● कारवां (2 जुलाई 2023)- बाबा को ‘उप कप्तानी’… क्या हैं मायने…

■ अनिरुद्ध दुबे

टी.एस. सिंहदेव को छत्तीसगढ़ का उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की ख़बर ने जबरदस्त हलचल पैदा कर दी है। छत्तीसगढ़ में उप मुख्यमंत्री जैसा प्रयोग पहली बार हुआ है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार में ज़रूर उप मुख्यमंत्री वाला प्रयोग हुआ था। वो भी एक नहीं दो उप मुख्यमंत्री। प्यारेलाल कंवर एवं सुभाष यादव। माना यही जाता रहा था कि आदिवासी समीकरण को साधने कंवर तथा पिछड़ा वर्ग को अपनी तरफ जोड़े रखने यादव को उप मुख्यमंत्री बनाया गया था। 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से छत्तीसगढ़ में ढाई-ढाई साल वाली चर्चा होते रही थी। कांग्रेस का कोई बड़ा नेता कभी इस बात की पुष्टि नहीं किया करता था, लेकिन बातें यही होते रहती थी कि दिल्ली वालों ने तय किया है कि ढाई साल भूपेश बघेल एवं ढाई साल टी.एस. सिंहदेव मुख्यमंत्री रहेंगे। जब ढाई साल का समय गुजर चुका था और सिंहदेव से इस बात को लेकर सवाल पर सवाल होने लगे थे तो उन्होंने एक बार यह ज़रूर कहा था कि “पता नहीं बंद कमरे की बातें बाहर कैसे आ जाती हैं!“ इस लाइन में उनका आशय साफ था। अब जबकि चुनाव को क़रीब 5 ही महीने बचे हैं सिंहदेव जिन्हें प्यार से बाबा कहकर पुकारा जाता है को उप मुख्यमंत्री बनाया जाना चौंका गया। राजनीति की गहरी समझ रखने वाले यही कहते हैं कि बाबा चाहते तो उप मुख्यमंत्री कब का बन जाते। वे तो ढाई-ढाई साल वाला फार्मूला अमल हो यह चाह रहे थे। छत्तीसगढ़ के एक बड़े चैनल ने ढाई साल का समय निकल जाने के बाद बाबा से बाइट लेते हुए पूछा था कि आपके उप मुख्यमंत्री बनने की कोई संभावना? उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि “इसकी कोई संभावना नहीं है।“ राजनीति अनिश्चितता का क्षेत्र है। इसमें वह बड़ा भी घट जाता है जिसकी दूर-दूर तक संभावना नहीं होती। 2018 के चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद जब मंत्रि मंडल में विभागों का बंटवारा होने जा रहा था तब बाबा ने ‘वित्त मंत्री’ बनने की इच्छा प्रकट की थी जो कि नहीं हो पाया। ‘वित्त’ को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने पास ही रखा। बाबा को स्वास्थ्य एवं पंचायत मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई। हालांकि बाबा ने बाद में पंचायत मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था और स्वास्थ्य मंत्री पद पर बने रहे। गौर करने लायक बात यह है कि 2018 के चुनाव से पहले भूपेश बघेल जहां प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे वहीं बाबा विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष थे। इस तरह दोनों के पास बड़ी जिन्मेदारियां थीं। बघेल ने अध्यक्ष रहते हुए में तत्कालीन भाजपा सरकार के खिलाफ़ ज़मीनी स्तर पर कितनी ही लड़ाइयां लड़ीं, वहीं विधानसभा चुनाव के समय में चुनावी घोषणा पत्र तैयार करने का बड़ा काम बाबा के कंधों पर था। यही कारण है कि इन दोनों नेताओं के लिए जय बीरू की जोड़ी का जुमला चल पड़ा था। बहरहाल दिल्ली में बैठे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने बाबा को उप मुख्यमंत्री बनाने का जो निर्णय लिया उसे अलग-अलग एंगल से देखा जा रहा है। बीच में यह ख़बरें आती रही थीं कि भाजपा एवं आम आदमी की पार्टी ने बाबा से संपर्क किया। मीडिया व्दारा प्रश्न किए जाने पर बाबा ने हर बार यही कहा कि “कांग्रेस छोड़कर कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता” लेकिन तरह-तरह की ख़बरें तो हवाओं में रहती ही थीं। जब चुनाव नज़दीक है तब ‘सत्य’ को जानने वाले दिल्ली के नेता अच्छी तरह समझ पा रहे थे कि जाने-अनजाने बाबा की और उपेक्षा पार्टी की सेहत के लिए नुकसानदेह हो सकती है। फिर बाबा उस सरगुजा संभाग में पकड़ रखने वाले नेता माने जाते हैं जहां की 14 की 14 विधानसभा सीटें 2018 के चुनाव में कांग्रेस के खाते में गईं। भाजपा को निश्चित रूप से आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर तथा सरगुजा की सीटें खो देने का सख़्त मलाल होगा। दोनों ही संभागों में अपना खोया हुआ जनाधार पाने भाजपा की ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही है। स्वाभाविक है ऐसे में कांग्रेस सरगुजा में अपनी पकड़ ढीली नहीं होने देना चाहेगी और बाबा को उप मुख्यमंत्री बनाकर सरगुजा में यही संदेश देने की कोशिश की गई है कि उनका क्या महत्व है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भूपेश बघेल पूरे देश में एक बड़ा चेहरा बन चुके हैं। पिछले आठ-दस वर्षों में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों पर गौर कर लें, सत्ता के क़रीब पहुंचने भाजपा एक से बढ़कर एक दांव चलते नज़र आती रही। ‘साम दाम दंड भेद’ वाली बात भी कहीं-कहीं पर चरितार्थ होती दिखती रही। हो सकता है कि इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए दिल्ली के वरिष्ठम कांग्रेस नेताओं ने महसूस किया होगा कि छत्तीसगढ़ में कप्तान के साथ उप कप्तान की भी ज़रूरत है। वैसे भी बाबा मीडिया के समक्ष कह चुके हैं कि “बघेल कप्तान और मैं उप कप्तान।“

