“रहना है या नहीं रहना है, सबसे बड़ा सवाल है…” अलविदा रिज़वी साहब…

■ अनिरुद्ध दुबे

नाट्य संस्था ‘अग्रगामी’ के डायरेक्टर जलील रिज़वी साहब नहीं रहे। छत्तीसगढ़ का एक कर्मठ रंगकर्मी चला गया। ऐसी रिक्तता जिसे भरने में शायद लंबा वक़्त लगे। पिछले मार्च महीने की ही तो बात है जब विश्व रंगमंच वाले दिन रंग मंदिर में नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ के प्रदर्शन के दौरान उनसे मुलाक़ात हुई थी। ‘कोर्ट मार्शल’ समाप्त होने के बाद उन्हें मंच पर बोलने आमंत्रित किया गया था। शरीर थका-थका सा लग रहा था, लेकिन जज़्बा नहीं। मंच से उन्होंने कहा था “ज़ल्द स्टेज पर लौटूंगा।“ जीना यहां… मरना यहां… इसके सिवा… जाना कहां… कुछ इसी तरह का संदेश ही तो छिपा था उस दिन उनकी बातों में।

याद आते हैं 1984-85 के वो दिन और आरडीए कॉलोनी टिकरापारा का दो कमरों वाला वह छोटा सा फ्लैट। आशियाना छोटा ज़रूर था लेकिन रंगकर्मी साथियों के लिए वह सपनों की दुनिया से कम नहीं था। उस समय के मेरे जैसे नये निवाड़े रंगकर्मी ने रंगमंच को लेकर उस छोटे से घरौंदे में कितने ही सपने बुने थे। रिज़वी साहब से मुलाक़ात के लिए वक़्त की कोई पाबंदी नहीं होती थी। सुबह जाओ तो चाय-नाश्ता, दोपहर को जाओ तो खाना हाज़िर। वह रिज़वी साहब के संघर्ष भरे दिन थे। रंगमंच की दीवानगी के कारण उनकी नगर निगम की नौकरी टिक नहीं पाई थी। सारा भार नूतन भाभी पर था। नूतन भाभी दानी गर्ल्स स्कूल में शिक्षिका थीं। दो बेटे सौरभ व समीर तथा बेटी सौम्या। उस तंगी के दौर में भी शायद ही कभी रिज़वी साहब व नूतन भाभी ने ईष्ट मित्रों की आवभगत में कोई कमी की हो। 84-85 के उस दौर में घनश्याम सेन्द्रे, इस्माईल खान, नवाब अली, अरुण काचलवार, सलीम अंसारी, शीतल शर्मा, सूरज वर्मा, अनुराधा दुबे, मीनू वर्मा, शाबोनी दासगुप्ता, ऋचा मिश्रा, शेफाली वर्मा, शिवानी गौड़, और मैं रिज़वी परिवार के सतत् संपर्क में थे। उनसे मेरा जुड़ना तब हुआ जब वे ड्रामा ‘ताम्रपत्र’ उठा रहे थे। ड्रामे के अहम् किरदार त्विषामपति को घनश्याम सेन्द्रे ने निभाया था और पुत्र वासु की भूमिका में मैं था। नूतन भाभी मां बनी थीं और शेफाली वर्मा बहन। अन्य प्रमुख कलाकार आनंद वर्मा सर, विजय श्रीवास्तव, श्रीमती विनोद गर्ग, अरुण काचलवार एवं बबन महावादी थे। ‘ताम्रपत्र’ की अवधि क़रीब 2 घंटा 15 मिनट थी। महाराष्ट्र मंडल रायपुर में होने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध नाट्य प्रतियोगिता के लिए यह नाटक तैयार हुआ था। उस नाट्य स्पर्धा में यह ड्रामा पुरस्कृत हुआ था। ‘ताम्रपत्र’ में एक संवाद था, जिसे मंच पर आनंद वर्मा सर, घनश्याम दादा से कहते नज़र आते थे- “किताबों के पन्नों से पढ़कर ज़िन्दगी को चलाना मुश्किल है त्विषाम।“ रिज़वी साहब कहा करते थे- “यह संवाद ही जीवन की सच्चाई है।“ रिज़वी साहब को अपने एक और ड्रामे ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ का यह संवाद बेहद पसंद था- “अमात्य परिषद को सुवीनित के नाम से पूकारा जाता है, हमें तो लगता है इसकी संज्ञा दुर्विनीत होनी चाहिए।“ हालांकि ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में राजाओं-महाराजाओं वाले प्राचीन काल का चित्रण था, लेकिन उसका वह संवाद आज भी राजनीतिक व्यवस्था पर चोट करते नज़र आता है। रिज़वी साहब के निर्देशन में ‘एवम् इंद्रजीत’ हुआ, जो बादल सरकार लिखित नाटक है। इस नाटक का समापन कविता की इन चार लाइनों से होता है-

