■ अनिरुद्ध दुबे
1 नवंबर को छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए 25 साल पूरे हो जाएंगे। राज्य गठन का 25 वां साल है तो स्वाभाविक है ज़ोरदार तरीके से मनेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 1 नवंबर को नया रायपुर में बने नये विधानसभा भवन तथा आदिवासी क्रांतिकारियों की स्मृति में बने संग्रहालय का लोकार्पण करेंगे। पांच दिनों तक राज्योत्सव का जश्न चलेगा। 25 सालों को देखें तो दो जनरेशन तैयार हो गई। पहली जो सन् 2000 में बाल्या या किशोरावस्था में थी, दूसरी जिनका जन्म 2000 या उसके आसपास हुआ। छत्तीसगढ़ राज्य का 25 सालों का सफ़र कैसा रहा इससे ज़्यादातर लोग भलीभांति अवगत हैं, अतः उससे थोड़ा अलग हटकर कुछ पिछले पन्नों को पलटने की कोशिश करें। देखा जाए तो 70 से लेकर 90 के दशक, करीब 30 सालों की बात करें, शुक्ल बंधुओं यानी पंडित श्यामाचरण शुक्ल एवं विद्याचरण शुक्ल का छत्तीसगढ़ में डंका बजता था। पं. श्यामाचरण शुक्ल अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में मुख्यमंत्री तो विद्याचरण शुक्ल अलग-अलग समय में केन्द्र सरकार में मंत्री रहे थे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह, डॉ. खूबचंद बघेल, चंदूलाल चंद्राकर, हरि ठाकुर, आचार्य नरेन्द्र दुबे, शंकर गुहा नियोगी एवं केशव सिंह ठाकुर जैसे दिग्गजों ने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का सपना देखा था। समाजवादी नेता आनंद कुमार ने अखंड धरना दिया था। पृथक राज्य की मांग को लेकर ये दिग्गज कभी सामूहिक रूप से, कभी अपने स्तर पर लड़ाई लड़ते रहे। वहीं 1993-94 तक की स्थिति में शुक्ल बंधु पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के पक्ष में नहीं थे। उस दौर में पत्रकारों व्दारा जब शुक्ल बंधुओं से सवाल किया जाता कि क्या पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के गठन की ज़रूरत है, उनका ज़वाब नहीं में हुआ करता था। थोड़ा और पीछे चलें, सन् 1978 में कांग्रेस जब दो भागों में विभाजित हो गई, एक इंदिरा कांग्रेस तो दूसरी देवराज अर्स कांग्रेस कहलाई। श्यामाचरण शुक्ल देवराज अर्स कांग्रेस के साथ हो लिए। देवराज अर्स कांग्रेस का वजूद मिटने में समय नहीं लगा और श्रीमती इंदिरा गांधी पुनः प्रधानमंत्री बन गईं। इस तरह श्याम भैया अब कांग्रेस में रह नहीं गए थे। उन्हें क़रीब 11 साल का लंबा राजनीतिक वनवास झेलना पड़ा था। इंदिरा जी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब कहीं जाकर श्याम भैया की कांग्रेस में वापसी हो सकी। कांग्रेस वापसी के बाद श्याम भैया को एक बार फिर थोड़े समय के लिए ही सही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था।
अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में ऐसा भी दौर आया जब अर्जुन सिंह कांग्रेस में लगातार मजबूत होते चले गए और श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने का अवसर दिया। वो अर्जुन सिंह ही थे जिन्होंने छत्तीसगढ़ में शुक्ल बंधुओं की काट निकालने के लिए आईएएस अफ़सर की हैसियत से मध्यप्रदेश में सेवाएं दे रहे अजीत जोगी को राजनीति में लाने में अहम् भूमिका निभाई थी। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में जोगी सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस प्रवेश किए। वे राज्यसभा व संसद सदस्य रहे, कांग्रेस राष्ट्रीय प्रवक्ता का दायित्व भी संभाला।
