● जाने-माने साहित्यकार संजीव बख्शी ने कहा- ‘भूलन द मेज़’ में उपन्यास की आत्मा बरक़रार रही

■ अनिरुद्ध दुबे

जाने-माने साहित्यकार संजीव बख्शी का उपन्यास ‘भूलन कांदा’ जितना चर्चित रहा उतनी ही चर्चा उस पर बनी फ़िल्म ‘भूलन द मेज़’ को लेकर हो रही है। मनोज वर्मा निर्देशित इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। कई बड़े फेस्टिवल में यह फ़िल्म गई। 27 मई को यह फ़िल्म देश के सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही है। लगा कि बख्शी जी से बातचीत का अवसर क्यों हाथ से जाने दिया जाए…

डायरेक्टर मनोज वर्मा एवं संजीव बख्शी

0 यह बात कहीं पढ़ने में आई थी कि उपन्यास ‘भूलन कांदा’ जब लिखा जा रहा था तभी इस पर फ़िल्म बनाने का निर्णय हो गया था…

00  फिल्म के निर्देशक मनोज वर्मा मुझे मामा जी कहते हैं । उन्होंने अपनी एक फ़िल्म के प्रीमियर पर मुझे आमंत्रित किया था। मैं उस प्रीमियर में गया। मध्यांतर का समय था, मुझे याद है मैं मनोज वर्मा को अपने उपन्यास ‘भूलन कांदा’ के बारे में जानकारी दे रहा था। उस समय ‘भूलन कांदा’ पर मेरा काम चल रहा था। मनोज वर्मा ने संक्षिप्त में किए गए उस वर्णण को सुनने के बाद कहा कि जब भी यह उपन्यास पूरा हो मुझे दीजिए। मैं इस पर फिल्म बनाऊंगा। 2012 में जब ‘भूलन कांदा’ उपन्यास अंतिका प्रकाशन से आया तो सबसे पहले मैंने उसे मनोज वर्मा जी को दिया और उसके बाद उस पर स्क्रिप्ट लिखने का काम उन्होंने प्रारंभ कर दिया। विष्णु खरे जी ने कहा था कि इस उपन्यास पर फ़िल्म बनाना काफ़ी कठिन है। इस पर सत्यजीत रे जैसे निर्देशक फ़िल्म बना सकते हैं। खुशी की बात है कि मनोज वर्मा ने यह साबित कर दिया कि वे एक अच्छी फ़िल्म बना सकते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इस फ़िल्म की और ख़ासकर इसके निर्देशन की काफी चर्चा हुई। उसके बाद इसे नेशनल अवार्ड भी मिला।

0 मनोज वर्मा ने ‘भूलन कांदा’ को रुपहले पर्दे पर आकार दिया। मूल उपन्यास के साथ वे कहां तक न्याय कर पाए…

00 यह प्रश्न मुझे अक्सर पूछा जाता है कि मैं इस फ़िल्म से कितना संतुष्ट हूं? और उपन्यास के साथ निर्देशक ने कितना न्याय किया है? किसी उपन्यास पर फ़िल्म बनाना एक कठिन काम होता है। फ़िल्म बनाने के लिए कसा हुआ पटकथा लेखन सबसे ज़्यादा जरूरी होता है। यही फ़िल्म की रीढ़ की हड्डी होती है। पटकथा लेखन के समय ही यह देखा जाता है कि फ़िल्म बनाने के लिए कितनी स्वतंत्रता लेनी है। उपन्यास को वैसा का वैसा फ़िल्म में नहीं उतारा जा सकता। उसके लिए अलग से कुछ काम किया जाता है। जो परिवर्तन आवश्यक है वह किए जाते हैं और इस तरह फ़िल्म तैयार होती है। मनोज वर्मा ने फ़िल्म बनाते समय जो ज़रूरी परिवर्तन किया जाना था वह किए। उससे मैं संतुष्ट हूं। उनका पटकथा लेखन जब चल रहा था तो बीच-बीच में मैं उनके साथ बैठता था और वे पटकथा सुनाते थे। उपन्यास के सबसे संवेदनशील हिस्से को फ़िल्म में ज्यों का त्यों रखा गया है और उपन्यास की आत्मा को बरक़रार रखा गया है। इस तरह उन्होंने उपन्यास के साथ फ़िल्म बनाते समय पूरा न्याय किया है।

