■ अनिरुद्ध दुबे
(छत्तीसगढ़ी सिनेमा का मील का पत्थर समझी जाने वाली फ़िल्म ‘मोर छंइहा भुंईया’ नये कलेवर में 24 मई को सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में प्रदर्शित होने जा रही है। नया कलेवर यानी रीमेक। डायरेक्टर अपने वही हैं छत्तीसगढ़ी सिनेमा के शिखर पुरुष सतीश जैन। अक्टूबर 2000 में ‘मोर छंइहा भुंईया’ को अपार सफलता मिलने के बाद इस फ़िल्म से जुड़ी हस्तियों के इंटरव्यू का दौर चला था। ‘मोर छंइहा भुंईया’ में आशीष सेन्द्रे ने अनुज शर्मा एवं शेखर सोनी के पिता किसन की भूमिका निभाई थी। ‘छंइहा भुंईया’ पर आशीष सेन्द्रे का मैंने जो इंटरव्यू लिया था उसका प्रकाशन 29 दिसंबर 2000 को सांध्य दैनिक ‘हाईवे चैनल’ में हुआ था। 10 जुलाई 2019 को आशीष सेन्द्रे का असमय निधन हो गया। साक्षात्कार के दौरान आशीष ने ‘छंइहा भुंईया’ की सफलता एवं नाटक व सिनेमा से जुड़े अनुभवों को लेकर जो कहानी सुनाई थी वह अपने आप में काफ़ी रोचक है। आशीष से लिया गया वह साक्षात्कार अब फिर से आप सबके सामने पुनः संपादन के साथ प्रस्तुत है…)
छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘मोर छंइहा भुंईया’ में आशीष सेन्द्रे ने दोनों नायकों के पिता किसन की भूमिका निभाई है। आशीष का कहना है कि ‘छंइहा भुंईया’ की भारी सफलता के पीछे कारण इसका आम आदमी की कहानी का होना है। दर्शक इस फ़िल्म से कहीं न कहीं अपने को जुड़ा पाता है। इसके अलावा गीत व संगीत भी इस फिल्म की सफलता के बड़े कारण हैं।
आशीष सेन्द्रे से विस्तार से बातचीत हुई, जिसके मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं-
रंगमंच से फिल्मों की दुनिया में कैसे कदम रखना हुआ? पूछने पर आशीष बताते हैं- “फिल्म लेखक सतीश जैन जी ने जब छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने का निर्णय लिया तो वे कलाकारों की तलाश में रायपुर आए हुए थे। रंगकर्मी सुरेश गोंडाले जी एवं निशा गौतम जी ने सतीश जी को मेरा नाम सुझाया। उस समय मैं नाटक ‘जांच पड़ताल’ की रिहर्सल कर रहा था। सतीश जी ने जब मुझे देखा तो पाया कि मुझ पर जवानी से लेकर बुढ़ापे तक का गैटअप फिट बैठ सकता है। इसके बाद उन्होंने मुझे अपनी फिल्म में दोनों नायकों के पिता किसन की भूमिका दे दी।“
आशीष आपने रंगमंच से लेकर फ़िल्म तक का सफर तय किया, आप के अंदर अभिनय का शौक कहां से जागा? यह पूछने पर वह बताते हैं “मेरे पिता घनश्याम सेन्द्रे करीब 30 सालों से रंगमंच की दुनिया से जुड़े हुए हैं। जब मैं छोटा था तो देखता था कि वह कैसे आइने के सामने खड़े होकर डायलॉग बुदबुदाते रहते हैं। शायद वही सब देखकर मेरे अंदर अभिनय का शौक जागने लगा था। वैसे मैं आपको बता दूं कभी मैं मार्शल आर्ट का स्टूडेंट था। कराते प्रतियोगिता में मैं राज्य चैम्पियन रहा। इच्छा तो थी कि कराते की देश स्तर की प्रतियोगिता में हिस्सा लूं लेकिन इसी क्षेत्र से जुड़े कुछ लोग मेरे लक्ष्य के सामने रुकावट बनकर खड़े हो गए। बस वहीं से मैंने कराते से हमेशा के लिए दूरी बना ली और अभिनय की तरफ रुख़ किया। सन् 1988 से लेकर आज तक मैं बराबर नाटकों में हिस्सा ले रहा हूं। गोदान, अंधा युग, कालीगुला, शहंशाह इडिपस, दूर देश की कथा, राशोमन, नदी एक कथा, सफर, कोर्ट मार्शल, कबीरा खड़ा बाजार में, सैंया भये कोतवाल, जांच पड़ताल एवं ‘मिट्टी की गाड़ी’ ये वो नाटक हैं जिनमें मैंने अभिनय किया। ये तो सब मंचीय नाटक हैं। इनके अलावा कुछ नुक्कड़ नाटक भी किए।“
