■ अनिरुद्ध दुबे
चर्चा तो यही ज़ोर पकड़े हुए है कि टी.एस. सिंहदेव को छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कमान सौंपी जा रही है। वैसे भी कुछ दिनों पहले छत्तीसगढ़ विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत मीडिया के सामने बड़ी बात कह गए थे कि अगला विधानसभा चुनाव सिंहदेव के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। सिंहदेव जिन्हें प्यार से बाबा कहा जाता है ने खुलकर स्वीकार नहीं किया है कि वे प्रदेश अध्यक्ष बनने जा रहे हैं। पिछले दिनों बिलासपुर में एक अख़बार के प्रतिनिधि से बातचीत के दौरान बाबा जो बात कह गए वह यही दर्शाता है कि उनमें राजनीतिक चातुर्य कम है, ईमानदारी, सरलता और सहजता ज़्यादा। पत्रकार ने जब पूछा कि विष्णु देव सरकार को कितने अंक देंगे, उन्होंने कहा कि “दस में से तीन।“ दस में से तीन पाना तो पासिंग मार्क्स की श्रेणी में आ जाता है। तीन चौक बारह। यानी बाबा की नज़रों में विष्णु देव सरकार फेल नहीं पास है। दूसरे कांग्रेसजन भले ही फेल का राग अलापते रहें।
देवेन्द्र के ग्राफ से कोई
ख़ुश तो किसी को दर्द
कितने ही कांग्रेसियों का मानना है कि भिलाई नगर विधायक देवेन्द्र यादव जेल से बाहर आने के बाद पहले से ज़्यादा बड़े नेता हो गए हैं। उनका राजनीतिक ग्राफ ऊपर गया है। वे पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की गुड बुक में रहे हैं। साथ ही ओबीसी नेता हैं। वैसे भी पिछले काफ़ी समय से छत्तीसगढ़ की राजनीति आदिवासी और ओबीसी पर केन्द्रित रही है। दिल्ली के कांग्रेसी दिग्गज भी देवेन्द्र को जानने लगे हैं। बताते हैं देवेन्द्र यादव के बाहर आने के बाद उनकी पार्टी में बहुत से लोग काफ़ी प्रसन्न हुए तो कुछ उनके समकालीन नेताओं का हाज़मा बिगड़ा नज़र आ रहा है। काफी हाउस में लंबा समय गुज़ारने वाले एक नेता का कहना है कि सेहत कुछ उन नेताओं की बिगड़ी हुई है जिनकी राजनीतिक पारी देवेन्द्र यादव के साथ शुरु हुई थी। एक व्यथित नेता के श्रीमुख से पिछले दो दिनों से सुबह से रात तक बात-बात में मानो फूल झर रहे हैं। माथे पर बल अलग पड़ा हुआ है। दौड़ में पिछड़ने का दर्द तो महसूस होता ही है।
70 करोड़ पार…
इस बार का रायपुर नगर निगम चुनाव काफ़ी रोचक रहा। दस साल बाद मौका आया जब महापौर चुनाव जनता के बीच से हुआ। वहीं टिकटों को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों में भारी कश्मकश की स्थित रही थी। पार्षद टिकट कटने पर दोनों ही पार्टियों के कितने ही नेताओं के मन में भारी असंतोष था। बरसों से यह जुमला चला आ रहा है कि कांग्रेस का असंतोष खुलकर सामने आ जाता है, भाजपा का छिपा रह जाता है। वैसा ही कुछ इस बार होते दिखा। चूंकि इस बार महापौर चुनाव प्रत्यक्ष हुआ, स्वाभाविक है चुनाव थोड़ा खर्चीला तो होना ही था। रायपुर नगर निगम के महापौर एवं पार्षद चुनाव सभी को मिला लें तो यह चुनाव कितने करोड़ तक गया होगा यह उत्सुक्ता न जाने कितने ही लोगों के मन में रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से लगातार पांच नगर निगम चुनाव काफ़ी नज़दीक से देखे कुछ लोगों का यही कहना रहा कि महापौर एवं पार्षद चुनाव में राजनीतिक पार्टियों के प्रत्याशी तथा निर्दलीय प्रत्याशियों सभी के खर्चों का मोटे तौर पर हिसाब लगाने के बाद अनुमान यही है कि इस बार का चुनाव सत्तर करोड़ पार कर गया होगा।
कौन बनेगा रायपुर
नगर निगम सभापति
