वर्षों तक बम्बई में रहने के बाद यह प्रथम अवसर था जब आपके व बृजलाल वर्मा जी के विशेष संपर्क में आया। पत्र का यह कहना कि आप ही लोगों ने कहानी को बदल दिया सत्य से परे है। क्योंकि मैंने अपनी कहानी आप लोगों से भेंट होने के एक वर्ष पहले ही लिख ली थी। उसमें किसी प्रकार के संशोधन करने की मैंने कभी कोई आवश्यकता नहीं समझी। मैं पहले भी कई बार समाचार पत्रों तथा मासिक पत्रिकाओं में अपने विचारों को प्रकट कर चुका हूं। ब्राह्मण लड़की की शादी दीगर जाते के लड़के से कराने के पीछे मेरा उद्देश्य यह था कि जिस युग की कल्पना गांधी ने की थी उस युग का प्रारंभ इस चित्र से करूं। मेरी वज़ह से आप पर आरोप लगाए जा रहे हैं, इसके लिए खेद व्यक्त करते हुए…”

डायलॉग नायक ने लिखे,

हो सकता है सहयोग

डॉ. बघेल से लिए हों- दीपक

‘कहि देबे संदेस’ में पुरोहित की भूमिका निभा चुके बुजुर्ग अभिनेता शिव कुमार दीपक कहते हैं- “कहि देबे संदेस के संवाद मनु नायक ने लिखे थे। हमने उनको फ़िल्म के सेट पर लिखते देखा था। हो सकता है फ़िल्म की कहानी पर उन्होंने डॉ. खूबचंद बघेल से सहयोग लिया हो। इसलिए कि नायक न तो कोई राइटर थे और न ही कहानीकार।“

तत्कालीन सांसद मिनी माता

का ‘कहि देबे संदेस’ पर पत्र जो

18 मई 1965 को अख़बारों

में प्रकाशित हुआ

“छत्तीसगढ़ की जनता छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम चित्र ‘कहि देबे संदेस’ को उत्सुक्ता से देख रही थी। मैं यह जानना चाहती थी कि यह प्रथम चित्र केवल मनोरंजन के लिए है या किसी उद्देश्य को लेकर। मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आज की जीवंत समस्याओं में से एक सामाजिक विषमताओं को मिटाने का प्रयास इस चित्र के माध्यम से किया गया है। खेद है कि ब्राह्मण समाज व्दारा प्रारंभ से ही इसका विरोध किया गया। जबकि हमारे देश एवं समाज का लक्ष्य समता है। हम प्रजातांत्रिक समाजवाद की ओर बढ़ना चाहते हैं, तो हमें हर तरह की विषमताओं को मिटाना होगा। चाहे वह आर्थिक हो या सामाजिक। आर्थिक समस्या के नाम पर सामाजिक विषमता को कायम नहीं रखा जा सकता। देश के किसी भी राष्ट्रीय नेता को यह उम्मीद नहीं थी कि छत्तीसगढ़ के ब्राह्मण समाज के लोग इसका विरोध कर रहे होंगे। बाबू जगजीवन राम से जब मैं मिली तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि छत्तीसगढ़ के ब्राह्मण समाज के लोग इसका विरोध कर रहे हैं। उन्होंने तो इसे बाहरी उकसावा माना। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो मुलाक़ात में इस चित्र की भावनाओं को समाज में भेदभाव मिटाने के लिए आवश्यक माना। उन्होंने जनता से अधिक से अधिक इस चित्र को देखने की आशा व्यक्त की। दुख है कि इस चित्र के निर्माता ने चित्र में परिवर्तन करने का निश्चय किया। छत्तीसगढ़ की जनता से प्रार्थना करती हूं कि गलत प्रवृत्तियों से सावधान रहें तथा अपनी राष्ट्रीय परंपरा जो एकता व बंधुत्व की है बनाए रखें।“

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