■ अनिरुद्ध दुबे
आम आदमी की पार्टी (आप) ने लोरमी के बटहा गांव के संदीप पाठक को अपना राज्यसभा सदस्य का उम्मीदवार घोषित कर छत्तीसगढ़ में हलचल पैदा तो कर ही दी है। दिल्ली की ‘आप’ सरकार के मंत्री गोपाल राय एवं विधायक संजीव झा छत्तीसगढ़ पर बराबर नज़र रखे हुए हैं। ‘आप’ उन चेहरों को तलाशकर अपनी तरफ खींचने की कोशिश में है जो राजनीति का बड़ा चेहरा रहे हैं। अंदर की ख़बर रखने वाले तो यही बता रहे हैं कि ‘आप’ के नेताओं ने हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार के एक मंत्री का हाल-चाल जानने की कोशिश की और उन तक संदेशा भी भिजवाया। एक गैर कांग्रेसी व गैर भाजपाई विधायक के भी मन को टटोलने की कोशिश ‘आप’ की तरफ से जारी है। मार्च में हुए छत्तीसगढ़ विधानसभा के बजट सत्र के दौरान जनता कांग्रेस विधायक धर्मजीत सिंह सदन के भीतर यह कहते हुए प्रसन्नता जता चुके हैं कि “जिस संदीप पाठक को ‘आप’ ने अपना राज्यसभा सदस्य का उम्मीदवार बनाया है वह मेरे लोरमी विधानसभा क्षेत्र के हैं। यह हमारे प्रदेश के लिए गौरव की बात है।“ धर्मजीत सिंह जब ऐसा बोले तो सत्ता पक्ष के एक विधायक उनसे यह सवाल करने से पीछे नहीं रहे कि “कहीं आप का भी रूख़ तो ‘आप’ की तरफ नहीं है?” सुनने में तो यह भी आ रहा है कि ‘आप’ से जुड़े लोग बस्तर के एक दिग्गज आदिवासी नेता का भी मन टटोलने में लगे हुए हैं।
विधानसभा में टीपी शर्मा
से लेकर दिनेश शर्मा तक
छत्तीसगढ़ विधानसभा के प्रमुख सचिव चंद्रशेखर गंगराड़े सेवानिवृत्त हुए और उनका प्रभार सचिव दिनेश शर्मा को मिला। दिनेश शर्मा जांजगीर एवं बिलासपुर से जुड़े रहे हैं और चर्चा यही हो रही है कि पहली बार कोई छत्तीसगढ़िया विधानसभा के प्रमुख अधिकारी पद की शोभा बढ़ाएगा। छत्तीसगढ़ विधानसभा का 21 साल का यह छोटा सा इतिहास कम रोचक नहीं रहा। 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पहली सरकार बनी। जोगी सरकार का जब पहला विधानसभा सत्र हुआ विधानसभा सचिव पद की भूमिका न्यायाधीश टी.पी. शर्मा ने निभाई थी। शर्मा के बाद न्यायाधीश मिन्हाजुद्दीन सचिव बने। वे मात्र एक सप्ताह सचिव पद पर रहे। फिर भोपाल से आए भगवान देव इसरानी ने सचिव पद की जिम्मेदारी संभाली। बलौदाबाजार रोड में जीरो प्वाइंट पर बने विधानसभा भवन को सजाने संवारने का काम इसरानी के मार्गदर्शन में हुआ। इसरानी नियम कानून के अच्छे जानकार तो थे ही व्यवहार से काफी सरल व सहज थे। इसरानी के बाद चार दिनों के लिए काजी अकलीमुद्दीन विधानसभा के प्रभारी सचिव रहे। उनके बाद देवेन्द्र वर्मा विधानसभा सचिव बने, जिन्होंने अच्छी लंबी पारी खेली। वर्मा कुशाग्र बुद्धि वाले अफ़सर थे। प्रेमप्रकाश पांडे से लेकर धरमलाल कौशिक एवं गौरीशंकर अग्रवाल जैसे विधानसभा अध्यक्षों के कार्यकाल में ये सचिव पद की जिम्मेदारी संभाले। एक समय के बाद ये प्रमुख सचिव भी बने। वर्मा सदन की कार्यवाही में काफ़ी तत्परता से काम करते नज़र आते थे। उनके कार्यकाल में पता नहीं ऐसी कौन सी परस्थितियां रही होंगी, अधिकारी कर्मचारी भारी दबाव में नज़र आया करते थे। तब अफसरों व कर्मचारियों के चेहरे पर तनाव की