● सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महेश कौल का छत्तीसगढ़ से रिश्ता

■ अनिरुद्ध दुबे

22  एवं 23 अक्टूबर 2016 को राजनांदगांव में मशहूर फ़िल्मकार किशोर साहू जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन हुआ था। कितने ही लोगों ने इस आयोजन से जाना कि किशोर साहू छत्तीसगढ़ से थे। राजनांदगांव शहर से कभी उनका गहरा रिश्ता रहा था। इस आयोजन ने एक और नई चर्चा को जन्म दिया कि जाने-माने फिल्म डायरेक्टर महेश कौल का भी किशोर साहू की ही तरह छत्तीसगढ़ से गहरा रिश्ता रहा।

राजकमल प्रकाशन ने 2016 में किशोर साहू की आत्मकथा का प्रकाशन किया। अपनी आत्मकथा में किशोर साहू एक जगह पर लिखते हैं “मेरी भेंट एक और युवक से हुई, जो उम्र में मुझसे पांच वर्ष बड़ा था। मैं सतरह का रहा हूंगा और वह बाईस का, लेकिन अपने डील-डौल के कारण वह चौबीस-पच्चीस का लगता था। उसका नाम था महेश कौल, जो अब बम्बई में फिल्म दिग्दर्शक है। हॉ, महेश कौल से मैं पहली बार राजनांदगांव की लाइब्रेरी में ही मिला था। महेश ने बाल कुछ लम्बे रखे हुए थे और उनकी कलमें कान तक आती थीं। बोलने का ढंग कुछ अभिनयात्मक था जो औरों पर फौरन प्रभाव डालता था। हमारी दोस्ती गहरी होने में शायद दो दिन भी नहीं लगे होंगे। महेश से मेरी बातों का विषय होता कला, सिनेमा, जीवन, कभी-कभी लड़कियॉ भी। महेश को सिनेमा देखने का शौक था। रायपुर में उन्होंने काफ़ी चित्र देखे हुए थे, हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही। मैं उनके सामने अनाड़ी था। हम लोग घंटों साथ बातचीत करते, गप्पे लगाते। महेश को पढ़ने का शौक था। बहुत ज़ल्द पढ़ा करते थे, शायद एक घंटे में 60 से 70 पृष्ठों तक पढ़ डालते। रोज़ शाम को लाइब्रेरी से दो पुस्तकें- अक्सर उपन्यास- ले जाते और दूसरी शाम उन्हें वापस कर दूसरी दो ले जाते। मैं इसके विपरीत था। पढ़ने का मेरा वेग बहुत ही धीमा है। एक घंटे में 25 पृष्ठों से अधिक नहीं पढ़ पाता, चाहे हिन्दी हो या अंगरेज़ी। कभी कोई वाक्य या वाक्य-रचना या शब्द जंच जाए तो बार-बार आंखें उस पर फेरता, लौटाता हूं, मज़े लेता हूं, सोचता हूं और इस तरह ज़ल्दी नहीं पढ़ पाता।“ किशोर साहू आगे लिखते हैं- “महेश कौल ने धर्म, दर्शन, कला, साहित्य पर कुछ पुस्तकें पढ़ रखी थीं। उन दिनों हमारी परस्पर बातचीत में वे मुझे और कुंजो (कुंजबिहारी चौबे) को बड़े विव्दान प्रतीत होते, उनके बोलने के ढंग से, उनकी नाटकीय भावभंगिमा से हम दोनों प्रभावित होते।“

मनु नायक

ऐतिहासिक छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘घर व्दार’ के डायरेक्टर निर्जन तिवारी एवं ‘कहि देबे संदेस’ के डायरेक्टर मनु नायक ये दोनों ही महेश कौल के काफ़ी क़रीब रहे थे। महेश कौल के बारे में पूछने पर मानो पुरानी धुंधली तस्वीरें मनु नायक की निगाहों के सामने से होकर गुज़रने लगती हैं। नायक बताते हैं- “रायपुर शहर जब काफ़ी छोटा था उससे लगा गुढ़ियारी, गांव की श्रेणी में आता था। गुढ़ियारी में भोला फिनाइल वर्कस नाम से एक फैक्ट्री हुआ करती थी। इसके मालिक भोलानाथ कौल थे। ये भोलानाथ कौल कोई और नहीं महेश कौल के पिता थे। कौल साहब का पूरा नाम महेश्वरनाथ कौल था। जो बाद में शार्ट में महेश कौल हो गया। मुम्बई में कौल साहब ने फिल्म राइटर पंडित मुखराम शर्मा के साथ मिलकर अनुपम चित्रा फ़िल्म निर्माण कंपनी खड़ी की। इस कंपनी ने एक से बढ़कर एक फ़िल्में दीं। बाद में एन.सी. सिप्पी भी इस कंपनी के पार्टनर बने। आगे चलकर सिप्पी बहुत बड़े फिल्म प्रोड्यूसर कहलाए।“ नायक आगे कहते हैं- “कौल साहब की लोकप्रियता डायरेक्टर के रूप में रही, पर यह भी सच है कि वे जितने अच्छे डायरेक्टर थे उतने ही अच्छे अभिनेता भी थे। भारतीय सिनेमा में अमिट छाप छोड़ने वाली फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ में कौल साहब ने महान अभिनेता गुरुदत्त के ससूर का रोल किया था।“

