कारवां (4 मई 2025) ● मिशन कर्रेगुट्टा, कुछ बड़ा होते रह गया… ● पैसों की बरबादी, ऐसा भी क्या पदभार ग्रहण… ● निगम-मंडल में नकेल कसने की कोशिश… ● निगम कमिश्नरों को इंदौर का दिखाया रास्ता… ● निगम एक्ट में नेता प्रतिपक्ष है ही नहीं… ● क्यों नहीं सामने आया आरडीए का बजट… ● मौसम विभाग को ही नहीं था तूफान का पूर्वानुमान…

■ अनिरुद्ध दुबे

बीजापुर की कर्रेगुट्टा के पहाड़ी इलाके को क़रीब 5 हज़ार जवान सप्ताह भर से अधिक समय तक घेरे रहे। इन जवानों के ज़ज्बे को सलाम। जब 44 डिग्री के आसपास तापमान रहा हो ऐसी कठिन परस्थितियों में वे जान दांव पर लगाकर नक्सलवाद के खिलाफ़ उस बड़े ऑपरेशन में जुटे रहे। माना यही जाता रहा है कि खुफ़िया तंत्र के माध्यम से नक्सलवाद के खिलाफ़ रणनीति बनाने वालों तक यही सूचना थी कि देवा, हिड़मा एवं दामोदर जैसे खूंखार ईनामी नक्सली लीडर कर्रेगुट्टा की इन्हीं पहाड़ियों पर अपने दल के साथ मौजूद हैं। यह भी सच है कि ऑपरेशन में तैनात रहे क़रीब 5 हज़ार जवानों ने कर्रेगुट्टा की उन दुर्गम पहाड़ियों का चप्पा-चप्पा तलाशा, लेकिन कोई बड़ा नक्सली लीडर हाथ नहीं लगा। लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में फैले इस पहाड़ी इलाके को जवान रणनीति के तहत चारों तरफ से घेरकर आगे बढ़े थे। क्या कहीं से सूचना लीक हुई थी, जिससे नक्सली लीडरों को भागने में मदद मिली या फिर उनकी वहां मौजूदगी ही नहीं थी? ऑपरेशन के दौरान जवानों को पहाड़ पर एक काफ़ी गहरी गुफा भी मिली। पहली बार में तो यह जानकारी सामने आई कि यह नक्सलियों के छिपने का ठिकाना रहा है। इस पर वीडियो भी वायरल हुआ। बाद में एक और ख़बर सामने आई की उस गुफा में पूजा-पाठ का सामान मिला और ग्रामीण वहां पूजा पाठ के लिए जाते रहे हैं। इस बड़े ऑपरेशन को लेकर किसी तरह का कोई बड़ा अधिकृत बयान तो अब तक सामने नहीं आया है, लेकिन कुछ प्रश्न अभी भी खड़े हैं, जिनके ज़वाब का इंतज़ार है।

पैसों की बरबादी, ऐसा

भी क्या पदभार ग्रहण

इस बार निगम-मंडल का दायित्व पाने वाले कुछ लोगों ने पदभार ग्रहण के दौरान होने वाले तामझाम के मामले में तो मंत्रियों को भी पीछे छोड़ दिया। भाजपा में लंबी पारी खेल चुके एक नेता याद कर रहे थे कि जब राज्य बनने के बाद 2003 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ और भाजपा की सरकार बनी तब के मंत्रियों ने बेहद सादगी के साथ पुराने मंत्रालय के अपने-अपने कक्ष में पदभार ग्रहण किया था। यही नहीं निगम मंडलों में नियुक्तियां तो 2004-2005 में भी हुई थीं। उस दौर में शक्ति प्रदर्शन के साथ पदभार ग्रहण करने जैसा कोई कल्चर नहीं था। निगम-मंडल के अध्यक्षों व्दारा पूरे तामझाम के साथ कुर्सी संभालने का कल्चर आया 2013 के बाद से, जब भाजपा की तीसरी बार सरकार बनी थी। ख़बर तो यह भी सामने आती रही है कि कुछ लोग पदभार ग्रहण करने में सरकारी पैसों व अन्य संसाधनों का इस्तेमाल करने से भी पीछे नहीं रहे। अंदर की ख़बर रखने वाले बताते हैं कि दुनिया भर के तामझाम के साथ निगम-मंडल वालों के पदभार ग्रहण करने का मसला संगठन में बड़े पद पर बैठे लोगों तक गया। पद पाने वाले कुछ लोगों को सीधे-सपाट शब्दों में कहा भी गया कि “केवल अपनी ताकत दिखाने तामझाम के साथ पदभार ग्रहण की आप लोग जो परिपाटी चला दिए हैं, उसका पब्लिक में कोई अच्छा मैसेज नहीं जाता है।“

