(जलील रिज़वी, छत्तीसगढ़ नाट्य जगत में बड़ा नाम हैं। अस्सी वर्ष की इस उम्र में भी उनका हौसला देखते बनता है। विश्व रंगमंच दिवस पर 27 मार्च को रायपुर के रंग मंदिर में हुए नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ को देखने रिज़वी साहब मौजूद थे। नाटक समाप्ति के बाद उन्हें विचार रखने मंच पर आमंत्रित किया गया। रिज़वी साहब ने मंच से कहा कि “महीनों रिहर्सल करते हुए नाटक को तैयार करना और फिर मंचन के लिए उसे दर्शकों तक ले जाना बेहद कठिन काम है। जहां नाटकों को लेकर दीवानगी होती है तो फिर कदम नहीं थमते और हम नाटक किए जाते हैं। घाटा उठाकर भी।”
रिज़वी साहब के हौसले को देख उनसे लिया वह साक्षात्कार याद आ गया जिसे मैंने जून 1993 में लिया था, जिसका प्रकाशन दैनिक ‘अमृत संदेश’ में हुआ था। उस दौर में वीडियो फ़िल्मों की धूम मची हुई थी। तब रिज़वी साहब भी वीडियो सिनेमा में अपना योगदान दे रहे थे। उस कालखंड में उनसे हुई बातचीत का संशोधित अंश यहां प्रस्तुत हैं-)
■ अनिरुद्ध दुबे
जलील रिज़वी की गिनती रायपुर शहर के पुराने रंगकर्मियों में होती है। वे अब तक तीस से अधिक छोटे-बड़े नाटकों का निर्देशन कर चुके हैं। उनके दो नाटकों ‘एक और द्रोणाचार्य’ तथा ‘ताम्रपत्र’ को गजानन माधव मुक्तिबोध नाट्य स्पर्धा में कई श्रेणियों में पुरस्कार मिले थे। रिज़वी साहब व्दारा निर्देशित छत्तीसगढ़ी वीडियो फ़िल्म ‘जय माँ बम्लेश्वरी’ ने छत्तीसगढ़ अंचल के मिनी सिनेमाघरों (वीडियो थियेटर) में रिकार्ड तोड़ बिजनेस किया था। उनके द्वारा तैयार किये गये नाटक ‘एक और द्रोणाचार्य’ का रायपुर दूरदर्शन से दो एपिसोड में प्रसारण हुआ था। रिज़वी साहब से अनौपचारिक भेंट के दौरान हुई बातचीत के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं-
0 पिछले चार सालों से आपने किसी भी नाटक का निर्देशन नहीं किंया। वीडियो फिल्मों के निर्माण में जरूर आपकी व्यस्तता दिखती है। क्या नाटकों से आपका मोह भंग हो चुका है?
00 आप ऐसा कदापि नहीं कह सकते कि नाटकों के मामले में मैं बिलकुल निष्क्रिय हो गया हूं। मैं बीते चार सालों से निरंतर जगन्नाथ राव दानी स्कूल की छात्राओं को लेकर नाटक तैयार करता रहा हूं। हां यह बात ज़रूर है कि चार सालों से अपनी संस्था ‘अग्रगामी’ के लिसे मैने नाटकों का निर्देशन नहीं किया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आगे नहीं करूंगा। इन दिनों कुछ नाटक पढ़ रहा हूं। स्क्रीप्ट जमने पर जल्द रिहर्सल भी शुरू कर दूंगा।
0 नाटकों का निर्देशन करते-करते वीडियो फिल्मों के निर्देशन का भी इरादा कैसे बना?
00 नाटकों ‘को देखने के लिये थियेटर तक पहुंचने वाले दर्शकों की संख्या सीमित होती है वहीं वीडियो फिल्म आसानी से जगह-जगह पहुंच जाती है जिससे एक बड़ा दर्शक वर्ग उसे देख पाता है।
0 अब तक आप किन-किन वीडियो फिल्म का निर्देशन कर चुके हैं?
00 अब तक मैंने जिन वीडियो फिल्मों का निर्देशन किया वे सभी छत्तीसगढ़ी में बनी हैं,जिनमें ‘सोना के वापसी’, ‘जय माँ बम्लेश्वरी’, ‘संगवारी’ (भाग एक एवं भाग दो) शामिल हैं। साथ ही ‘तोर मया मा’ फिल्म निर्माणाधीन है।
0 डा. शंकर शेष द्वारा लिखित ‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक मंच पर खेलने के बाद इसे आपने रायपुर दूरदर्शन के लिये भी तैयार किया। अब आगे भी क्या दूरदर्शन के लिये कोई नाटक या फिल्म तैयार कर रहे हैं?
