संगीत सीखने की विद्या है, पढ़ने की नहीं- गुणवंत व्यास

(जाने-माने गायक एवं संगीतकार स्व. गुणवंत व्यास का नाम  कला जगत से कभी विस्मृत नहीं हो सकता। संगीत बिरादरी के मित्र उन्हें व्यास मास्साब के नाम से बुलाते थे। जैसा कि उनका नाम गुणवंत था वैसे ही वे गुणों की खान थे। मधुर आवाज़ के धनी, अच्छे म्यूज़िक कम्पोज़र, बेहतरीन लेखक, मंच पर धाराप्रवाह बोलने वाले वक्ता, कितनी ही तो ख़ूबियों को समेटे हुए थे व्यास मास्साब। जब वे लिखते तो लगता मोतियों जैसे अक्षर किसी ने कागज़ों पर उतार दिए हों। 15 अक्टूबर 2011 को छत्तीसगढ़ की इस बड़ी संगीत शख़्सियत ने अपने शहर रायपुर में अंतिम सांसें ली थीं। व्यास जी के सानिध्य में रहकर संगीत सीखे कितने ही कलाकार आज संगीत साधना में रत् हैं। 12 मई 2024 को व्यास मास्साब की 85 वीं जयंती है। उनसे लिया गया वह इंटरव्यू पुनः संपादन के बाद आज आप सब के सामने लेकर आया हूं जिसे मैंने मार्च 1998 में सांध्य दैनिक अख़बार ‘हाईवे चैनल’ के लिए लिया था…)

■ अनिरूद्ध दुबे

संगीत निराकार ब्रम्ह की तरह है। संगीत सीखने की विद्या है, पढ़ने की नहीं। यदि संगीत को हृदयंगम करना है तो समर्पण, एकाग्रता एवं साधना आवश्यक है। यह विचार थे सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ गुणवंत व्यास के। स्व. व्यास दुर्गा महाविद्यालय में संगीत के प्राध्यापक थे। साथ ही वे मध्यप्रदेश अशासकीय महाविद्यालय प्राध्यापक संघ के क्षेत्रीय महामंत्री तथा प्रान्तीय कार्यकारिणी के सदस्य भी थे।

15 मार्च 1998 को सांध्य दैनिक अख़बार ‘हाईवे चैनल’ में प्रकाशित हुई उनसे बातचीत यहां पुनः सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत है-

0 देश भर में जितने संगीत महाविद्यालय चल रहे हैं, उनकी सार्थकता कहां तक सिद्ध हो रही है?

00 इन महाविद्यालयों से विद्यार्थियों को संगीत की सामान्य जानकारी मिल पाती है। विशेष ज्ञान तो उन्हें सम्पादित करना होता है। मुश्किल बात यह है कि संगीत महाविद्यालयों से लोग कुछ ज्यादा ही आशा करते हैं। शहर में विज्ञान महाविद्यालय है। ज़रा बताइये वहां से पढ़कर कितने वैज्ञानिक निकल गए? इसी तरह कला एवं वाणिज्य महाविद्यालयों में पढ़कर कितने अर्थशास्त्री निकल जाते हैं?? जो हो, संगीत महाविद्यालय विद्यार्थियों को सांस्कारिक करते हैं। संगीत महाविद्यालयों के होने से संगीत के समझदार श्रोताओं की संख्या बढ़ी है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां एवं रविशंकर को सुनने वाले संगीत महाविद्यालयों से ही पैदा हुए हैं।

0 मध्यप्रदेश में (तब छत्तीसगढ़ राज्य नहीं बना था) शास्त्रीय संगीत का माहौल  सिर्फ़ इंदौर-ग्वालियर  जैसे इक्का-दुक्का स्थानों पर ही नज़र आता है। बाक़ी स्थानों पर शास्त्रीय संगीत प्रेमियों की संख्या क्यों नहीं बढ़ सकी?

