■ अनिरुद्ध दुबे
छत्तीसगढ़ विधानससभा के पुराने भवन में एक दिवसीय बिदाई सत्र हाल ही में हुआ। इस पुराने भवन ने 4 मुख्यमंत्री अजीत जोगी, डॉ. रमन सिंह, भूपेश बघेल एवं विष्णु देव साय देखे। विधानसभा अध्यक्ष की बात करें तो डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल से लेकर प्रेमप्रकाश पांडे, धरमलाल कौशिक, गौरीशंकर अग्रवाल, डॉ. चरणदास महंत एवं डॉ. रमन सिंह जैसी हस्तियां इस पद पर आसीन हुईं। फिर डॉ. रमन सिंह को तो इस पुराने भवन में मुख्यमंत्री एवं विधानसभा अध्यक्ष दोनों भूमिकाओं में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद को मिटा देने का लक्ष्य रखा है। सितम्बर महीने से बड़े नक्सली लीडरों के मारे जाने का सिलसिला जो शुरु हुआ वो अब तक जारी है। विशेषकर 1 करोड़ से अधिक के ईनामी नक्सली माड़वी हिड़मा के मारे जाने ख़बर तो राष्ट्रीय स्तर पर अब तक दौड़ रही है। इसी पुराने विधानसभा भवन में डॉ. रमन सिंह के पहले मुख्यमंत्रित्वकाल में नक्सलवाद के मुद्दे पर क्लोज़ डोर (बंद दरवाज़ा) मीटिंग हुई थी, जिसमें सिर्फ़ अध्यक्ष और विधायकगण हिस्सा लिए थे। क्लोज़ डोर मीटिंग में विधायकों एवं विधानसभा सचिवालय स्टाफ को छोड़ सदन में अन्य किसी को मौजूद रहने की अनुमति नहीं होती। 2001 में जब पुराना विधानसभा भवन अस्तित्व में आया था, लोग एक और शब्द से परिचित हुए थे- ज़ीरो प्वाइंट। पुराने विधानसभा भवन की चहारदीवारी से लगे चौक को ज़ीरो प्वाइंट माना गया। कुछ सालों तक ज़ीरो प्वाइंट शब्द लिखने, पढ़ने और बोलने में काफ़ी आते रहा लेकिन बाद में इसकी गूंज कम होती चली गई।
विधानसभा- 2, तो नया
विधानसभा भवन 5 साल
पहले ही बन गया होता
पुराने विधानसभा भवन का एक दिवसीय समापन सत्र एक ही महत्वपूर्ण एजेंडे ‘छत्तीसगढ़ विधानसभा के पच्चीस वर्षों की संसदीय यात्रा’ पर केन्द्रित था। चर्चा में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय समेत नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के अलावा और भी लोगों ने हिस्सा लिया। 25 वर्षों की संसदीय यात्रा पर सदन के भीतर सर्वप्रथम पूर्व मंत्री एवं सत्ता पक्ष के वरिष्ठ विधायक अजय चंद्राकर को बोलने का अवसर मिला और उनका भाषण यादगार बन गया। वैसे तो चंद्राकर व्दारा कही गई हर लाइन महत्वपूर्ण थी, लेकिन वह लाइन एक तरह से न जाने कितने ही लोगों के लिए नई जानकारी थी, जिसमें उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष डॉ. रमन सिंह को स्मरण कराते हुए कहा कि “आपके मुख्यमंत्री कार्यकाल में एक बार मुझे संसदीय कार्य मंत्री की भूमिका निभाने का भी अवसर मिला था। तब मैंने नये विधानसभा भवन की ज़रूरत को आपके सामने कितनी ही बार रखा। यदि उस समय कदम आगे बढ़ गए होते तो नया विधानसभा भवन 5 साल पहले ही बनकर तैयार हो गया होता।“
विधानसभा- 3, इस
उम्र में पहला मौका
पुराने विधानसभा भवन में हुए अंतिम सत्र शुरु होने से पहले वहां की लॉबी में हास-परिहास के क्षण भी देखने मिले। लॉबी में पूर्व मंत्री एवं वरिष्ठ विधायक राजेश मूणत कुछ लोगों से सामान्य बातचीत करते हुए खड़े थे। तभी वहां दूसरे पूर्व मंत्री एवं वरिष्ठ विधायक अजय चंद्राकर का पहुंचना हुआ। मूणत ने कहा- “क्या बात है, इतना पहन-ओढ़ के।“ चंद्राकर ने कहा- “क्या करूं बुखार है, इसलिए कपड़े पर कपड़े हैं, फिर सदन में सबसे पहले बोलने की ज़िम्मेदारी भी मुझे दे दी गई है।“ मूणत ने मज़ाकिया लहज़े में कहा- “इस उम्र में भी पहला मौका मिल रहा है और क्या चाहिए…”
विधानसभा- 4, मेरे
कदम ही लकी
पुराने विधानसभा भवन के अंतिम सत्र शुरु होने से पहले लॉबी में कुछ लोगों से बातचीत करते खड़े विधायक राजेश मूणत की अपनी पार्टी के विधायक सुनील सोनी से सामना हुआ। मूणत ने कुछ कहना शुरु किया ही था कि सोनी कह बैठे- “मेरे कदम बड़े ही सौभाग्यशाली होते हैं। जब मैं महापौर था नगर निगम का नया भवन व्हाइट हाउस बना। अब विधायक बना हूं तो नये विधानसभा भवन का लोकार्पण हो गया।“
विधानसभा- 5, शोक दे