निगम-मंडल में नकेल

कसने की कोशिश

प्रदेश में सरकार किसी की भी रहे ऊंचाई पर बैठे लोग नीचे वालों पर नकेल कसने की कोशिश में तो लगे ही रहते हैं। ऐसा ही एक बड़े निगम-मंडल में विराजमान हाई प्रोफाइल नेता जी के साथ हुआ है। नेता जी ने पदभार ग्रहण करने के नाम पर जो ज़मीनी ताकत दिखाई वह ऊपर बैठे लोगों को कहीं न कहीं सोचने पर मज़बूर कर गई। अब उन नेताजी के विभाग में एक ऐसे तेज तर्रार अफ़सर को बिठा दिया गया है, जिनकी डिक्शनरी में ‘समझौता’ शब्द नहीं है। जिस किसी ने भी यह गोटी बिठाई उन्हें लेकर जुमला चल पड़ा है, ये न खुद चैन से बैठेंगे न दूसरों को बैठने देंगे। पहले मंत्री लेवल के लोगों को निपटाए, अब निगम-मंडल के लोगों को निपटाने में लगे हैं।

निगम कमिश्नरों को

इंदौर का दिखाया रास्ता

बीते दिनों मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के कार्यों की समीक्षा की। समीक्षा बैठक में उन्होंने शहरों को सुंदर और स्वच्छ बनाने की बात कही। यह भी कहा कि “जन भागीदारी बढ़ाने के साथ ही इंदौर जैसे बेहतर सफाई व्यवस्था वाले शहरों में नगर निगमों के कमिश्नरों को अध्ययन के लिए भेजा जाए।“ नगर निगमों के महापौरों, सभापतियों एवं पार्षदों से लेकर कमिश्नरों तथा उनके अधिनस्थ अफ़सरों के अध्ययन दौरे की परंपरा कोई आज से नहीं बरसों से चली आ रही है। पिछली बार रायपुर नगर निगम में जब कांग्रेस की सत्ता थी तब तत्कालीन महापौर एवं पार्षदगण इंदौर समेत चंडीगढ़ व बैंगलुरू का दौरा करके आए थे। उस अध्ययन दौरे का रायपुर नगर निगम को क्या फायदा पहुंचा वह तो पुरानी वाली टीम ही बेहतर बता सकती है। पूर्व में इसी कॉलम में एक संस्मरण का उल्लेख हुआ था, उसका ज़िक्र एक बार फिर यहां पर करना ज़रूरी लग रहा है। इसी रायपुर नगर निगम में एक उत्साही आईएएस अफ़सर कमिश्नर बनकर आए थे। कहीं से उन्हें पता लगा कि नागपुर नगर निगम के कमिश्नर शेखरन ने शहर की पूरी तस्वीर बदलकर रख दी है। बस फिर क्या था, उस समय के कमिश्नर साहब तीन-चार अफ़सरों और अपने एक मनपसंद ठेकेदार को लेकर नागपुर पहुंच गए। नागपुर दौरे से लौटने के बाद कमिश्नर साहब ने तो अपनी तरफ से होकर कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके साथ गए एक अधिनस्थ अफ़सर ने ज़रूर अपने कुछ क़रीबी लोगों से कहा था कि “नागपुर में जो काम हुआ है, उसका 10 प्रतिशत भी हम रायपुर में करके दिखा दें तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा।“

