■ अनिरुद्ध दुबे
सालों साल भारतीय राजनीति में नक्षत्र की तरह चमकते रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल का 2 अगस्त को जन्म दिवस था। शुक्ल 25 मई 2013 को झीरम घाटी नक्सली हमले में गोली लगने से गंभीर रूप से घायल हुए थे। 11 जून 2013 को उनका देहांत हो गया। विद्या भैया के जन्म दिवस पर उनके क़रीबी रहे समर्थकों का सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि देने का सिलसिला चलते रहा। यह सर्वविदित है कि विद्या भैया के पिता पंडित रविशंकर शुक्ल एवं बड़े भाई पंडित श्यामाचरण शुक्ल अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में मुख्यमंत्री रहे। सन् 2000 में जब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने की घड़ियां क़रीब थीं बहुतों का यही मानना था कि विद्या भैया पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के पहले मुख्यमंत्री होंगे, लेकिन वक़्त को कुछ और ही मंज़ूर था। यूं कहें कि विद्या भैया का जो विशाल राजनीतिक क़द था छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वह ग्राफ लगातार नीचे की ओर ही जाता दिखाई दिया। कभी वे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का हिस्सा बने, तो कभी भारतीय जनता पार्टी का। लेकिन वे लौटे कांग्रेस में ही और फिर अंतिम सांस तक कांग्रेस के लिए ही जिए। कमाल के फ़िल्मकार गुरुदत्त साहब की फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ का एक कालजयी गीत है- “देखी ज़माने की यारी… बिछड़े सभी बारी बारी…” छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद गीत की यह लाइन विद्या भैया पर एकदम फिट बैठती दिखाई दी। कुछ ऐसे लोग जिन्हें विद्या भैया ने फ़र्श से अर्श पर पहुंचाया और वो ये लोग जो पूरे समय उनके दाएं-बाएं नज़र आया करते थे, कलटी मारते हुए कांग्रेस के ही दूसरे खेमे का दामन थामने में देर नहीं लगाए। इस प्रजाति के लोग आज भी कांग्रेस की नई पीढ़ी को गुज़रे ज़माने की बड़ी-बड़ी कहानियां सुनाते नज़र आ जाते हैं।
बहरहाल ‘कारवां’ कॉलम राइटर विद्या भैया से जुड़े उस यादगार प्रसंग का ज़िक्र ज़रूर करना चाहेगा जो उसकी आंखों के सामने से होकर गुज़रा था। 2003 का विधानसभा चुनाव एवं 2004 का लोकसभा चुनाव हो चुका था। प्रदेश में भाजपा की पहले दौर की सरकार बन चुकी थी। 2007 या 2008 की बात रही होगी जब राहुल गांधी का एनएसयूआई के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने बस्तर दौरा हुआ। बात बस्तर की थी तो स्वाभविक है कि राजधानी रायपुर से होकर जाना था और लौटते में भी रायपुर आना था। बस्तर वापसी के बाद वीईपी रोड स्थित हॉटल बेबीलॉन इंटरनेशनल के हॉल में राहुल गांधी की पत्रकार वार्ता रखी गई। पत्रकार वार्ता स्थल तक पहुंचने सूरक्षा व्यवस्था ठीक वैसी ही कड़ी थी जैसा कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में होती है। 3 अलग-अलग स्थानों पर सूरक्षा ड्यूटी में लगे लोग 3 तलाशी के बाद ही पत्रकार वार्ता वाले स्थान पर जाने दे रहे थे। लंबी प्रतीक्षा के बाद राहुल गांधी पहुंचे। उनके साथ तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत, प्रदेश महामंत्री सुभाष शर्मा एवं वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री रवीन्द्र चौबे थे। पत्रकार वार्ता वाले मंच पर इन चारों के अलावा दो और नेता विराजमान रहे होंगे। पत्रकार वार्ता शुरु हुए कुछ ही मिनट हुए रहे होंगे कि विद्या भैया छड़ी टेंकते हुए धीरे-धीरे हॉल में प्रवेश किए। लाइट कलर की सफारी पहने हुए थे। राहुल गांधी ने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया और मिनट भर के लिए वे बोलते-बोलते रुक गए। मंच पर तो कुर्सी खाली नहीं थी, अब अपनी कुर्सी छोड़े कौन! मंच के दाहिने तरफ आख़री कुर्सी पर रवीन्द्र चौबे विराजमान थे और शिष्टाचार दिखाते हुए वे न सिर्फ़ खड़े हुए बल्कि विद्या भैया को सहारा देते हुए मंच पर चढ़ाए और अपनी जगह पर बिठाए। देर तक राहुल गांधी की पत्रकार वार्ता चली और रवीन्द्र चौबे पूरे समय मंच के बाजू नीचे खड़े रहे।