आपने इतने सारे नाटक किए हैं इनसे जुड़े कुछ दिलचस्प अनुभव भी आपके मानस पटल पर होंगे? इस सवाल पर आशीष कहते हैं- “एक दिलचस्प वाकया बताता हूं। शहर में कन्हैया क्षत्री नाम के व्यक्ति की संदिग्ध मौत हो गई थी। इस घटना से व्यथित होकर साहित्यकार गिरीश पंकज जी ने एक नुक्कड़ नाटक लिखा था- ‘रावण शर्मिन्दा है’। इस नाटक में मेरी अहम् भूमिका थी। रायपुर शहर के कटोरातालाब चौक पर इस नाटक का प्रदर्शन हो रहा था। नाटक में अपने बुरे चरित्र के हिसाब से मुझे एक दृश्य में एक पीड़ित व्यक्ति के चेहरे पर मूत्र त्याग करते हुए नज़र आना था। हालांकि यह दृश्य प्रतीकात्मक रूप में दिखाया गया था, लेकिन इस नाटक ने एक शख़्स पर इतना गहरा असर डाला कि वह भीड़ के बीच से निकलकर मुझे पीटने लगा। तब मेरे साथी रंगकर्मियों एवं भीड़ में खड़े कुछ लोगों ने बीचबचाव किया। इसके बाद दर्शकों में से ही कुछ लोगों ने उस शख़्स को समझाया कि भई जो कुछ आप यहां देख रहे हैं वह तो सिर्फ नाटक का एक हिस्सा है। इसके बाद उस सज्जन का न सिर्फ गुस्सा शांत हुआ बल्कि उसने खुश होकर मुझे 50 रुपए का ईनाम भी दिया। इसके अलावा मंच पर हुए नाटक ‘शहंशाह इडिपस’ की पृष्ठभूमि इतनी जटिल है कि इसके मुख्य चरित्र इडिपस को निभाने में मुझे बेहद तनाव के दौर से गुजरना पड़ा था। ‘शहंशाह इडिपस’ की कहानी यह है कि अनजाने में वह अपने हाथों से न सिर्फ अपने पिता का वध कर बैठता है बल्कि अपनी माँ से शादी करता है और उसके बच्चे भी होते हैं। जब उसे वस्तुस्थिति मालूम होती है तो वह अपनी दोनों आंखें फोड़ लेता है। मुंबई के पृथ्वी थियेटर को रंगमंच का मक्का कहा जाता है। वहां जब मेरे व्दारा अभिनीत नाटक ‘सैंया भये कोतवाल’ का प्रदर्शन हुआ और उस दौरान जो मुझे खुशी मिली थी उसे मैं भुला नहीं सकता। पृथ्वी थियेटर में ही अभिनेता शशिकपूर की पुत्री संजना कपूर एवं पुत्र कुणाल कपूर के दर्शन हुए। इन दोनों भाई-बहनों ने पृथ्वी थियेटर की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है। पृथ्वी थियेटर की बुनियाद इनके दादा स्व. पृथ्वीराज कपूर ने रखी थी। संजना जी एवं कुणाल जी के ही कारण आज भी पृथ्वी थियेटर का यश बरकरार है।“
आपका लम्बे समय तक नाटकों व दूरदर्शन से रिश्ता रहा है और अब ‘मोर छंइहा भुंईया’ से फ़िल्म कलाकार भी बन गए हैं, क्या आपने पहले से सोच रखा था कि बड़े परदे पर भी जगह बनाना है? आशीष बताते हैं- “फ़िल्म तो मेरी कल्पना के बाहर की चीज थी। उस पर भी यह तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ‘मोर छंइहा भुंईया’ को इतनी भारी सफलता मिलेगी। इसके पहले आपने नाटकों से जुड़े दिलचस्प अनुभव के बारे में पूछा था और अब मैं ‘छंइहा भुंईया’ से जुड़े दिलचस्प अनुभव के बारे में खुद बताता हूं। मेरा जन्म 30 अगस्त 1972 का है। यानी सिर्फ साढ़े अट्ठाइस साल की उम्र में इस फिल्म के लेखक व निर्देशक सतीश जैन जी ने मुझे दो नायकों का पिता बना दिया। इस फ़िल्म के मेकअपमेन राजू व सुभाष थे। इन दोनों ने मेरे चेहरे पर इतना ज़बरदस्त मेकअप चढ़ाया कि आज भी जब मैं सड़कों से गुजरता हूं तो किसी को मालूम नहीं होता कि ‘छंइहा भुंईया’ का किसन जा रहा है।“
रंगमंच एवं सिनेमा में क्या अंतर पाते हैं? यह पूछने पर आशीष कहते हैं कि “फ़िल्म की शूटिंग का काम हालांकि काफी उबाऊ होता है, लेकिन ‘मोर छंइहा भुंईया’ के निर्माण के दौरान दिनचर्या इतनी व्यस्त रहती थी कि कुछ विशेष सोचने का वक़्त नहीं होता था।”
‘मोर छंइहा भुंईया’ की अपार सफलता के पीछे आप कौन से कारण देखते हैं? इस सवाल पर आशीष कहते हैं- “फ़िल्म का विषय पूरी तरह सामाजिक है। हर कोई इस फ़िल्म को घर परिवार के साथ बैठकर देख सकता है। इसके अलावा फ़िल्म में गांव और शहरी परिवेश दोनों है। दादा-दादी से लेकर पोता तक इस फ़िल्म में नजर आते हैं। हर दर्शक कहीं न कहीं इस फ़िल्म से अपने को जुड़ा पाता है। इसके साथ ही फ़िल्म के सारे गाने काफ़ी ज़बरदस्त बन पड़े हैं।“
अभी किसी और फ़िल्म का प्रस्ताव आपको मिला है? यह पूछने पर आशीष बताते हैं- “सतीश जी ने ही अपनी अगली फ़िल्म में मुझे प्रमुख भूमिका सौंपी है। संभवतः मार्च 2001 तक इस फ़िल्म की शूटिंग शुरू हो जाएगी।“