निगम एक्ट में नेता

प्रतिपक्ष है ही नहीं

लोकसभा या विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष का पद अपने आप में काफ़ी बड़ा होता है। रायपुर नगर निगम के नेता प्रतिपक्ष को लेकर जिस तरह पिछले क़रीब डेढ़ महीने से घमासान मचा हुआ है वह अपने आप में बड़ा नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम हो गया है। यह बात तो सभी जानते हैं कि इस बार के रायपुर नगर निगम चुनाव में भाजपा के 60, कांग्रेस के 7 तथा 3 निर्दलीय पार्षद जीतकर आए। उन 7 कांग्रेस  पार्षदों में से एक संदीप साहू को नेता प्रतिपक्ष नियुक्त करने का लेटर उनकी पार्टी की ओर से नगर निगम पहुंचा था। नेता प्रतिपक्ष की हैसियत से संदीप ने निगम की बजट सामान्य सभा तथा ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ पर हुई विशेष सामान्य सभा में हिस्सा लिया। फिर पार्टी को ओर से एक और लेटर निगम पहुंचा कि नेता प्रतिपक्ष आकाश तिवारी होंगे। टिकट नहीं मिलने पर आकाश बागी होकर निर्दलीय पार्षद चुनाव लड़े थे। वे न सिर्फ़ चुनाव जीते, बल्कि जीत के बाद उनकी कांग्रेस में वापसी हुई और उसके बाद निगम नेता प्रतिपक्ष भी बना दिए गए। आकाश को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के बाद रुष्ट होकर संदीप साहू समेत 5 पार्षदों ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया है। अब 3 बड़े सवाल हवा में तैर रहे हैं। क्या आकाश तिवारी नेता प्रतिपक्ष बने रहेंगे? क्या कांग्रेस से इस्तीफा देने वाले संदीप साहू समेत पांचों पार्षदों को पार्टी मना लेगी? या फिर निगम में चल रही भाजपा सरकार नेता प्रतिपक्ष पद ही नहीं रहने देगी? बरसों से चर्चा तो यही होते आई है कि नगर निगम के संविधान में नेता प्रतिपक्ष जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। यह अलग बात है कि सद्भावनावश नेता प्रतिपक्ष को बैठने के लिए निगम मुख्यालय में कक्ष आबंटित किए जाने की परंपरा चली आ रही है।

क्यों नहीं सामने आया

आरडीए का बजट

वरिष्ठ भाजपा नेता व पूर्व विधायक नंद कुमार साहू के रायपुर विकास प्राधिकरण (आरडीए) के अध्यक्ष पद का पदभार ग्रहण करने के बाद पिछले दिनों आरडीए संचालक मंडल की पहली बैठक हुई। बैठक में दो फैसले लिए गए। आरडीए व्दारा 31 मार्च तक दी गई सरचार्ज में छूट की अवधि 30 जून तक बढ़ा दी गई। दूसरा, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी आवास योजनाओं में पूर्व में निरस्त किए गए फ्लैट्स को आबंटितियों की मांग पर बकाया राशि पर 12 प्रतिशत ब्याज सहित राशि का भुगतान किए जाने पर आबंटन पुर्नबहाल करने का निर्णय हुआ। ये दो फैसले तो सामने आ गए, लेकिन कुछ और भी बड़ा हुआ जो दफ़्तर तक सिमटा रहा, जो मीडिया में सामने नहीं आया। संचालक मंडल की बैठक में बेहद चुपचाप तरीके से आरडीए का सन् 2025-26 का अनुमानित बजट पेश कर दिया गया। ऐसा क्यों हुआ? बाल की खाल निकालते रहने वाले कुछ लोगों ने जब यह जानने की कोशिश की तो पता चला कि आरडीए के पास इस समय कोई नई योजना ही नहीं है, जो कुछ है वही सब पुराना है। ऐसे में बजट सामने लाकर करते भी क्या! यह अलग बात है कि पूर्व में नगर निगम की तरह आरडीए के बजट का भी ब्यौरा मीडिया के सामने खुलकर रखा जाता था, जैसा कि इस बार नहीं हो पाया।

मौसम विभाग को ही नहीं

था तूफान का पूर्वानुमान

1 मई की शाम ने मानो छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में कहर ढा दिया। अचानक मौसम बदला और 75 किलोमीटर घंटे की रफ़्तार से चला अंधड़ कितने ही स्थानों पर तबाही मचा गया। इस पर क्या राजधानी रायपुर के मौसम विभाग ने एक दिन पहले किसी तरह का पूर्वानुमान सामने रखा था? ज़वाब नहीं में है। और तो और इस तूफान के आने के क़रीब 2 घंटे पहले राजधानी रायपुर के एक बड़े चैनल की रिपोर्टर मौसम विभाग रिपोर्टिंग के लिए गई थी। तब भी वहां बैठे लोग रिपोर्टर को नहीं बता पाए थे कि तूफान बस आने ही वाला है।

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