रायपुर नगर निगम सभापति पद के लिए दो नाम प्रमुखता से चल रहे हैं। सूर्यकांत राठौर एवं मनोज वर्मा। वैसे तो सभापति पद के लिए एक नाम तो श्रीमती सरिता दुबे का भी चला था, यह कहते हुए कि महापौर श्रीमती मीनल चौबे हैं अतः सभापति पद भी किसी महिला को दिया जा सकता है, लेकिन फिलहाल मजबूती से राठौर एवं वर्मा के ही नाम सामने आ रहे हैं। राठौर पांचवीं बार पार्षद चुनकर आए हैं और वर्मा तीसरी बार। राठौर पूर्व में नगर निगम के नेता प्रतिपक्ष रहने के साथ एक कार्यकाल में मेयर इन कौंसिल के सदस्य भी थे। लंबे अनुभव के हिसाब से देखा जाए तो राठौर का पलड़ा भारी नज़र आ रहा है। फिर राठौर पर किसी गुट विशेष का ठप्पा भी नहीं लगा है। माना यही जा रहा है कि राठौर के नाम पर बृजमोहन अग्रवाल एवं राजेश मूणत दोनों बड़े नेताओं की सहमति बन सकती है। रायपुर नगर निगम सभापति चुनाव के लिए वरिष्ठ विधायक धरमलाल कौशिक पर्यवेक्षक बनाए गए हैं। यह भी माना जा रहा है कि कौशिक दूरदर्शिता रखने वाले नेता हैं। फौरन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। स्वाभाविक है रायपुर के कद्दावर भाजपा नेताओं के अलावा वे पार्टी के जीतकर आए 60 पार्षदों से रायशुमारी करेंगे। इसके बाद ही सभापति के नाम का ऐलान होगा।
गिदवानी-मुरली की जीत
के बाद ही सोनी
ले पाए चैन की सांस
सीनियर नेताओं को भी पार्षद जैसा छोटा चुनाव ज़बरदस्त प्रेशर में ला देता है। इसकी मिसाल राजधानी रायपुर के दो वार्ड स्वामी विवेकानंद सदर बाज़ार वार्ड एवं पंडित भगवती चरण शुक्ल वार्ड रहे। जब चुनाव प्रचार ज़ोर पकड़े हुए था एकात्म परिसर के किसी कोने में यही चर्चा होते नज़र आई थी कि विधायक सुनील सोनी पर सदर बाज़ार व भगवती चरण शुक्ल वार्ड को लेकर भारी दबाव है। वो इसलिए कि दोनों ही वार्ड सोनी जी के रायपुर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र में आते हैं। भगवती चरण शुक्ल वार्ड से भाजपा के अमर गिदवानी का मुक़ाबला जहां पूर्व महापौर एजाज़ ढेबर से था, वहीं सदर बाज़ार में भाजपा प्रत्याशी मुरली शर्मा त्रिकोणीय मुक़ाबले में फंसे हुए थे। मुरली के सामने थे कांग्रेस के राहुल तिवारी और निर्दलीय लड़ रहे पूर्व पार्षद सतीश जैन। शुरु में जहां यह हवा बन गई थी कि ढेबर एकतरफा निकाल रहे हैं, वहीं निर्दलीय सतीश जैन की जीत का दावा करने वालों की संख्या कम नहीं थी। सोनी पर भगवती चरण शुक्ल वार्ड को लेकर इसलिए भी भारी प्रेशर था कि भाजपा प्रदेश प्रभारी नितिन नबीन साफ शब्दों में कह चुके थे कि किसी भी कीमत पर यह सीट जीतना है। सदर बाज़ार की बात करें तो यहां से सोनी ने मुरली शर्मा की टिकट दबाव बनाकर पक्की कराई थी, इसलिए जीता कर लाने की ज़वाबदारी भी उन्हीं की हो गई थी। फिर सदर बाज़ार न सिर्फ सोनी का जन्म स्थान रहा अपितु किसी समय में जब वे पहले रायपुर नगर निगम के सभापति एवं बाद में महापौर बने थे उनका रहना इसी वार्ड में होता था। निकाय चुनाव पर गहरी नज़र रखे रहे लोग यही बताते हैं कि दोनों वार्डों में कमल खिलने अर्थात् भाजपा की जीत के बाद ही सोनी चैन की सांस ले पाए।
सीएम हाउस में
कांग्रेस के नेता
21 फरवरी को मुख्यमंत्री विष्णु देव साय का जन्म दिन सीएम हाऊस में गरिमामय तरीके से मना। रात में सीएम से मुलाक़ात के लिए ओपन हाउस रखा गया था। यानी कोई भी नागरिक सीएम साहब से मिलकर उन्हें आसानी से बधाई दे सकता था। ओपन हाउस के समय में एक दिलचस्प तस्वीर सामने थी। भूपेश सरकार के समय में किसी आयोग में नियुक्त हुए नेता जो अब भी बड़ी जगह में विद्यमान हैं, सीएम के जन्मोत्सव पर ओपन हाउस में भाजपा नेताओं के साथ बैठकर वार्तालाप में मशगूल नज़र आए। कुछ लोग दिमागी घोड़े दौड़ा रहे थे कि कांग्रेस के कम उम्र वाले ये नेता जी यहां कैसे! वहीं कुछ लोग यह बात अच्छी तरह समझ पा रहे थे कि भले ही सरकार बदल गई हो लेकिन नेता जी की कुर्सी तो अभी भी सलामत है। इतिहास दोहराता है। उन्हीं नेता के एक क़रीबी रिश्तेदार जोगी सरकार के समय में बड़े आयोग वाला पद पाए थे। जोगी सरकार हटने के बाद रमन सरकार आई तब भी वह नेता अपने पद पर बने हुए थे। अभी की बात करें। भूपेश सरकार जाने के बाद यदि साय सरकार में भी कोई नेता किसी पद पर बने रहे तो भला इसमें बुराई क्या? मोहब्बत और राजनीति के मैदान में सब कुछ जायज़ है।