ईष्ट नहीं है केवल यात्रा

लक्ष्य नहीं है केवल पथ ही

इसी तीर्थ पथ पर है चलना

ईष्ट यही गंतव्य यही है

रिज़वी साहब अक्सर कहा करते- “कविता की इन लाइनों में गहरा जीवन दर्शन छिपा हुआ है।“ उन्हें पसंद तो हैमलेट का वह डायलॉग भी था- “रहना है या नहीं रहना है, सबसे बड़ा सवाल है। काश कि हम कह सकते, अब सीने में दर्द नहीं। मर जाना, सो जाना, खो जाना। कैसी मनचाही परिणिति होती है ये।“ विलियम शेक्सपियर के अंग्रेजी ड्रामे ‘हैमलेट’ का हिन्दी में अनुवाद अमृत राय ने किया था। रिज़वी साहब का सपना था ‘हैमलेट’ खेलने का। ‘हैमलेट’ की रिहर्सल भी शुरु हो गई थी। सबसे बड़ी चुनौती थी ‘हैमलेट’ का किरदार किससे करवाएं! बड़ी मुश्किल से हबीब तनवीर साहब के ‘नया थियेटर’ से जुड़े रहे दीपक तिवारी मिले थे। दीपक से ‘हैमलेट’ का किरदार करवाने की कोशिश की गई। दीपक एक-दो दिन रिहर्सल में आए। ‘हैमलेट’ के किरदार में दीपक बख़ूबी जम भी रहे थे लेकिन उनके सामने ‘स’ और ‘श’ के उच्चारण वाली बड़ी चुनौती थी। फिर ‘हैमलेट’ के अधिकांश संवादों में उर्दू का प्रयोग हुआ है, जिसमें ‘श’ की बहुतायत है। काफ़ी कोशिशों के बाद भी ‘हैमलेट’ नहीं हो सका। रिज़वी साहब ने दानी स्कूल की छात्राओं को लेकर गिरीश कर्नाड लिखित नाटक ‘तुग़लक़’ खेला था, जो कि यादगार रहा। वे ‘तुग़लक़’ रायपुर शहर के सक्रिय रंगकर्मियों को लेकर भी खेलना चाहते थे और कुछ दिनों तक उसकी रिहर्सल भी चली थी, लेकिन उनका वह सपना भी अधूरा रह गया। उस दौर में उन्होंने ‘ताम्रपत्र’ तथा ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ के अलावा ‘एक और द्रोणाचार्य’ तथा ‘प्रबुद्ध रौहिण्य’ ड्रामे जो उठाए थे उन्हें काफ़ी सराहना मिली थी। अस्सी का वह दशक वीडियो फ़िल्मों वाला दौर भी था। रिज़वी साहब ने तब ‘जय मां बम्लेश्वरी’, ‘सोना के वापसी’ एवं ‘बंसी’ जैसी वीडियो फ़िल्में निर्देशित की थी। ‘जय मां बम्लेश्वरी’ को देखने लोग वीडियो हॉल में टूट पड़े थे। वीडियो हॉल अब इतिहास की वस्तु होकर रह गया है। नब्बे का दशक रिज़वी साहब के विश्राम का समय रहा था। बड़ी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां थीं। छत्तीसगढ़ राज्य बनने यानी 2000 के बाद एक बार फिर उन्होंने रंगमंच की दुनिया में शानदार वापसी की। निर्देशन तो करते ही रहे थे, सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक राजकमल नायक के निर्देशन में हुए ड्रामे ‘कविता का विश्व’ में उन्होंने अभिनय भी किया था। उस ड्रामे में उनके साथ नूतन भाभी भी मंच पर अभिनय करती नज़र आई थीं। उस ड्रामे में दोनों का ही अभिनय लाज़वाब था। सत्तर के दशक में रिज़वी साहब ने ‘भूख’, ‘सखाराम बाइंडर’ एवं ‘शुतुरमुर्ग’ ड्रामे में मुख्य किरदार निभाया था। इन तीनों नाटकों के साथ कई-कई कहानियां जुड़ी हुई थीं, जिन्हें रिज़वी साहब बड़े चाव से सुनाया करते थे। रिज़वी साहब के जीवन से जुड़े विविध पहलुओं पर नज़र दौड़ाने की कोशिश करें तो क्या वे अपने आप में बड़ी कहानी नहीं थे…

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