गया शैलेन्द्र का चले जाना
पुराने विधानसभा भवन के एक दिवसीय समापन सत्र वाला दिन कई बेहतरीन यादों के साथ एक ग़मगीन याद भी छोड़ गया। विधानसभा की रिपोर्टर (प्रतिवेदन) शाखा पद में पदस्थ शैलेन्द्र पटवा समापन सत्र वाले दिन सुबह ड्यूटी पर जाने तैयार होकर निकले थे। इसके पहले कि वे विधानसभा जाने के लिए विभाग की बस पकड़ पाते उन्हें ज़बरदस्त हार्ट अटैक आया और कुछ ही देर में उनके प्राण छूट गए। शैलेन्द्र विधानसभा में सेवाएं देने से पहले पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े थे। उन्होंने दैनिक अख़बार में सेवाएं दी थीं। उनके पिता राम पटवा विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत के काफ़ी क़रीबी लोगों में से हैं। राम पटवा का साहित्य के क्षेत्र से भी जुड़ाव है और छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग का वे अहम् हिस्सा हैं। विधानसभा सत्र का समापन सत्र शुरु होने से पहले जैसे ही वहां शैलेन्द्र के न रहने की ख़बर पहुंची उन्हें क़रीब से जानने लोग गहरा दुख व्यक्त करते नज़र आए।
जिस आंध्रा से छत्तीसगढ़
आया नक्सलवाद,
वहीं मारा गया हिड़मा
रिटायरमेंट की उम्र कहीं पर 60, कहीं पर 62 तो कहीं पर 65 है। नक्सलवाद या माओवाद शायद ही रिटायरमेंट की उम्र पूरी कर पाए। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक नक्सली समस्या समाप्त करने का लक्ष्य जो निर्धारित कर रखा है। 1967 में पश्चिम बंगाल से उपजा नक्सलवाद 58 की उम्र में ढेर होता नज़र आ रहा है। वैसे तो पिछले कुछ महीनों से लगातार बड़े नक्सली नेताओं का एनकाउंटर होते आ रहा है, लेकिन माड़वी हिड़मा का मारा जाना देश भर के मीडिया में छाया हुआ है। विधि का विधान देखिए, नक्सलवाद पश्चिम बंगाल से आंध्र प्रदेश होते हुए छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में आया था और उसी आंध्र प्रदेश के एलूरी सीताराम राजू (एएसआर) जिले के मरेडमिल्ली जंगल में खूंख़ार नक्सली लीडर हिड़मा की मौत लिखी थी। 18 नवंबर की सुबह हिड़मा जब सूरक्षा जवानों की गोलियों से मारा गया, उसके बाद से आज तारीख़ तक प्रिंट, इलेक्ट्रानिक, डिजिटल व सोशल मीडिया पर अलग-अलग एंगल से समीक्षाओं का दौर जारी है। इसमें कोई दो मत नहीं कि बरसों से अभिशप्त रहा बस्तर नये युग में प्रवेश करने जा रहा है। नये युग में बस्तर में आगे किस तरह के परिवर्तन देखने मिलेंगे यह कौन नहीं जानना और समझना चाहेगा!
मनीष कुंजाम- दर्द
भी, दवा भी…
नक्सली लीडर माड़वी हिड़मा के अंतिम संस्कार के बाद पूर्व विधायक व कम्युनिस्ट पार्टी के नेता मनीष कुंजाम मीडिया से मुख़ातिब हुए। मनीष कुंजाम ने सवाल पर सवाल खड़े किए। विशेषकर आंध्र प्रदेश के नक्सली नेताओं को लेकर! कुंजाम ने सीधे सपाट लहज़े में कहा कि “हिड़मा को आंध्र प्रदेश के ही दूसरे बड़े नक्सली लीडर देव जी ने मरवा डाला।“ कुंजाम ने आगे कहा कि “हिड़मा समेत सुकमा व बीजापुर के नक्सली लड़कों को देव जी आंध्रा ले गया। वहां इन लड़कों को गिरफ़्तार कर लिया गया।“
अपने-अपने ढंग से मीमांसाओं का दौर जारी है लेकिन सवाल यह कि मनीष कुंजाम को आख़िर अपनी बात रखने क्यों सामने आना पड़ा! मनीष कुंजाम कोई आज से नहीं काफ़ी पहले से सुर्खियों में रहते आए हैं। याद करिये जब अप्रैल 2012 में भरी दोपहरी में बीच बाज़ार से बस्तर के सुकमा जिले में पदस्थ रहे तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को नक्सली उठा ले गए थे। मेनन को नक्सलियों से छुड़ाने तत्कालीन भाजपा सरकार की ओर से विभिन्न स्तरों पर पहल हुई थी। चूंकि मेनन अस्थमा के मरीज़ थे अतः उनका स्वास्थ्य शासन तथा प्रशासन सभी के लिए गहरी चिंता का कारण बन गया था। तब तत्कालीन भाजपा सरकार के अनुरोध पर मनीष कुंजाम ने दुर्गम रास्तों से होते हुए घने जंगलों में जाकर एलेक्स पॉल तक दवाएं पहुंचाने का काम किया था। तब अपने स्तर पर तत्कालीन सरकार ने जो भी प्रयास किए थे वो काम आए और नक्सलियों ने एलेक्स पॉल को बिना किसी शर्त के छोड़ दिया था।