पत्रकार वार्ता ख़त्म होने के बाद भी मीडिया से जुड़े कुछ लोगों को चैन नहीं आया और कांफ्रेंस हॉल के दरवाज़े पर राहुल गांधी से सवाल पर सवाल करते रहे। एक बेहद बातूनी पत्रकार तो राहुल जी को छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे, मानो उनकी नज़रों में समां जाना चाहते रहे हों। दरवाज़े पर उत्साही पत्रकारों को अपने ज़वाबों से संतुष्ट करने के बाद राहुल गांधी और उनके साथ आए सारे नेतागण रवाना हो गए। साथ ही अपना दायित्व पूरा कर लेने के बाद एक-एक कर सारे पत्रकार बंधु भी निकल गए। सब कुछ इतने आनन-फानन में हुआ कि विद्या भैया की तरफ किसी की नज़र नहीं जा पाई। विद्या भैया को लेकर मेरे मन में उत्सुक्ता थी, शायद इसीलिए मैं वहां रुके रहा था। अब उस प्रेस कांफ्रेंस हॉल में दो लोग ही रह गए थे, विद्या भैया और मैं। राहुल जी की पत्रकार वार्ता के लिए बना मंच क़रीब 2 फुट ऊंचा रहा होगा। विद्या भैया के पैरों में तकलीफ़ कुछ इस कदर थी कि वे छड़ी के सहारे मंच से उतरने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उतर नहीं पा रहे थे। मंच के क़रीब पहुंचकर सहारा देकर मैंने उन्हें उतारा। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- “थैंक्यू।“ और धीरे-धीरे छड़ी टेकते हुए वे प्रेस कांफ्रेंस हॉल से निकल गए। उस समय मैं सांध्य दैनिक अख़बार ‘हाईवे चैनल’ में कार्यरत था। हॉटल बेबीलॉन से ‘हाईवे चैनल’ प्रेस के बीच काफ़ी दूरी थी। रास्ते भर विद्या भैया से जुड़ी कितनी ही वो तस्वीरें दिमाग में घूमती रहीं जो उनके स्वर्णिम दौर के समय की थीं… संजय गांधी के बेहद क़रीबी रहे विद्या भैया… आपातकाल (इमर्जेन्सी) के हीरो कहलाने वाले विद्या भैया… अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में सत्तर के दशक में पूरे प्रदेश में सबसे पहले रायपुर में दूरदर्शन केन्द्र की स्थापना करवाने वाले विद्या भैया… श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए जिन नामों को लेकर अटकलें तेज थीं, उन नामों में से एक विद्या भैया… छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के दोबारा सरकार बनाने के मंसूबे पर पानी फेर देने वाले विद्या भैया…
हालांकि विद्या भैया की वह शारीरिक तकलीफ़ थोड़े समय की थी और छड़ी का साथ भी थोड़े समय ही रहा था, लेकिन उस दिन राहुल जी की पत्रकार वार्ता के अलावा लगातार मेरे दिमाग में यह बात चल रही थी कि विद्या भैया और छड़ी पर भी एक समाचार बनना चाहिए। मैंने अपनी भावनाओं को ‘हाईवे चैनल’ के तत्कालीन प्रधान संपादक प्रभाकर चौबे जी के समक्ष रखा। उन्होंने कहा- “समाचार बना लो।“ मैंने पूछा- “शीर्षक क्या होगा?” उन्होंने कहा- “विद्याचरण को अब छड़ी का सहारा“
राजनीति हो या बॉलीवुड
कोई किसी का नहीं होता
रायपुर नगर निगम ने कड़ा रूख़ अपनाते हुए तोमर बंधुओं के अवैध निर्माण को तोड़ गिराया। छत्तीसगढ़ पुलिस उत्तरप्रदेश तक तोमर बंधुओं की तलाश में जुटी हुई है पर उनका सुराग नहीं मिल पा रहा है। एक वो भी समय था जब तोमर बंधुओं की बड़े-बड़े नेताओं के साथ तस्वीरें सोशल मीडिया पर दौड़ा करती थीं। तोमर बंधुओं के खिलाफ़ जब कार्रवाई का सिलसिला शुरु हुआ तो यह सवाल खड़े होते रहा है कि दोनों ही बड़ी राजनीतिक पार्टियों के राजनेताओं से लेकर कुछ पुलिस अफसरों व कर्मचारियों से दोनों भाइयों का गहरा तालमेल रहा था। फिर ऐसा क्या हुआ कि पिछले क़रीब डेढ़ महीने से तोमर बंधुओं के ठिकानों पर छापे पर छापे पड़ रहे हैं? उनके क़रीबी लोगों को गिरफ़्तार किया जा रहा है! ज़वाब यही है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। दमदार नेताओं से पंगा लोगे