कांग्रेस में पदार्पण के बाद अजीत जोगी का अधिकतम समय तो दिल्ली में ही कटा करता था, लेकिन उनका भोपाल, इंदौर व रायपुर लगातार फेरा लगे रहता था। जोगी ने छत्तीसगढ़ में अपनी ज़मीन मजबूत करने 1991 में अपने समर्थकों के साथ बस्तर से सरगुजा तक क़रीब 36 दिनों की पदयात्रा की थी। शायद जोगी को नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में अहसास हो गया था कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने की घड़ी बहुत ज़्यादा दूर नहीं है। नब्बे के दशक में जोगी कांग्रेस नेता के रुप में जब भी रायपुर आते, पत्रकारों को ऑफ द रिकॉर्ड शुक्ल बंधुओं के बारे में काफ़ी कुछ बताया करते थे। जैसे कि दिल्ली में शुक्ल बंधुओं की पकड़ लगातार कैसे कमज़ोर होती जा रही है! उस समय रायपुर से नव भास्कर (बाद में दैनिक भास्कर), नवभारत, देशबन्धु, समवेत शिखर, स्वदेश, अमृत संदेश, महाकोशल, आज की जनधारा रौद्रमुखी प्रातःकालीन तथा अग्रदुत व तरुण छत्तीसगढ़ सांध्यकालीन अख़बार हुआ करते थे। इलेक्ट्रानिक व डिजीटल मीडिया का वह ज़माना नहीं था।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण को लेकर आशा की किरण उस समय जगती दिखाई दी जब 1999 के लोकसभा चुनाव के समय रायपुर में चुनावी सभा को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि “यदि आप छत्तीसगढ़ की सभी 11 में से 11 सीटों में भाजपा को जीत दिलाते हैं तो छत्तीसगढ़ राज्य बनाएंगे यह हमारा वादा है।“ 99 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पूरी 11 तो नहीं लेकिन 9 सीटें ज़रूर मिलीं। 3 सीट माइनस रहने के बाद भी केन्द्र की तत्कालीन एनडीए सरकार ने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के रास्ते खोल दिए। यही कारण है कि अटल जी को छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माता के रूप में याद किया जाता है। चूंकि नये बनने जा रहे छत्तीसगढ़ राज्य में आनुपातिक तौर पर कांग्रेस विधायकों की संख्या ज़्यादा (90 में से 48) थी, स्वाभाविक है कि पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का पहला मुख्यमंत्री कांग्रेस से ही बनना था। उस दौर में विद्याचरण शुक्ल का जैसा कि छत्तीसगढ़ में विशाल राजनीतिक क़द था, माना यही जा रहा था कि वे छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री हो सकते हैं। उनके अलावा मोतीलाल वोरा, महेन्द्र कर्मा एवं अजीत जोगी के नामों की चर्चा भी होते रही थी। वोरा इसलिए कि अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में मुख्यमंत्री रह चुके थे और श्रीमती सोनिया गांधी के विश्वसनीय लोगों में से थे। जोगी की गिनती भी श्रीमती सोनिया गांधी के क़रीबी लोगों में थी। छत्तीसगढ़ को शुरु से आदिवासी बहुल प्रदेश माना जाता रहा है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर व सरगुजा से कांग्रेस के बहुतायत में विधायक जीतकर आया करते थे, जिससे कांग्रेस की सरकार बनने की राह आसान हुआ करती थी। उस आदिवासी फैक्टर के कारण कर्मा भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे। वो कहते हैं न राजनीति भारी अनिश्चितताओं से भरा क्षेत्र है, यही कारण है कि 31 अक्टूबर 2000 की दोपहर मुख्यमंत्री पद के लिए अजीत जोगी के नाम का पत्ता खुला और विद्याचरण शुक्ल खेमे में सन्नाटा छा गया।
