मिसाल न्यूज़
शीत ऋतु में मानो छत्तीसगढ़ में कवि सम्मेलनों या गोष्ठियों की बहार देखने को मिल रही है। दो हफ्ते के भीतर राजधानी रायपुर में दो बड़े कवि सम्मेलन हो गए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हास्य़ कवि डॉ. सुरेन्द्र दुबे दोनों ही कवि सम्मेलनों का अहम् हिस्सा रहे। दोनों ही कवि सम्मेलनों में आकर्षण का केन्द्र कुमार विश्वास थे, जिनकी कीर्ति सतत् देश-विदेश में गूंज रही है। अस्सी के दशक में डॉ. सुरेन्द्र दुबे की कविताएं अख़बारों में लगातार प्रकाशित होती रही थीं, लेकिन मंच पर उनकी काव्य यात्रा का टर्निंग प्वाइंट 26 अक्टूबर 1991 की रात रायपुर शहर के गंजपारा मैदान (राठौर चौक) में हुआ अखिल भारतीय कवि सम्मेलन माना जा सकता है। उस एक ही रात में उनका क़द काफ़ी बड़ा हो गया था। उनकी रचनाएं शिखर को छू रही थीं। उस रात उनकी हर रचना मानो व्यवस्था पर गहरी चोट करते हुए प्रतीत हो रही थी।“ श्रोताओं की ओर से लगातार ‘वन्स मोर वन्स मोर’ की फरमाइश हो रही थी। सुप्रसिद्ध कवि हरिओम बेचैन तो इस कदर प्रभावित हुए थे कि अपनी ज़गह से उठे और कविता पढ़ रहे सुरेन्द्र दुबे को फुलों का हार पहनाकर उनको गले से लगा लिया था। बेचैन जी ने मंच पर यह कहने में भी कोई संकोच नहीं किया था कि “आज की रात देश को एक और बड़ा कवि मिल गया।“ नवयुवक समाज राठौर चौक व्दारा आयोजित उस कवि सम्मेलन में आत्मप्रकाश शुक्ला (एटा), डॉ. राधेश्याम मिश्र, एकता शबनम (कोटा) एवं अंजुम रहबर (गुना) के आने की सूचना थी, लेकिन किसी कारणवश ये हस्तियां नहीं पहुंच पाईं। उस रात वेदप्रकाश सुमन (गाजियाबाद), हरिओम बेचैन (नई दिल्ली), तथा डॉ. सुरेन्द्र दुबे (दुर्ग) ने मिलकर मोर्चा संभाला और वह आयोजन कहीं से भी अधूरा नहीं लगा था। उस आयोजन के साथ एक और ख़ास बात जुड़ी हुई थी कि कविता पाठ करने वालों में छत्तीसगढ़ से डॉ. सुरेन्द्र दुबे के अलावा लक्ष्मण मस्तुरिया जैसी बड़ी शख़्सियत मौजूद थी। उस सम्मेलन की मेरे व्दारा की गई रिपोर्टिंग का प्रकाशन दैनिक अख़बार ‘अमृत संदेश’ में हुआ था। उस कवि सम्मेलन में देश के जाने-माने कवियों व्दारा पढ़ी गई रचनाओं के अंश पर नज़र डालें तो ऐसा महसूस होता है कि वो कविताएं मानो आज की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लिखी गईं हों। कवि सम्मेलन की उस रिपोर्टिग की कतरन और उसमें जो कुछ लिखा गया था का संपादित और संशोधित अंश आप सब के सामने प्रस्तुत है-
विख्यात नामों की अनुपस्थिति,
सुरेन्द्र ने नाक रख ली
■ अनिरुद्ध दुबे
नवयुवक समाज राठौर चौक व्दारा 26 अक्टूबर की रात गंज शाला प्रांगण में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन यादगार रहा। हालांकि आत्मप्रकाश शुक्ल (एटा), डॉ. राधेश्याम मिश्र, एकता शबनम (कोटा) एवं श्रीमती अंजुम रहबर (गुना) किसी कारणवश कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले पाए लेकिन मंच पर उपस्थित वेदप्रकाश सुमन (गाजियाबाद), हरिओम बेचैन (नई दिल्ली) तथा डॉ. सुरेन्द्र दुबे (दुर्ग) ने अधूरेपन का अहसास नहीं होने दिया। डॉ. सुरेन्द्र दुबे अपनी नव रचित कविताओं को सुनाकर धूमकेतु की तरह उभरकर राष्ट्रीय स्तर ख्याति प्राप्त कवियों के सामने आए। उनकी कविता की लाइनों को श्रोताओं ने दोबारा सुनने की मंशा कई बार दोहराई। वेदप्रकाश सुमन, हरिओम बेचैन, एवं कवि सम्मेलन का संचालन कर रहे पदम सिंह अलबेला (अलीगढ़) ने मंच से भाव विभोर होकर समवेत स्वर में कहा कि डॉ. दुबे के माध्यम से इस अंचल का नाम समूचे हिन्दुस्तान में रोशन होगा। चकाचौंध ज्ञानपुरी (वाराणसी), लक्ष्मण मस्तुरिया (रायपुर) तथा राममूरत शुक्ला (रायपुर) ने भी अपनी रचनाएं पढ़ीं। मुख्य अतिथि की आसंदी से पुलिस उप महा निरीक्षक भिलाई रेंज ए.एन. सिंह उपस्थित थे तथा अध्यक्षता संभागायुक्त ए.डी. मोहिले ने की। कार्यक्रम दो दौर में संपन्न हुआ।