तो गाज गिरेगी ही। राजनीति में शिखर पर पहुंचे लोगों की आदत में होता है कि जिसे वह आगे बढ़ाते हैं एक निश्चित सीमा तक ही उन्हें ऊंचाई पर पहुंचने देते हैं, जब उन्हें लगने लगता है कि उड़ान कुछ ज़्यादा ही ऊंची हो रही है तो उसे ज़मीन पर ला पटकने में भी देर नहीं करते। अस्सी व नब्बे के दशक में रायपुर में बालकृष्ण अग्रवाल एक बड़ा नाम था। जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तो बालकृष्ण के एक कद्दावर नेता के साथ जुड़ाव की चर्चा पहले से और ज़्यादा होने लगी थी। बालकृष्ण की विजय यात्रा कुछ इस क़दर गति पकड़ चुकी थी कि वह कहा करते थे कि “छत्तीसगढ़ में चिदम्बरा नाम की छत्तीस बुलंद इमारतें खड़ी करूंगा।“ इसकी शुरुआत भी हो चुकी थी। बालकृष्ण की इस तेज गति के कारण उस कद्दावर नेता की भूमिका को लेकर जनमानस के बीच से कहीं न कहीं सवाल उठने लगे थे। उस समय नया प्रदेश और नई कांग्रेस की सरकार थी। एक दिन ऐसा आया कि रायपुरा में स्थित चिदम्बरा बिल्डिंग के बड़े हिस्से को अवैध निर्माण के नाम पर तोड़ गिराया गया। जब यह तोड़फोड़ कार्यवाही हुई, बालकृष्ण की कहानियों से परिचित रहे लोग सोच में पड़ गए थे कि ये तो नेताजी के ख़ासमख़ास हैं फिर यह सब हो कैसे गया! अब किसी को कोई कैसे समझाता कि राजनीति व बॉलीवुड दो ऐसी जगह हैं जहां कोई किसी का नहीं होता।
गैर मौजूदगी भी चर्चा में
इस बार की बारिश रायपुर नगर निगम पर काफ़ी भारी पड़ी। जब कविता नगर जैसी संपन्न लोगों की कॉलोनी में बारिश का पानी घंटों घुटने तक भरे रहे तो बाकी निचली बस्तियों में क्या आलम रहा होगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। स्वयं महापौर श्रीमती मीनल चौबे घुटनों तक भरे पानी वाले इलाके में दौरा करती नज़र आईं और उन्हें समझ में आया कि समस्या ऐसी है जिसका समाधान बेहद कठिन है। समाधान तलाशने उन्होंने पूर्व महापौरों एवं पूर्व सभापतियों को निगम मुख्यालय में सूझाव देने हेतु आमंत्रित किया। दलगत राजनीति से ऊपर उठते हुए पूर्व कांग्रेस महापौरगण श्रीमती किरणमयी नायक, प्रमोद दुबे एवं एजाज़ ढेबर आए भी। बैठक में नज़र नहीं आए तो पूर्व महापौर सुनील सोनी। हालांकि सोनी महापौर के बाद सांसद बने और अब विधायक हैं। निश्चित रूप से उनका ओहदा बड़ा है, लेकिन यह भी तो सच है कि ज़मीन से जुड़े नेता के रूप में खुद को साबित करने वे समय-समय पर अपने दक्षिण विधानसभा क्षेत्र में आने वाले नगर निगम के जोन दफ़्तरों में पार्षदों व अफ़सरों की बैठक लेते रहते हैं। पूर्व महापौरों व सभापतियों की सूझाव बैठक ख़त्म होने के बाद नगर निगम के गलियारे में कुछ अधिकारी व कर्मचारी सुनील सोनी की गैर मौजूदगी के बारे में एक-दूसरे से बतियाते रहे। बाढ़ जैसा गंभीर मसला जो सामने था।
भांग खाकर आए हो
राजधानी रायपुर के एक आला अफ़सर बड़े रूतबे वाले हैं। बीच में उन्हें लगा कुछ निचले स्तर के अधिकारी गेम खेल रहे हैं, बस फिर क्या था, बुला ली उनकी बैठक। बैठक शुरु होते ही आला अफ़सर ने कुछ सवाल दागे। मन मुताबिक़ ज़वाब नहीं मिला तो जमकर बरसे। कहा- “भांग खाकर आए हो।“ फिर एक मौके पर कहा कि “आंख मिलाकर बात कैसे कर ले रहे हो।“ फिर ये भी कहा- “जहां ट्रांसफार्मर के पास झाड़- झंखाड़ हैं उन्हें साफ करवाएं। बारिश के दिन हैं, कहीं ऐसा-वैसा न हो जाए।“
किस बात की ठसन
पूर्व में मंत्री रह चुके एक विधायक जी के पीए से राजधानी रायपुर के कुछ अफ़सर परेशान हैं। पीए साहब बीच-बीच में दूसरे साहबों को विधायक जी से जुड़े कामों की याद दिलाते हुए अपनी खुद की हस्ती का अहसास कराते रहते हैं। बाकी जगह की बात ठीक है लेकिन पीए साहब पहले खुद कभी जिस जगह पर पदस्थ थे वहां के साहबों के पास फोन जाए तो बात कुछ और हो जाती है। कुछ साहब यह कहते हुए अपनी तकलीफ़ झलका देते हैं कि “भई वो पीए ही तो हैं, खुद विधायक तो नहीं हैं, फिर किस बात की इतनी ठसन।“