अन्य दूसरे स्त्रोत खंगालने पर पता चलता है कि महेश कौल का जन्म 10 अप्रैल 1911 को जोधपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम विशंभरनाथ कौल एवं माता का नाम चंदू कौल था। भोलानाथ कौल ने उनको गोद (एडॉप्ट) लिया। वे नागपुर के मॉरीस कॉलेज़ में पढ़े। फ़िल्मों में आने से पहले कुछ समय तक पत्रकार रहे। कुछ समय के लिए वे किसी बैंक में ब्रांच मैनेजर भी रहे। एक गीतकार व संवाद लेखक के रूप में उनका सिनेमा जगत में पदार्पण हुआ। फिर एक्टिंग करने लगे। 1941 में बॉम्बे टॉकीज व्दारा निर्मित ‘नया संसार’ में कौल ने अभिनय किया। इस फ़िल्म के हीरो अशोक कुमार एवं हीरोइन रेणुका देवी थीं। इसके बाद देवकी बोस की फ़िल्म ‘अपना घर’ में बतौर अभिनेता दिखे। यह फ़िल्म 1942 में प्रदर्शित हुई थी। 1943 में आई फ़िल्म ‘महात्मा विदुर’ में कौल ने गुरु द्रोणाचार्य की भूमिका में अमिट छाप छोड़ी। इस फ़िल्म के संवाद एवं गीतों पर भी उन्होंने काम किया था। बतौर निर्देशक कौल की पहली फिल्म ‘अंगूरी’ थी, जिसका 1943 में प्रदर्शन हुआ। 1948 में आई ‘गोपीनाथ’ ने कौल को निर्देशक के रूप में स्थापित कर दिया। इस फ़िल्म के हीरो राज कपूर एवं हीरोइन तृप्ति मिश्रा थीं। तृप्ति नाट्य संस्था ‘इप्टा’ की कलाकार थीं। ‘गोपीनाथ’ के बाद कौल व्दारा निर्देशित ‘नौजवान’ ने भी कमाल कर दिया। 1951 में प्रदर्शित हुई इस फ़िल्म के कलाकार प्रेमनाथ, नलिनी जयवंत एवं नवाब थे। इस फ़िल्म को “ठंडी हवाएं लहरा के आएं…” गाने के लिए भी याद किया जाता है। ‘नौजवान’ का संगीत मशहूर संगीतकार एस.डी. बर्मन ने दिया था। कौल का डायरेक्शन का सिलसिला जो शुरु हुआ तो आगे तक जारी रहा। आगे उनके व्दारा निर्देशित ‘जीवन ज्योति’ (1953), ‘अभिमान’ (1957), ‘आख़री दांव’ (1958), ‘तलाक़’ (1958), ‘प्यार की प्यास’ (1961), सौतेला भाई (1962), ‘दीवाना’ (1967), ‘सपनों का सौदागर’ (1968) एवं ‘अग्निरेखा’ (1973) फ़िल्में आईं। ‘तलाक़’ वह फ़िल्म थी, जिसने जुबली कुमार कहलाने वाले हीरो राजेन्द्र कुमार के कैरियर को एक नई ऊंचाई दी थी। वहीं ‘सौतेला भाई’ में गुरुदत्त जैसे महान कलाकार ने अभिनय किया। ‘गोपीनाथ’, ‘सौतेला भाई’ एवं ‘प्यार की प्यास’ ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हें फ़िल्म समीक्षकों (क्रिटिक्स) ने काफ़ी सराहा था। एक मासूम बच्ची पर केन्द्रित फिल्म ‘प्यार की प्यास’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। दुर्भाग्य से यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही। कौल ने ‘कागज़ के फूल’ के अलावा ‘पालकी’ (1967) एवं ‘तेरे मेरे सपने’ (1971) जैसी फ़िल्मों में भी अभिनय किया था। कौल व्दारा निर्देशित ‘सपनों का सौदागर’ के साथ दिलचस्प किस्सा जुड़ा है। पहले इस फ़िल्म में राज कपूर के अपोजिट वैजयंतीमाला थीं। बाद में वैजयंतीमाला फ़िल्म से हट गईं। तब कौल ने हेमा मालिनी को इस फ़िल्म में लिया। ‘सपनों का सौदागर’ हेमा मालिनी की पहली हिन्दी फ़िल्म है। आगे हेमा रुपहले पर्दे पर इस कदर छाईं की उन्हें ड्रीम गर्ल कहा जाने लगा। वर्तमान में वे सक्रिय राजनीति में हैं और मथुरा से भारतीय जनता पार्टी की सांसद हैं। ‘अग्नि रेखा’ निर्देशक के रूप में कौल की आख़री फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के प्रदर्शन से पहले ही 2 जुलाई 1972 को कौल का निधन हो गया। ‘अग्नि रेखा’ का प्रदर्शन 1973 में हुआ। संजीव कुमार एवं शारदा इस फिल्म के कलाकार थे।