0 ‘भूलन कांदा’ पर एक बड़ी कृति तैयार करने की बात आपके मन में कैसे उपजी…

00 मरवाही में संपत नाम के एक सज्जन ने मुझे सबसे पहले  जानकारी दी थी कि हमारे यहां के जंगल में भूलन कांदा पाया जाता है, जिस पर पर पड़ने से लोग भटक जाते हैं। उन्हें रास्ता नहीं दिखता और कोई आकर छूता है तो रास्ता दिखने लगता है। यह जानकारी मिलने के बाद मेरे दिमाग़ में यह चलता रहा कि सारी व्यवस्थाएं तो भटकी हुई हैं। ख़ासकर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्र में लोग अपने काम को लेकर वैसे भटकते नज़र आते हैं मानो उनका पैर भूलन कांदा पर पड़ गया हो। ख़ासकर उनके बीच की जो न्याय व्यवस्था है वह भी भटकी हुई दिखती है। यह सब मेरे दिमाग में चल रहा था और फिर इस पर मैंने काम करना शुरू किया। 100 पृष्ठों का यह उपन्यास मैंने धीरे-धीरे पूरा किया। तीन-चार सालों में यह पूर्ण हुआ। इसके बाद मैंने पांडुलिपि की स्थिति में पढ़ने के लिए विनोद कुमार शुक्ल जी, राजेंद्र मिश्र जी, विश्वरंजन जी एवं रमेश अनुपम जी जैसे बड़े साहित्यकारों को दी। रमेश अनुपम जी ने मुझे कहा कि अब इस पर और आगे काम मत करिए और तुरंत ही से छपने के लिए दीजिए। मैंने 2010 में इसे ‘बया’ पत्रिका के लिए गौरीनाथ जी को भेजा। उन्होंने बड़े सम्मान के साथ ‘बया’ में स्थान दिया।

0 क्या आप ख़ुद इस बात पर यक़ीन करते हैं कि भूलन कांदा जैसी कोई चीज भी है, जिस पर पैर पड़ने से कोई थोड़ी देर के लिए सब कुछ भूल जाता है…

00  जब पहली बार मुझे भूलन कांदा के बारे में बताया गया था तो मैंने भी इसे मिथ की तरह लिया था। उपन्यास आने के बाद और उसे पढ़ने के बाद कई लोगों ने मुझे बताया कि वह भी जंगल में कभी भटक गए थे। वन मंडल के एक अधिकारी ने भी मुझे यह बात बताई थी। कोंडागांव के मित्र हरिहर वैष्णव ने भी बताया था। इसी तरह कई लोगों ने कहा यह जंगलों में होता है। केशकाल के एक जड़ी-बूटी विशेषज्ञ ने तो इसका वैज्ञानिक नाम भी बताया टाइलोफोरा रोटोन डीफोलिया। उन्होंने मनोज वर्मा को जंगल में इसे दिखाया। फिर भी इसकी सत्यता पर रिसर्च होना चाहिए और वास्तविक जानकारी सामने आनी चाहिए।

0 भूलन कांदा के अलावा आपकी अन्य कृतियां…

00 पहले मैं कविताएं ही लिखा करता था। उसके बाद पहला गद्य उपन्यास के रूप में ‘भूलन कांदा’ आया। इसके अतिरिक्त संस्मरण भी मैंने लिखे। कहानियां भी लिखी। निम्नानुसार मेरी किताबें हैं- तार को आ गई हल्की सी हँसी, भित्ति पर बैठे लोग, जो तितलियों के पास है, सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला रहता था, चुनी हुई कविताएँ,  मौहा झाड़ को लाईफ ट्री कहते हैं जयदेव बघेल सभी कविता संग्रह।

‘भूलन कांदा’ व ‘खैरागढ़ नांदगाँव’ उपन्‍यास।

‘भूलन कांदा’ उपन्‍यास के अंग्रेजी अनुवाद के अनुवादक एस राम उमा राम,

‘खसरा नंबर चौरासी बटा एक रकबा पांच डिसमिल’     कहानी संग्रह।

खैरागढ़, खैरागढ़ में कट चाय और डबल पान, केशव कहि न जाइ का कहिये- ये सभी संस्मरण।

0 किसी जानकार व्यक्ति से सुना था कि आपके परिवार से किसी ने पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ में अभिनय किया था…

00  मेरे पिता स्वर्गीय रमाकांत बख्शी जी ने ‘कहि देबे संदेस’ में चरित्र अभिनेता का रोल निभाया था। यह सन् 1965 की बात है। हम लोग बच्चे थे। पिता ने बताया कि फिल्म के निर्देशक मनु नायक इस रोल के लिए चिंतित थे। नायक जी मुंबई से जिस चर्चित अभिनेता को साथ लेकर आए थे वह किसी बात पर रुष्ट होकर वापस मुंबई चले गए थे। तब दुर्ग के शिव कुमार दीपक ने नायक जी को बताया कि “मैं खैरागढ़ के रमाकांत बख्शी को जानता हूं। उनका मोनो प्ले मैंने देखा है। यदि वे मिल जाएंगे तो मैं उन्हें ढूंढकर लाता हूं।“ और इस तरह मेरे पिता जी फिल्म ‘कहि देबे संदेस’ का हिस्सा बने।

0 क्या आपका मन करता है कि आगे कोई फ़िल्म लिखें…

00 उपन्यास या संस्मरण लिखना और फ़िल्म लिखना यह अलग-अलग विधा है। फ़िल्म लिखना, यह मैंने नहीं किया है और कभी इसके लिए सोचा भी नहीं है।

0 इन दिनों आप कहां व्यस्त चल रहे हैं…

00  मैं ‘भूलन कांदा’ उपन्यास का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर रहा था। उसमें व्यस्त था। उसे पूरा करके मैंने प्रकाशन के लिए दे दिया है। इसके साथ ही नई कविताएं जो इस बीच लिखी गई थीं उन्हें प्रकाशित करने के लिए अभी अभी भेजा है। ‘भूलन कांदा’ उपन्यास का कन्नड़, पंजाबी और मराठी में भी अनुवाद का काम चल रहा है।

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