00 इस सवाल का जवाब पाने के लिए इतिहास में झांकना होगा। इंदौर एवं ग्वालियर के महाराजाओं में शास्त्रीय संगीत के प्रति गहरी रूचि थी। यही वज़ह है कि वहाँ शास्त्रीय संगीत की जड़ें मजबूत हैं। सिर्फ इंदौर ग्वालियर ही क्यूं खैरागढ़, रायगढ़ एवं कवर्धा जैसे छोटे स्थानों की भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में अलग पहचान है। इसलिए कि यहां की रियासत के राजा और मालगुजार शास्त्रीय संगीत के कद्रदान थे। ख़ाली इंदौर एवं ग्वालियर जैसे स्थानों को मापदंड बनाकर बात करना ठीक नहीं। रायपुर को ही लें, इस शहर को हिन्दुस्तान के नक्शे में शास्त्रीय संगीत के मामले में पिछड़ा हुआ नहीं कहा जा सकता। रायपुर से डॉ. श्रीमती अनिता सेन एवं भिलाई से बिमलेन्दु मुखर्जी व बुद्धादित्य मुखर्जी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में बड़ा नाम हैं।

0 इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ उम्मीदों पर क्यों खरा नहीं उतर पा रहा है?

00 1957-58 में जिस समय इस विश्वविद्यालय का स्थापना हुई, उस दौरान पंडित रविशंकर शुक्ल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनकी इच्छा थी कि गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन की तरह खैरागढ़ में कला केन्द्र की स्थापना हो। उस समय खैरागढ़ के राजा ने संगीत विश्वविद्यालय हेतु अपना महल देने की पेशकश की थी। दुख की बात है कि पंडित शुक्ल एवं राजा साहब ने जिस तरह के विश्वविद्यालय की कल्पना, की थी वह साकार नहीं हो पाई। विश्वविद्यालय की स्थापना के कुछ समय बाद शुक्ल जी नहीं रहे। विश्वविद्यालय वृहद स्वरूप देने के लिए शास्त्रीय स्तर पर समुचित प्रश्न नहीं हुए। विश्वविद्यालय का दूसरे मामलों में तो विकास हुआ लेकिन मूल उद्देश्य दबे रह गए। कुछ हद तक इसके लिए भौगोलिक परिस्थितियां भी दोषी हैं। यदि खैरागढ़ तक रेल लाइन होती तो इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय तक लोगों का पहुंचना आसान हो जाता। यहां उद्योग धंधे भी नहीं पनप पाए। क्योंकि जहां उद्योग धंधे होते हैं उस जगह के प्रति लोगों का आकर्षण स्वमेव हो जाता है। न ही कोई ऐसी व्यवस्था हुई कि कला जगत के श्रेष्ठ पुरुषों को वहां प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया जाता। बाहर से वहां पहुंचने वाले विद्यार्थियों के लिए कोई विशेष सुविधा रखे जाने की ओर भी कदम नहीं बढ़ाया गया। कई बार वहां की प्रशासनिक कमजोरियां उभरकर सामने आईं। ऐसे बहुत से कारण हैं इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय का जैसा स्वरूप बनना चाहिए था वह नहीं बन पांया।

0 क्या वज़ह है कि संगीत महाविद्यालय में लोग प्रवेश तो ले लेते हैं, लेकिन बिना कोर्स पूरा किए बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं?

00 आज हर मां-बाप अपने बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं। आज के बच्चों के ऊपर पढ़ाई का बोझ ज़रूरत से ज़्यादा है। बहुत सारा होमवर्क, ऊपर से ट्यूशन। फिर भी बहुत से बच्चे संगीत महाविद्यालय पहुंचते ही हैं। शुरू में तो सब कुछ ठीक चलता है। दिक्कत तब शुरू होती है जब बच्चे नवमीं-दसवीं पहुंचते हैं। उस समय बच्चे यह तय करते हैं कि किसे अपना कैरियर चुनना है। और बस फिर उस काम की तैयारी में वे लग जाते हैं। संगीत पीछे छूट जाता है। फिर भी मुझे इस बात कि खुशी है कि इन परिस्थितियों में भी संगीत महाविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी ही है।

0 क्या प्रतिभा जन्मजात होती है?

00 निश्चित रूप से जन्मजात होती है। प्रतिभा दो तरह से सामने आती है- पहला नैसर्गिक एवं दूसरा अभ्यासजन्य। प्रतिभा यदि नैसर्गिक होते हुए भी अभ्यासरहित होती है तो वह फलीभूत नहीं होती है। दूसरी ओर यत्न एवं निरंतर अभ्यास से सामान्य प्रतिभा भी चमक जाती है।

0 संगीत के क्षेत्र में गुरू-शिष्य परम्परा का क्या महत्व है?