लकीरें साफ दिखा करती थीं। उनके कार्यकाल में ग्रेडेशन लिस्ट जारी नहीं होने के कारण कर्मचारियों की हड़ताल तक हुई। एस्मा लगाना पड़ा था। जब वर्मा की विधानसभा से सेवा मुक्ति का आदेश जारी हुआ था उस पर भी कई प्रश्न खड़े हुए थे। वर्मा के मीडिया से संबंध ठीक-ठाक ही रहे थे। यदि कोई पत्रकार विधानसभा के नियमों से संबंधित किसी पुस्तक को देखने की इच्छा जाहिर कर देता तो वर्मा पलटकर सवाल कर देते थे कि आखिर यह पुस्तक आप देखना क्यों चाहते हैं? हो सकता है कि उनके मन में कभी संदेह का कोहरा छाया रहा हो। वर्मा जी के बाद चंद्रशेखर गंगराड़े को सचिव पद का चार्ज मिला। बाद में वे भी प्रमुख सचिव बने। बरसों से विधानसभा में अधिकारियों एवं कर्मचारियों की पदोन्नति के रास्ते जो बंद करके रखे गए थे उसे गंगराड़े साहब खोले। साथ ही अधिकारी कर्मचारी भयमुक्त भी हुए। मीडिया से गंगराड़े साहब के संबंध मधुर रहे। गांधी जयंती पर महात्मा गांधी पर केन्द्रित दो दिन का जो विशेष सत्र आयोजित हुआ था उसमें गंगराड़े जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। इनके कार्यकाल में विधानसभा अध्यक्ष एवं नेता प्रतिपक्ष के कक्ष का आकार बड़ा हुआ। सत्र के दौरान खर्च कम करने ऑन लाइन व्यवस्था पर जोर दिया गया, यानी काफ़ी कुछ पेपरलेस हुआ। जहां तक विधानसभा के नये सचिव दिनेश शर्मा की बात है तो उन्होंने काफी होमवर्क कर लेने के बाद सर्वोच्च अधिकारी पद का चार्ज लिया है। शर्मा विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के काफ़ी क़रीबी माने जाते हैं।
खैरागढ़ उप चुनाव में
कांग्रेस का बड़ा दांव
खैरागढ़ विधानसभा उप चुनाव को अब जब गिनती के दिन शेष हैं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूरी चतुराई के साथ ऐसा बड़ा दांव खेल दिया जिसकी काट विपक्ष के पास नज़र नहीं आ रही है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में कहा गया है कि यदि उप चुनाव में जीत मिली तो 24 घंटे के भीतर खैरागढ़ को जिला बना दिया जाएगा। भाजपा की तरफ से घोषणा हुई थी कि इस उप चुनाव में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं केन्द्र सरकार के मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया स्टार प्रचारक होंगे। कांग्रेस ने भाजपा की इस रणनीति पर पूरी सतर्कता बरतते हुए अपने अधिकांश मंत्रियों को इस चुनाव में झोंक दिया है और जिला बनाने का छिपा हुआ जो पत्ता था उसे भी सामने ला फेंका है। जिला बनाने की इस घोषणा को पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने हवा हवाई कहा तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी बोलने से नहीं चूके। उन्होंने डॉ. रमन सिंह को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि “खैरागढ़ आप ही का क्षेत्र कहलाता था। तीन बार आपकी सरकार थी। उस समय आपको जिला बनाने की क्यों नहीं सूझी? जो काम आप नहीं कर पाए उसे हम करने जा रहे हैं।“
सरकार चाहे तो क्यों नहीं
हो सकता आरडीए पावरफुल
