■ अनिरुद्ध दुबे
कोरोना काल ने न सिर्फ हिन्दी बल्कि आंचलिक सिनेमा को भी बेहद कठिन दौर में ले जा खड़ा किया है। मार्च से लेकर जून के इस पहले हफ्ते तक का आकलन करें तो यह दौर छत्तीसगढ़ी सिनेमा और लोक कलामंच से जुड़े कलाकारों दोनों के लिए बेहद कठिन चल रहा है। सिनेमाघर बंद हैं। फिल्मों की शूटिंग हो नहीं रही। प्रोग्राम हो नहीं रहे। कलाकारों, टेक्नीशियनों व नेपथ्य में हाथ बंटाने वालों को उदासी घेरे हुए है। हर किसी के मन में यही चल रहा है कब कोरोना का कोहरा छंटेगा और कब जीवन में सुकून भरे पल आएंगे। कोरोना जिन्दगी का सबक दे गया है। कोरोना ने उन लोगों को एक्सपोज भी कर दिया जो इस ख्याल में जीते रहे हैं कि “जमाना हमसे है, हम जमाने से नहीं।” इस कठिन समय में छत्तीसगढ़ी सिनेमा और लोक कला मंच से जुड़े कुछ लोग अपनों की मदद के लिए निसंदेह आगे बढ़े हैं। बिना किसी प्रचार प्रसार के ये लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते चले जा रहे हैं। सवाल तो उन चेहरों को लेकर है, जिन्हें हमेशा से यह मुगालता रहा है कि छत्तीसगढ़ी सिनेमा व लोक कला मंच की पहचान उनसे है। यहां ऐसे भी महानुभाव रहे जिन्हें अपना नाम आमिर खान व कमल हासन जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों के समकक्ष रखना अच्छा लगते रहा है। काश, ये महानुभाव इस कठिन कोरोना काल में आमिर खान व कमल हासन की तरह दरियादिली दिखाते कोई मिसाल पेश किए होते। कोरोना के इस संकटकाल में हर किसी के मन में कुछ इस तरह के सवाल कौंध रहे हैं- हर साल होने वाले सिने अवार्ड समारोह में जितनी रंगीनियत नजर आती है क्या वाकई छत्तीसगढ़ी सिनेमा के भीतर में भी वैसी खुशहाली है? सिनेमा से जुड़ा कोई एसोसिएशन यदि प्रदेश से लेकर जिला स्तर तक पदाधिकारी नियुक्त कर भी दे तो क्या इतने से ही सिनेमा व उससे जुड़े कलाकारों का भला हो जाना है? इसमें कोई दो मत नहीं की छत्तीसगढ़ी सिनेमा व लोक कला मंच में कुछ मददगार लोग भी हैं, लेकिन चंद ऐसे लोग जो इस विधा से ऊंचाई पर पहुंचे, क्या ऐसे कठिन समय में आगे आकर जिस समाज से लिया उसे कुछ लौटाने का उत्तरदायित्व उनका नहीं बनता? क्या कैमरा फेस कर लेने, कभी मंच पर आसीन हो जाने और कभी चैनलों को बाइट दे देने, इतने तक में ही उनके मानवीय व सामाजिक कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? कोरोना के इस संक्रमणकाल में छत्तीसगढ़ी सिनेमा की एक नई एक्ट्रेस नेहा साहू के निधन की खबर आई। उसे पीलिया हो गया था और पथरी की भी शिकायत हो गई थी। कुछ दिनों तक उसका रायपुर के एक निजी अस्पताल में उपचार चला। छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े कुछ लोग उसकी मदद के लिए आगे भी आए, लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था। हमेशा मुस्कुराते रहने वाली नेहा की मौत अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है। वाट्स अप एवं फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में लगातार नेहा पर लिखने का क्रम जारी है। लगातार सवाल यह उठ रहा है कि सरकार छत्तीसगढ़ी सिनेमा व लोक कला मंच से जुड़े लोगों के लिए आखिर क्या कर रही है? अभी की स्थिति में लग रहा है कि सरकार तथा सिनेमा-मंच से जुड़े लोगों के बीच संवाद होना बाकी है। सिनेमा व मंच से जुड़े लोगों की क्या अपेक्षाएं रही हैं यह हमेशा से आइने की तरफ साफ रहा है। यदि बातचीत हो पाई तो हो सकता है सरकार का कोई नजरिया सामने आए। संकट के इस दौर में पिक्चर अभी बाकी है…