प्रारंभ में पदम सिंह अलबेला ने लक्ष्मण मस्तुरिया को कविता पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। मस्तुरिया ने शुरुआत एक गंभीर रचना से की-
बढ़ते कदम हों तो उत्कर्ष है जीवन
भटकते कदम हों तो दूभर है जीवन
मिलकर चलोगे तो उत्सव है जीवन
अकेले चलोगे तो महोत्सव है जीवन
इसके पश्चात् मस्तुरिया ने जो रचना पढ़ी उसमें छत्तीसगढ़ की माटी की महिमा का वर्णण था। उनके व्दारा पढ़ी गई एक छत्तीसगढ़ी कविता जो राजनीति के गिरते हुए स्तर पर केन्द्रित थी श्रोताओं व्दारा सराही गई। उन्होंने आरक्षण जैसी जातिगत समस्या पर भी कविता पढ़ी।
सरकारी हॉस्पिटल के डॉक्टर के सामने एक शिक्षक की पीड़ा किस तरह उभरकर सामने आती है उसका वर्णण डॉ. सुरेन्द्र दुबे ने कुछ यूं किया-
गरीबों की समस्याओं में
कौन सा कोहिनूर जुड़ेगा
मेरे बेटे का लीवर नहीं
तो और क्या बढ़ेगा
सरस्वती का पुजारी हूं
उतारता हूं आरती
बेटा मेरा है
खाता है बाल भारती
कवि की व्यथा को डॉ. दुबे ने अपनी रचना के माध्यम से कुछ इस तरह कहना चाहा-
जहां तेरा वजूद किश्तों में बिकता है
बावला है रे तू कविता लिखता है
गरीबी के लिए बिक
महंगाई के लिए बिक
इसके बाद अगर
जिंदा बच जाए
तो फिर कविता लिख
डॉ. दुबे की काव्य रचना ‘राजघाट पर खड़ा युवक’ एवं ‘रुकावट के लिए खेद है…’ श्रोताओं व्दारा काफ़ी सराही गई।
डॉ. दुबे के बाद चकाचौंध ज्ञानपुरी माइक्रोफोन पर आए। उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से देश के कुछ जाने-माने नेताओं पर व्यंग्य किया-
बिहार के लालू व यूपी के मालू को
मैंने अपनी कुछ कविताएं
आरक्षण, महंगाई, राम जन्म भूमि पर सुनाई
पर दोनों के समझ में न आई
थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा
चकाचौंध जी क्या आपने
कविता सुनाई
मैंने कहा, नहीं…
भैंस के आगे बीन बजाई
चकाचौंध ने राजनीति पर अपना निशाना साधते हुए कुछ
और पक्तियां पढ़ीं-
धोबी ने निकाला इश्तिहार
मूझे पूरा एतबार
कि यहीं कहीं संसद के आसपास
मेरा गधा खो गया है
मुझे डर है कि कहीं
वह नेता तो नहीं हो गया है
इसके पश्चात् आगे का मोर्चा वेदप्रकाश सुमन ने संभाला। उन्होंने कविता के माध्यम से राजनीति के गिरते स्तर की बधिया उधेड़ी। रूबिया मुफ्ती अपहरण कांड पर कवि ने अपनी भावनाओं को कुछ इस तरह व्यक्त किया-
कैद पड़े विद्रोहियों को
आसान रिहा कर डाले
क्या सोच रखा था जो
फांसी के हत्यारों को
रिहा कर डाले
देश और बेटी दोनों में
बेटी को बड़ा मानकर
रुबिया की ख़ातिर
गद्दार रिहा कर डाले
नवाज़ शरीफ़ पर अपनी कविता के माध्यम से वेदप्रकाश सुमन ने कुछ इस तरह प्रहार किया-
उन शहीदों की वो
तस्वीर नहीं दे सकते
राणा सांगा की वो
शमशीर नहीं दे सकते
नवाज़ कान खोलकर सुन ले
प्राण दे सकते हैं
पर कश्मीर नहीं दे सकते
देश के पिछड़ेपन की तस्वीर पर सुमन जी की चिंता उनकी कविताओं में झलकती है-
जैसा तूम कहते थे
वैसा स्वर्ण बिहान नहीं लगता
ये जनता की उम्मीदों का
हिन्दुस्तान नहीं लगता
गुरु ग्रंथ, बाइबिल की
ये पहचान नहीं लगता
गीता जैसे ग्रंथ का
ये हिन्दुस्तान नहीं लगता
हरिओम बेचैन ने अपनी राजनीति के बिगड़ते स्वरुप व सामाजिक पतन को बड़े ही सुन्दर ढंग से अपनी हास्य रचना में समेटा
डाकुओं के लिए
एक विख्यात प्रांत के
एक कुख्यात डाकू ने
एक सुविख्यात नेता के सामने
आत्मसपर्पण किया
अख़बार वालों ने इसे
मुख्य पृष्ठ पर दिया
अख़बार को देख
एक अबोध ने पिता से पूछा
इन दोनों में डाकू कौन है