00 संगीत एक अदृश्य कला है। जिसे आप आंख से नहीं देख सकते। जो चीज़ नज़र आती है उसका अनुकरण करना सरल होता है, जबकि संगीत में सुनकर ग्रहण करने वाली बात होती है। मैं संगीत को निराकार ब्रम्ह की तरह मानता हूं। संगीत सीखने की विद्या है, पढ़ने की नहीं। यदि संगीत को हृदयंगम करना है तो पूर्ण समर्पण, एकाग्रता एवं निरंतर साधना आवश्यक है। जब तक इन नियमों का पालन नहीं होगा तब तक संगीत में सफलता हासिल नहीं हो सकती। इसीलिए गुरू का अनिवार्य महत्व संगीत में है।

0 संगीत महाविद्यालयों में कार्यरत प्राध्यापकों के वेतन को लेकर विसंगतियां हैं, उसके बारे में क्या कहना है?

00 मैं न केवल एक कला साधक, बल्कि अध्यापक भी हूं। संगीत का जो अध्यापक होता है उसकी स्थितियों का बहुत गहराई एवं बारीकी से मैंने अध्ययन किया है। दुख की बात है कि जहां संगीत के कलाकारों को बहुत ज़्यादा पैसा मिलता है वहीं संगीत की चेतना फैलाने वाले अध्यापकों को सामान्य शिक्षा के अध्यापकों के बराबर भी पैसा नहीं मिलता। विशेष रूप से संगीत. महाविद्यालय के वेतनभोगी अध्यापक अन्य महाविद्यालयों के अध्यापकों के समकक्ष वेतनमान से वंचित हैं। मैं अपना ही उदाहरण देता हूं। मैं एक सामान्य शिक्षा के महाविद्यालय में संगीत का अध्यापक हूं जिसके लिए मुझे यूजीसी वेतनमान मिलता है। वहीं संगीत महाविद्यालय के अध्यापक जो कि न केवल मेरे समकक्ष उपाधि रखते हैं बल्कि मुझसे कहीं अधिक पढ़ाते हैं उनको यूजीसी वेतनमान नहीं मिलता। ये संगीत महाविद्यालय, संगीत विश्वविद्यालय से जुड़े हैं और इन्हें मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग से अनुदान राशि मिलती है। इस तरह सैद्धांतिक रूप से इन संगीत महाविद्यालयों की स्थिति अन्य महाविद्यालयों के एकदम समान है। बावजूद इसके वेतनमान अलग होना विडम्बना है। इसीलिए मध्यप्रदेश अशासकीय महाविद्यालयीन प्राध्यापक संघ के माध्यम से ये आवाज उठाई गई है कि संगीत महाविद्यालयों के अध्यापकों को भी अन्य महाविद्यालय के अध्यापकों के समकक्ष वेतनमान दिया जाए। संघ की इस मांग को शासन ने सैद्धांतिक रूप से मान्य तो किया है लेकिन क्रियान्वयन कई वर्ष बीत जाने पर भी नहीं हुआ है। इसीलिए संघ अन्य मांगों के साथ ही इसके लिए भी निरंतर संघर्ष करते रहा है। जहां मध्यप्रदेश के सारे शिक्षक संगीत महाविद्यालयों के प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान दिलाने के लिए संघर्षरत हैं, वहीं एक स्थानीय संगीत महाविद्यालय का प्रबंधक वर्ग इसका विरोध कर रहा है।

0 आजकल के कलाकारों में लगन एवं समर्पण का अभाव क्यूं दिखता है?

00 भविष्य की अनिश्चिता के कारण आदमी स्थिर नहीं हो पाता। लम्बे समय से यह सुनने को मिलते रहा है कि नई पीढ़ी उच्छृंखल और गैर ज़िम्मेदार हो गई है। लेकिन साफ सुथरे दिमाग, समझदार एवं कुशाग्र बुद्धि वाले छात्र आज भी देखने को मिलते हैं। बल्कि यूं कहूं कि ये नये कलाकार हमारे ज़माने की तुलना में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।

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