बहुत सख़्त डायरेक्टर थे

कौल साहब- रोशन तनेजा

जाने-माने फ़िल्म प्रशिक्षक रोशन तनेजा ने इस लेखक को बताया था- “मैं अमरीका से फ़िल्म की ट्रेनिंग लेकर लौटा तो बतौर सहायक महेश कौल साहब के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वे बहुत बुद्धिमान और अनुशासनप्रिय होने के साथ सख़्त डायरेक्टर थे। मैंने ख़ुद देखा है ‘सौतेला भाई’ की शूटिंग के दौरान करीब 40 रीटेक के बाद गुरुदत्त जैसे बड़े कलाकार के एक शॉट को कौल साहब ने ओके किया था। उनकी फ़िल्म ‘तलाक़’ से ही राजेन्द्र कुमार जैसा अभिनेता फिल्म इंडस्ट्रीज़ में स्थापित हुआ था।“

‘तुलसीदास’ पर फ़िल्म बनाना

चाहते थे- जयप्रकाश चौकसे

जाने-माने फ़िल्म राइटर एवं समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने इस लेखक को बताया था- “महेश कौल जी से मेरी केवल एक ही बार मुलाकात हुई थी  फ़िल्म ‘सपनों का सौदागर’ की शूटिंग के दौरान। वे ‘राम चरित मानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी पर फिल्म बनाना चाहते थे। उनका यह सपना अधूरा रह गया।

फ़क़ीर की तरह थे कौल

साहब- सलीम खान

महेश कौल मशहूर फ़िल्म लेखक सलीम खान के गुरु थे। सलीम साहब से उनके मुम्बई बैंड स्टैंड स्थित निवास में इस लेखक ने महेश कौल जैसी शख़्सियत के संबंध में बातचीत की थी। पुरानी यादों को ताजा करते हुए सलीम साहब ने बताया था कि मैं इंदौर से जब मुम्बई फ़िल्मों में काम करने आया तो कौल साहब जैसे डायरेक्टर का साथ मिलना बड़ी बात थी। उन्होंने मुझे अपनी फ़िल्म ‘दीवाना’ में अभिनय करने का मौका दिया। वह निगेटिव रोल था। कौल साहब काफ़ी ज्ञानी व्यक्ति थे। उतने ही अच्छे इंसान भी। किसी फ़क़ीर की तरह थे। ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ जैसे ग्रंथों का उन्हें गहरा ज्ञान था। ग्लैमर की इस दुनिया में अपना नाम चलाए रखने के लिए कितने ही फ़िल्मकारों व्दारा लॉबिंग करने के उदाहरण मिल जाएंगे। कौल साहब ने इस सब से अपने को दूर रखा। वह अपने काम में तल्लीन रहने वाले व्यक्ति थे। उन्हें कभी किसी अवार्ड की भूख नहीं रही। उन्होंने अभिनेता गुरुदत्त की फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ में उनके ससूर का रोल किया था। इसके अलावा कुछ और भी फ़िल्मों में कौल साहब ने अभिनय किया था।

रोशन तनेजा एवं मनु नायक के साथ अनिरुद्ध दुबे

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