रायपुर विकास प्राधिकरण (आरडीए) ने न्यू राजेंद्र नगर में 15 हजार वर्ग फुट जमीन गॉर्डन के लिए आरक्षित कर रखी थी। इस पर कब्जा हो गया है। आरडीए ने रायपुर नगर निगम को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि वह इस कब्जे को हटवा दे। आरडीए की ओर से पत्र गए काफ़ी दिन हो गए लेकिन कब्जा करने वालों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो पाई है। अक्सर सुनने में यही आता रहता है कि आरडीए को तोड़फोड़ का अधिकार नहीं है। वहीं सवाल इस बात को लेकर भी है कि अगर सरकार तक प्रॉपर एप्रोच हो तो भला क्यों आरडीए अधिकार संपन्न नहीं हो सकता? इस बात को समझने के लिए पीछे की ओर जाना होगा। नवंबर 2000 से दिसंबर 2002 तक प्रदेश में अजीत जोगी की सरकार थी। उसी दौर में कुछ समय के लिए गणेश शंकर मिश्रा रायपुर विकास प्राधिकरण के सीईओ रहे थे। सरकार ने तय किया रायपुर में कौन-कौन से बड़े अवैध निर्माणों को गिरवाना है इस पर निर्णय मिश्रा लेंगे और तोड़फोड़ की कार्रवाई नगर निगम की टीम करेगी। उस समय रायपुर नगर निगम के महापौर तरूण चटर्जी और कमिश्नर एम.डी. दीवान थे। तब आरडीए सीईओ मिश्रा ने सामने खड़े रहकर कुछ बड़े अवैध निर्माणों को गिरवाया और सुर्खियों में रहे। अब वर्तमान में लौटें। रायपुर नगर निगम प्राचीन गोल बाज़ार को गिराकर उसे आकर्षक नया स्वरूप देना चाह रहा है। साथ ही दुकानदारों को मालिकाना हक़ भी। कुछ ऐसे बिन्दू हैं जिन पर निगम प्रशासन और दुकानदारों के बीच सहमति नहीं बन पा रही है। इसका समाधान निकालने के लिए अब शासन ने समस्त निर्णय लेने का अधिकार कलेक्टर सौरभ कुमार को दे दिया है। कहने का आशय ये कि शासन चाहे तो क्या नहीं कर सकता।
भला कहां से कमज़ोर
हैं सभापति प्रमोद दुबे
वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रमोद दुबे दिसंबर 2014 से दिसंबर 2019 तक रायपुर नगर निगम के महापौर रहे। मई 2019 में वे रायपुर लोकसभा सीट से सांसद चुनाव लड़े और हारे। फिर दोबारा महापौर बनने की संभावनाओं को तलाशते हुए दिसंबर 2019 में पार्षद चुनाव लड़े और जीते भी। महापौर बनना तो एजाज़ ढेबर के भाग्य में लिखा था, अतः प्रमोद को रायपुर नगर निगम का सभापति बनकर ही संतुष्ट हो जाना पड़ा। सभापति पद संवैधानिक होता है और सभापति के हिस्से में कुछ बड़े अधिकार भी होते हैं। पता नहीं क्यों प्रमोद के सभापति बनने को अधिकांश लोगों ने डिमोशन माना। पश्चिम बंगाल की राजनीति में हाल ही में जो कुछ राजनीतिक घटनाक्रम रहा वह उदाहरण के तौर पर कहीं न कहीं प्रमोद के पक्ष को मजबूती देता ही नज़र आता है। हाल ही में कोलकाता नगर निगम का जो चुनाव हुआ उसमें एक मंत्री से लेकर कुछ सांसद व विधायक पार्षद चुनाव लड़े जिनमें अधिकांश लोगों की जीत दर्ज हुई। जैसे पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री फिरहाद हकीम पार्षद चुनाव जीते फिर कोलकाता नगर निगम के महापौर बन गए। वहीं विधायक अतिन घोष उप महापौर बने। सांसद माला राय निगम सभापति बनीं। अन्य विधायकों में देवाशीष कुमार, देवव्रत मजूमदार, रत्ना चटर्जी एवं परेश पाल पार्षद चुनाव जीतने में सफल रहे। इसके बाद क्या कोई कह सकता है कि रायपुर नगर निगम के सभापति प्रमोद दुबे कहीं से कम हैं।