■ अनिरुद्ध दुबे
छत्तीसगढ़ी सिनेमा का मील का पत्थर कहलाने वाली फ़िल्म ‘मोर छंइहा भुंईया’ के निर्देशक सतीश जैन को छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस पर आयोजित राज्योत्सव में किशोर साहू सम्मान (राष्ट्रीय) से नवाज़ा गया है। जिन लोगों की सतीश जैन के सिनेमाई सफ़र पर बारीक नज़र रही है, उनका कहना है कि राज्य या राष्ट्रीय स्तर के सम्मान के वे काफ़ी पहले से हक़दार थे। ख़ैर, देर आयद दुरुस्त आयद। 6 नवम्बर की ख़ुशनुमा शाम में नया रायपुर के मेला स्थल पर आयोजित अलंकरण समारोह में उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जैन को किशोर साहू सम्मान से सम्मानित किया। इस शाम को सतीश जैन के उस साक्षात्कार की याद हो आई जिसे मैंने जून 2010 में लिया था। राजधानी रायपुर से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक अख़बार ‘हाईवे चैनल’ में इसका 3 जून 2010 को प्रकाशन हुआ था। जैन व्दारा 14 वर्षों पहले कही गई कुछ बातों का आज भी अपनी जगह अलग महत्व मालूम पड़ता है। पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए वह साक्षात्कार एक बार फिर आप सबके सामने ससम्मान प्रस्तुत है-
कोई ऐसी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बनाए
कि उसे सरकारी अवार्ड मिले
■ (3 जून 2010 को प्रकाशित हुआ इंटरव्यू )
रायपुर। छत्तीसगढ़ी फ़िल्म निर्देशक सतीश जैन साफ़ बोलने में यक़ीन रखते हैं। उनका कहना है- “मैं मसाला फ़िल्में बनाता हूं। मसाला फ़िल्मों का अलग ही दर्शक वर्ग है। छत्तीसगढ़ में हिन्दी व अंग्रेजी फ़िल्में देखने का शौक रखने वाले छत्तीसगढ़ी फ़िल्में भी देखें, इसके लिए उनका विश्वास हासिल करना ज़रुरी है। ये तभी हो सकेगा कि कोई उस लेवल की छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बनाये, जिसे सरकार की ओर से अवार्ड मिले। उस छत्तीसगढ़ी फ़िल्म को देखने हर तरह का दर्शक वर्ग थियेटर पहुंचेगा। मुझे उस वक़्त का इंतज़ार है।“
सतीश जैन द्वारा निर्देशित छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘टूरा रिक्शा वाला’ कल प्रदर्शित होने जा रही है। ये पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म होगी जो सिनेमाघरों के साथ राजधानी रायपुर के एक मल्टीप्लेक्स में भी लगने जा रही है। ‘टूरा रिक्शा वाला’ को लेकर जैन काफी उत्साहित हैं। ‘हाईवे चैनल’ से ख़ास बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि “टूरा रिक्शा वाला अपने तरह की अलग फ़िल्म है। ये आम आदमी की कहानी है। ऐसा नहीं है कि हमने ये फ़िल्म केवल रिक्शा चलाने वालों के लिए बनाई है। फ़िल्म का हीरो रिक्शा चलाने वाला है। उसे हमने आम आदमी के प्रतीक के रुप में पेश किया है। ये फ़िल्म सच्चाई के काफ़ी क़रीब है। मेरी इसके पहले की फ़िल्म ‘मया’ प्रेम कहानी थी। उसमें दो भाई थे। ‘मया’ ही क्यों, मेरी ‘मोर छंइहा भुंइया’ दो एवं ‘झन भूलौ मां बाप ला’ तीन भाइयों की कहानी थी। ‘टूरा रिक्शा वाला’ में हीरो का ना कोई भाई है, न बाप। ये प्रेम कहानी है। मेरी पहले की फ़िल्मों के गाने फ़िल्म लगने के बाद हिट हुए थे। ‘रिक्शा वाला’ के गाने इसके सिनेमा हॉल पहुंचने के पहले ही हिट हो गए हैं।“
छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों के लिए यह समय कैसा है? इस सवाल पर जैन कहते हैं- “बहुत बढ़िया टाइम है। उम्मीदों से भरा है। ‘मोर छंइहा भुंईया’ लगने के बाद बहुत से लोगों को लगा फ़िल्म बनाकर कमाई कर लेंगे। ज़्यादातर लोगों ने ऐसे लोगों को साथ जोड़कर फ़िल्म बनाना शुरु कर दिया था जो फ़िल्म लाइन के बारे में कुछ नहीं जानते थे। फिल्मों में भी भाई-भतीजावाद चल पड़ा था। इससे छत्तीसगढ़ी फिल्मों का जो शुरु में माहौल बना था उसे गहरा झटका लगा। अब लोगों को हक़ीक़त समझ में आ गई है। कहानी पर मेहनत हो रही है। संगीत पर मेहनत हो रही है। हमने ‘मया’ छत्तीसगढ़ के ही टेक्नीशियनों को लेकर बनाई। छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों का दौर जो लौट आया वह थमने वाला नहीं है। एक और फिल्म ‘महूं दीवाना तहूं दीवानी’ काफी मेहनत के साथ बनाई जा रही है। लोग कहते हैं कि हम मुम्बईया स्टाइल की फ़िल्में बना रहे हैं। मैं इससे आगे जाकर कहता हूं हम हॉलीवुड स्टाइल में फ़िल्में बना रहे हैं। इस दौर में पूरे विश्व में समान टेक्नीक, समान पैटर्न पर फ़िल्में बन रही हैं। लोग कह देते हैं कि जिस फ़िल्म में करमा, ददरिया व पंथी नृत्य न हो वो छत्तीसगढ़ी फ़िल्म कैसे कहला सकती है। मेरी फ़िल्म के हीरो-हीरोइन मॉर्डन कपड़े पहनते हैं पर वे छत्तीसगढ़ की परम्परा में ही जीते नजर आते हैं। मैंने कभी छत्तीसगढ़ की परम्परा से हटकर काम नहीं किया। ‘झन भूलौ मां बाप ला’ बना रहा था तो इसके कलाकार आशीष शेंद्रे व चंद्रकला को कहा था 15 दिन गांव जाकर रहो। उन दोनों का कहना था हमें गांव मत भेजिये। हम अपने अभिनय में गांव वाली बात ले आएंगे। मेरा कहना था जब तक गांव को क़रीब से नहीं जियोगे तुम्हारी बॉडी लैंग्वेज में गांव वाली बात नहीं आएगी। खेत में हल चलाते समय बैल भी अपने पास तभी फटकने देता है जब उससे आपकी दोस्ती हो। आशीष व चंद्रकला को मेरी बात मानकर पंद्रह दिन गांव में रहना पड़ा। दोनों ने ही ‘झन भूलौ मां बाप ला’ में ग्रामीण परिवेश वाले चरित्र को अच्छे से जिया।“
ज़्यादातर फिल्मों में हीरो अनुज शर्मा ही नज़र आ रहा है। छत्तीसगढ़ में हीरोइन के लिए नई लड़कियां भी नहीं मिल रही हैं, ऐसा क्यों? यह पूछने पर सतीश जैन ने कहा कि “ज़्यादातर लोग अनुज को इसलिए हीरो की भूमिका में ले रहे हैं कि वह बिकाऊ है। लड़कियों की बात है तो छत्तीसगढ़ में प्रतिभाशाली लड़कियों की कमी नहीं है। मां-बाप की सोच नहीं बदली है। हिन्दी फ़िल्म का ऑफर आए तो मां-बाप एक झटके में काम करने की अनुमति दे देंगे। छत्तीसगढ़ी फ़िल्म की बात आती है तो मां-बाप कह देते हैं- रहने दो। छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लेकर लोगों की आज जो सोच है वह आगे जाकर बदलेगी। पड़ोसी राज्य उड़ीसा की बात कर लें। वहां ऐसा दौर आ चुका है कि लोग हिन्दी की बजाय उड़िया फ़िल्में ज़्यादा देख रहे हैं। महाराष्ट्र में मराठी फ़िल्में मल्टीप्लेक्स में लग रही हैं।“
आप मुम्बई में रहकर हिन्दी फ़िल्मों की कहानी लिखा करते थे। फ़िल्में छत्तीसगढ़ी में बनाईं। क्या कभी हिन्दी फ़िल्म भी बनाएंगे? यह पूछने पर उन्होंने कहा- “अभी ऐसा कुछ सोचा नहीं है। मन हुआ तो 4-5 साल बाद हिन्दी फ़िल्म बनाऊंगा।“
सतीश जैन के साथ साक्षात्कारकर्ता अनिरुद्ध दुबे