31 अक्टूबर 2000 वाले दिन अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, तत्कालीन कांग्रेस राष्ट्रीय महासचिव गुलाम नबी आज़ाद, मुख्यमंत्री के लिए रायशुमारी करने दिल्ली से पहुंचीं वरिष्ठ कांग्रेस नेत्री प्रभा राव रायपुर में थीं। जानकार लोग बताते हैं श्रीमती सोनिया गांधी की तरफ से रायपुर पहुंचे इन तीनों नेताओं को जोगी के नाम का इशारा मिल चुका था। उस समय 3 विधायकों को छोड़ दें, शेष कांग्रेस विधायक विद्याचरण शुक्ल के पक्ष में खड़े नज़र आ रहे थे। लेकिन आलाकमान की बात को भला कौन काट सकता है! 31 अक्टूबर 2000 की दोपहर पूरा सीन चेंज हो गया। दिग्विजय सिंह, गुलाम नबी आज़ाद एवं प्रभा राव लाभांडी स्थित विद्याचरण शुक्ल के फार्म हाउस आलाकमान की भावनाओं से अवगत कराने पहुंचे। इन तीनों नेताओं ने फार्म हाउस में कदम रखा ही था कि वहां पहले से मौजूद कुछ शुक्ल समर्थक दिग्विजय सिंह से हाथापाई कर बैठे। हाथापाई में दिग्विजय सिंह का कुर्ता फट गया। शोर शराबा सुनकर शुक्ल अपने निवास बाहर आए और उन्होंने उत्तेजित समर्थकों को फटकार भी लगाई, लेकिन तब तक जो होना था वह हो चुका था। 1 नवंबर को दिग्विजय सिंह, गुलाम नबी आज़ाद एवं प्रभा राव कड़वी यादें लेकर रायपुर से वापस लौटे। इस घटनाक्रम की आगे चलकर विद्याचरण शुक्ल को अप्रत्यक्ष रुप से बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में लाने की तारीख़ केन्द्र सरकार ने पहले ही तय कर दी थी। यह भी तय हो चुका था कि रायपुर राजधानी बनेगा और बिलासपुर में हाईकोर्ट होगा। राज्य निर्माण की तारीख़ जैसे-जैसे क़रीब आते जा रही थी रायपुर शहर के कल्पनाशील लोग अपने-अपने ढंग से कल्पनाओं की उड़ान भर रहे थे- 1 नवंबर 2000 का दिन कैसा होगा, वैसे तो 26 अक्टूबर की तारीख़ में दिवाली मन चुकी होगी तो क्या 1 नवंबर की शाम भी रायपुर शहर में राज्य व राजधानी बनने की ख़ुशी में घर-घर दीप जलेंगे, क्या 1 नवंबर की शाम व रात दिवाली की तरह ही जमकर आतिशबाजी होगी…
31 अक्टूबर 2000 की रात ठीक 12 बजे अजीत जोगी का रायपुर के पुलिस ग्राउंड मैदान में छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री के रुप में शपथ लेने का कार्यक्रम तय हो चुका था। 31 की रात 12 बजते ही छत्तीसगढ़ के पहले राज्यपाल दिनेशनंदन सहाय ने अजीत जोगी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई। जोगी ने छत्तीसगढ़ी में शपथ ली। शपथ ग्रहण समारोह में केन्द्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण अडवाणी एवं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह मौजूद थे। शुक्ल बंधुओं की बात करें तो पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल तो शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित हुए लेकिन विद्याचरण शुक्ल नहीं पहुंचे। मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाना विद्याचरण शुक्ल के लिए बड़ा धक्का था। शपथ ग्रहण के तूरंत बाद अजीत जोगी मंच से उतरकर जैसे ही सामने विराजमान अतिथियों व आमजनों से मिलने पहुंचे, उनके लिए अपने आपको संभाल पाना मुश्किल हो रहा था। धक्का-मुक्की ही कुछ ऐसी हो रही थी। जिसे देखो वह हाथ मिलाकर जोगी को बधाई देने बेताब था। कुछ ही घंटों के भीतर छत्तीसगढ़ के राजनीतिक घटनाक्रम में ज़मीन-आसमान का अंतर आ चुका था। मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद जोगी तत्परता दिखाने से नहीं चूके। शपथ के बाद 31 की देर रात में ही उन्होंने कांग्रेस विधायक दल की बैठक ली।
छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री की शपथ वाली उस रात राजधानी रायपुर के पुलिस ग्राउंड में तो हलचल थी, लेकिन आसपास की कॉलोनियों व मोहल्लों में किसी तरह का कोई उत्साह नहीं था। पुलिस लाइन से निकलें तो बूढ़ापारा, मालवीय रोड व सदर बाज़ार वाला एरिया सबसे ज़्यादा चहल पहल वाला माना जाता है। शपथ वाली रात को रोज़ की तरह इन सड़कों पर सन्नाटा पसरा पड़ा था। 1 नवंबर 2000 को राजधानी रायपुर की सुबह, दोपहर, शाम व रात में माहौल अन्य रोज़ की तरह ही था। 1 की शाम या रात राजधानी बनी रायपुर में ख़ुशी में न दिये जले, न आतिशबाजी हुई और न ही कहीं उत्सव मना था…