‘सेवक’ नहीं बदला

‘शेर’ ‘भक्षक’ हो गया

सोशल मीडिया में इन दिनों एक विज्ञापन ख़ूब दौड़ रहा है। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की फोटो है तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की। डॉ. रमन के चेहरे के बाजू लिखा है ‘भक्षक’ और बघेल के चेहरे के बाजू ‘सेवक।‘ डॉ. रमन की फोटो के नीचे घोटालों का विवरण है तो बघेल की फोटो के नीचे उपलब्धियों का। देखा जाए तो इस एड में कोई नयापन नहीं है। पहले भी इससे मिलता-जुलता एड सामने आया था। 2013 के विधानसभा चुनाव के समय की बात है। तब अजीत जोगी कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा माने जाते थे। 2013 के चुनाव के मतदान के ठीक पहले समाचार पत्रों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। उसमें एक तरफ अजीत जोगी का चेहरा था तो दूसरी तरफ तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का। जोगी की फोटो ब्लेक एंड व्हाइट में शो की गई थी और डॉ. रमन की रंगीन। तस्वीर में जोगी रहस्यमयी तरीके से तिरछा देखते नज़र आ रहे थे और डॉ. रमन हाथ जोड़े मुस्कराते दिख रहे थे। जोगी की तस्वीर के नीचे लिखा था “मैं छत्तीसगढ़ का शेर हूं” और डॉ. रमन की तस्वीर के नीचे छपा था “मैं छत्तीसगढ़ का सेवक हूं।“ अभी जो एड चल रहा है उसमें दिमाग लगाने वालों ने यह किया है कि जोगी की जगह डॉ. रमन की लाल आंखों वाली तिरछे देखते हुए तस्वीर ला दी है और बघेल मुस्कराते दिख रहे हैं। इसे देखकर अंदाज़ा यही लगाया जा रहा है कि पात्र पुराना है, उसमें परोसी गई चीज़ नई है।

साय को बड़ा आसन

के पीछे बड़ा मैसेज

“बीते दिनों की याद थी जिनमें

मैं वो तराने भूल चुका

आज नई मंज़िल है मेरी

कल के ठिकाने भूल चुका”

वरिष्ठ आदिवासी नेता नंद कुमार साय पर किसी गीत की यह लाइन मानो एकदम फिट बैठती है। उल्लेखनीय है कि भारतीय जनता पार्टी में कभी रहते हुए छत्तीसगढ़ विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष, लोकसभा सांसद, राज्यसभा सदस्य एवं अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में पार्टी प्रमुख जैसे पदों पर रह चुके नंद कुमार साय ने कुछ ही हफ़्ते पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया। साय आदिवासी बहुल सरगुजा संभाग से हैं और उन्हें अपनी तरफ मिलाकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भाजपा को बड़ा झटका दिया है। यही नहीं उन्हें अब छत्तीसगढ़ औद्योगिक विकास निगम (सीएसआईडीसी) के अध्यक्ष पद पर बिठाकर कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दे दिया गया है। किसी भी पार्टी की सरकार बनाने में आदिवासी बहुल क्षेत्र सरगुजा एवं बस्तर क्षेत्र के मतदाताओं की अहम् भूमिका रहती आई है। अब जबकि विधानसभा चुनाव को क़रीब 5 महीने बचे हैं कांग्रेस एवं भाजपा दोनों ही पार्टियों ने इन दोनों संभागों में अपनी ताकत झोंक दी है। भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं का इन्हीं दो संभागों में लगातार हो रहा दौरा यह समझने के लिए काफ़ी है कि अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही है। वहीं साय को बड़े पद पर बिठाकर कांग्रेस की तरफ से सरगुजा एवं बस्तर तरफ यही मैसेज देने की कोशिश हुई है कि आदिवासियों की असली शुभचिंतक वही है। निश्चित रूप से बस्तर एवं सरगुजा का मतदाता तेजी से बदल रहे घटनाक्रम को लेकर विचार की मुद्रा में होगा। जहां तक किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की बात है तो उसके लिए अभी पांच महीने का समय शेष है।