00 अभी छत्तीसगढ़ की लोक कथाओं पर ध्यान केन्द्रित किया हुआ हूं। इन लोक कथाओं को दूरदर्शन के लिये तैयार करने का इरादा है। इसके अलावा एक डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाने का भी इरादा है।
0 आप एक अभिनय प्रशिक्षण केन्द्र ‘फिल्मांजलि’ चला रहे थे, जिसे कि कुछ ही दिनों में बंद करना पड़ा। आपके इस प्रयास में असफलता के पीछे कौन सी कहानी है?
00 ‘फिल्मांजलि’ पार्टनरशिप पर ‘चल रही थी। ‘फिल्मांजलि’ में अभिनय का प्रशिक्षण लेने वालों की संख्या काफी बड़ी थी। कुछ पार्टनर का आपस में विवाद हो गया। यही कारण रहा कि इस अभिनय प्रशिक्षण संस्था का सफर अधूरा ही रह गया। इस संस्था के बंद होने के पीछे कारण, विवाद रहा है न कि हमारी असफलता। एक बात और आपको बता दूं। अभिनय में रुचि रखने वाले लोगों के पत्र आज भी मेरे पास आते हैं, जिसमें लिखा होता है कि हम अभिनय के बारे में कुछ जानना चाहते हैं। आप प्रशिक्षण देना कब शुरू करेंगे। ‘फिल्मांजलि’ बंद जरूर हो गई है लेकिन हो सकता है कि आगे किसी दूसरी संस्था की स्थापना कर फिर एक बार प्रशिक्षण की शुरूआत हो जाये।
0 वापस नाटक की बात पर लौटें। अब तक किन नाटकों का आप निर्देशन कर चुके हैं?
00 ‘एवं इंद्रजीत’ (बादल सरकार) , ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक’ (डॉ. सुरेन्द्र वर्मा) , ‘ताम्रपत्र’ (सांत्वना निगम) , ‘एक और द्रोणाचार्य’ (डॉ. शंकर शेष), ‘अंधा युग’ (डॉ. धर्मवीर भारती) एवं ‘जंगीराम की हवेली’ (गुरुशरण सिंह) मेरे व्दारा निर्देशित प्रमुख नाटक रहे।
0 निर्देशन के अलावा आप अभिनय भी करते आए हैं। नाटक में कोई ऐसी भूमिका जो आपके दिल को छू गई हो..
00 किसी एक नाटक के बारे में तो बता सकना कठिन है, फिर भी विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित नाटक ‘सखाराम बाईंडर’ में मेरे अभिनय पर काफ़ी तालियां बजी थीं। ज्ञानदेव अग्निहोत्री द्वारा लिखित नाटक ‘शुतुरमुर्ग’ में अभिनय करना एक दिलचस्प अनुभव रहा था।
0 अच्छे हिन्दी नाटकों की कमी की बात जब-तब होती रहती है?
00 ऐसा नहीं है। यदि करने वाला हो तो उसे कितने ही एक हिन्दी नाटक जो कि बेहद अच्छे लिखे गये हैं मिल जायेंगे। मिसाल के तौर पर मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’ एवं ‘आधे अधूरे’, अनिल बर्वे का ‘थैंक्यू यू मिस्टर ग्लार्ड’, डॉ. शंकर शेष का ‘एक और द्रोणाचार्य’ और ‘पोस्टर’, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘शुतुरमुर्ग’ तथा धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ जैसे नाटक आपके सामने हैं। इनके अलावा कई अन्य भाषाओं के नाटक जो कि हिन्दी में अनुवाद किये गए अच्छे बन पड़े हैं।
0 पिछले कुछ सालों में नाटक देखने वालों की संख्या काफ़ी घटी है, इस बारे में आप क्या कहेंगे?
00 महाराष्ट्र, बंगाल अथवा दक्षिण भारत क्षेत्रों में जहां नाटकों के प्रति लोगों में जबरदस्त दीवानगी है। जहां कई बार नाटकों की टिकटें ब्लेक तक में बिकने की कहानियां सुनने में आती रही हैं।अब छत्तीसगढ अंचल को ही लें। ग्रामीण क्षेत्रों में जब भी नाचा होता है जो कि नाटक का ही एक रूप है उसे देखने वालों की संख्या हज़ारों में होती है। दिल्ली, मुम्बई- यहां तक की भोपाल में भी हिन्दी नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। जहां तक रायपुर जैसे कुछ शहरों में दर्शकों के थियेटर तक नहीं पहुंचने का सवाल है तो उसके पीछे यही एक जवाब है कि दर्शकों की रुचि के अनुकूल नाटकों के प्रदर्शन का नहीं होना।