ठीक लोकसभा चुनाव से

पहले आएगी ‘बस्तर’

‘सलवा जुडूम’ नाम से वेब सीरिज़ बनेगी इस घोषणा को अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं कि एक और नई घोषणा हो गई- बस्तर की नक्सली समस्या पर फ़िल्म बनेगी। फ़िल्म का नाम ‘बस्तर‘ ही होगा। यह घोषणा देश भर के अख़बारों की सुर्खियां बन गई। ‘बस्तर’ को प्रोड्यूस करेंगे विपुल अमृतलाल शाह एवं निर्देशित करेंगे सुदीप्तो सेन। फ़िल्म के रिलीज़ की तारीख़ की भी घोषणा कर दी गई है- 5 अप्रैल 2024। यानी 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव से ठीक पहले। ऐसे में चुनावी माहौल तो गरमाएगा ही। उल्लेखनीय है कि विपुल शाह एवं सुदीप्तो सेन की जोड़ी इससे पहले ‘द केरला स्टोरी’ बना चुकी है जो कि काफ़ी विवादों में रही। अभी का दौर ऐसा है कि जिस फ़िल्म के साथ विवाद जुड़ जाए उसे देखने लोग सिनेमा हॉल की तरफ भाग पड़ते हैं। जहां तक ‘सलवा जुडूम’ वेब सीरीज़ की बात है तो इसे टिप्स फ़िल्म के कुमार तौरानी एवं अभिषेक दुधैया मिलकर बना रहे हैं। उल्लेखनीय कि सलवा जुडूम अभियान का सीधा संबंध नक्सली समस्या से निपटने को लेकर था, जो कि बुरी तरह फेल रहा। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने तो इस अभियान को लेकर कड़ी फटकार भी लगाई थी। सर्वविदित है कि सलवा जुडूम को चुनौती मानते हुए नक्सलवादियों ने नेताओं एवं आम आदिवासियों को अपना निशाना बनाया।

4 की कमी खलेगी

नगर निगम में

रायपुर नगर निगम में 3 साल की लंबी पारी खेलने के बाद अपर कमिश्नर अरविंद शर्मा को सहायक मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी बनाकर राज्य निर्वाचन कार्यालय भेजा गया है। वहीं इस आदेश के आने के ठीक एक दिन पहले रायपुर नगर निगम के अधीक्षण अभियंता विनोद देवांगन एवं कार्यपालन अभियंता व्दय सुभाष चंद्राकर तथा हरेन्द्र कुमार साहू रिटायर हुए। चारों क़ाबिल अफ़सरों की कमी नगर निगम में खलेगी। चारों ही अफ़सरों में कुछ ख़ूबियां थीं। ऐतिहासिक गोल बाज़ार के व्यापारियों के मालिकाना हक़ वाले एपिसोड में अरविंद शर्मा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। गोल बाज़ार में नगर निगम की ज़मीन में बैठा कोई व्यापारी जब सवालों की पोटली लेकर निगम पहुंचता तो ज़वाब शर्मा की ओर से बख़ूबी मिलता। निगम मुख्यालय के प्रवेश व्दार के क़रीब ही शर्मा का कक्ष था। कक्ष में शर्मा सभी से सहजता से मिला करते और नियम कानून के रास्ते समाधान ढूंढने की पूरी कोशिश किया करते थे। अधीक्षण अभियंता पद से सेवानिवृत्त हुए विनोद देवांगन की प्रकृति शांत थी। वे निगम के मुख्य कार्यालय में रहे हों या अलग-अलग जोन दफ़्तरों में, जब कभी कोई जटिल परिस्थिति सामने आती शांत भाव से समाधान निकाल लिया करते थे। कार्यपालन अभियंता पद से सेवानिवृत्त हुए सुभाष चंद्राकर एक बार खमतराई क्षेत्र में अवैध कब्ज़ा हटाओ अभियान का नेतृत्व कर रहे थे। कब्ज़ाधारियों ने उन पर हमला कर दिया था। हमले में उनके सिर से ख़ून की धार बह निकली थी और इस घटना को लेकर निगम में बड़ा कर्मचारी आंदोलन हो गया था। यू कहें कि चंद्राकर बाल-बाल बचे थे। कहा जा सकता है कि उनमें साहस की कमी नहीं रही। जितने साल भी निगम में काम किए, बेखौफ़ होकर किए। कार्यपालन अभियंता पद से रिटायर हुए हरेन्द्र नागेश साहू की निगम अफ़सर के अलावा एक ख़ेल राइटर के रूप में भी पहचान रही। उन्होंने ख़ेल पर ‘ओलम्पिक का सफ़रनामा’, ‘विश्व कप क्रिकेट सवाल ज़वाब’ तथा ‘छत्तीसगढ़ के खेल खिलाड़ी’- ये तीन पुस्तकें लिखीं। किसी समय में अख़बारों में लगातार ख़ेलों पर उनके आर्टिकल भी प्रकाशित होते रहे थे।

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