■ अनिरुद्ध दुबे
सन् 1972। उस समय हम जहां रहा करते वह घर के साथ मंदिर भी था। रायपुर का प्राचीन बांके बिहारी मंदिर। मंदिर में चल रहे किसी उत्सव के समय की बात है। संदीप नाम के शख्स के हाथ में एक कागज़ था जिस पर आगे पीछे सब तरफ प्रिंट किया हुआ था। दिखाओ कहते हुए मैंने वह कागज़ उसके हाथ से ले लिया, फिर नहीं देने की बात पर अड़ गया। उसने वापस दो की रट लगा रखी थी। इतने में बाबू जी आ गए और संदीप से पूछे- “क्या हुआ?” उसने कहा- “मेरे गाने की किताब है, जिसे राजू दे नहीं रहा।“ बाबूजी ने पूछा- “कोई बात नहीं, बता ये कितने की है?” संदीप ने कहा- “15 पैसे।“ बाबूजी ने उसे 15 पैसे दिए और कहा- “जा दूसरी ले आ।“ वह तूरंत मान गया। जिस कागज़ को मैं संदीप को लौटाने को तैयार नहीं था वह कुछ और नहीं मशहूर अभिनेता देवानंद की सुपर-डुपर हिट फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ के आठ पेज की गाने की किताब थी। वह किताब क्या कागज़ का एक पन्ना था, जो आठ भागों में फोल्ड था। फ़िल्म के सारे गाने उसी में छपे थे। इस तरह पांच साल की उम्र में यह जानने को मिला कि फ़िल्मी गानों की किताब कैसी होती है। दूसरा मोड़ 1978 में आया। उम्र ग्यारह के आसपास। घर के पास ही कृष्णा नाम की एक युवती रहा करती थीं। उनके भाई के बेटे से जान-पहचान थी। इस नाते उनके घर कभी-कभी खेलने कूदने चले जाया करता। बातों ही बातों में एक दिन कृष्णा जी ने जान लिया कि मुझे गाने का शौक है। उन्होंने पूछ लिया- “गाने में तुम्हें क्या पसंद है?” मेरा जवाब था- “फ़िल्मी गाने।“ बस फिर क्या था कृष्णा जी को गानों पर बात करने वाला एक छोटा सा साथी मिल गया। वे मुझसे क़रीब आठ साल बड़ी रही होंगी, लेकिन हम दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी। घर की छत पर जाकर जब आसमान पर उड़ती पतंगों की तरफ़ मैं ताक रहा होता, वहीं थोड़ी दूर वाली छत से कृष्णा जी की तरफ से आने का इशारा होता। तूरंत जाना तो नहीं होता था, लेकिन बीच में उनके घर के चक्कर ज़रूर लग जाया करते। गाने के हमारे शौक तो मिलते-जुलते ही थे लेकिन उनकी छवि मुझे विशेष प्रभावित करती। गेहुंआ रंग। ज़्यादातर समय खुले हुए लंबे बाल। नाक में छोटी सी चमचमाती नथ। वह दौर जींस-टॉप का नहीं था, लेकिन कृष्णा जी घर में अक्सर पेंट शर्ट में ही दिखा करतीं। उन्हें गानों की किताबों के कलेक्शन का शौक था। उन्होंने कई गानों की किताबों को सुई-धागे से सिलकर मानो किसी मोटे ग्रंथ का स्वरुप दे रखा था। उनके पास ऐसी तीन मोटी किताबें तैयार हो चुकी थीं। कभी-कभी वह ये किताबें घर ले जाने के लिए मुझे दे देतीं। ये कहते हुए कि लौटा ज़रूर देना। उस समय तो बच्चा बुद्धि थी। बीच में समय मिलने पर किताब को थोड़ा उलट-पलट लेता और कुछ दिनों बाद वापस लौटा देता। लगातार मुलाकातों के बाद कृष्णा जी का मेरे प्रति स्नेह काफ़ी बढ़ गया था। एक दिन रात 8 बजे के आसपास उनके घर पहुंचना हुआ। कृष्णा जी ने पूछा- “खाना खा लिए।“ मैंने कहा- “नहीं।“ वो बोलीं- “थोड़ा ठहरो।“ भीतर गईं और 5 मिनट में थाली परोसकर ले आईं, टेबल पर यह कहते हुए रखीं कि यहीं पर खा लो। थाली रोटी, सब्ज़ी, चावल दाल, अचार व पापड़ से सजी हुई थी। उस वक़्त समझ काफ़ी कम थी। मैं ऐसे परिवार का बच्चा जहां कुछ कड़े नियम अनावश्यक रूप से थोप कर रखे गए थे। पता नहीं क्या सूझा, मैंने कृष्णा जी से कहा- “घर से आता हूं।“ फिर वहां से जो निकला तो कृष्णा जी के घर नहीं गया। बहरहाल उस दिन को याद कर आज भी अफ़सोस होता है कि अन्न की थाली को इस तरह छोड़कर नहीं जाना था। कई बरस पहले हुई उस भूल के लिए “सॉरी कृष्णा जी।“
जब कृष्णा जी के यहां लगातार आना-जाना होते रहा था एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया कि “ये गाने की किताब आप मंगवाती कहां से हैं।“ उन्होंने कहा- “कभी शारदा टॉकीज़, कभी बाबूलाल टॉकीज़ तो कभी अमरदीप टॉकीज़ के बाहर लगने वाली दुकानों से।“
शारदा और बाबूलाल टॉकीज़ कब की बंद हो चुकी हैं। बताते चलूं कि उस ज़माने में रायपुर में एक-दो नहीं नौ टॉकीज़ें हुआ करती थीं। हर टॉकीज़ के परिसर में एक मुंगफल्ली, पैपरमिंट, आलू गुंडा व समोसे की छोटी सी दुकान ज़रूर हुआ करती, जहां ये गानों की पुस्तकें बिका करती थीं। कीमत होती थी 15 पैसे, 20 पैसे या 25 पैसे। आज रायपुर में चार ही टॉकीज़ें राज, श्याम, प्रभात एवं अमरदीप बची हैं, लेकिन अब यहां ऐसी कोई दुकान नहीं जहां गानों की आठ पेज वाली पुस्तकें मिल जाएं। और मिलें भी तो कैसे, दौर जो खत्म हो गया। अब तो कोई भी गाना खोजना हो गूगल पर चले जाइये, मिल जाएगा। गूगल सर्च करने पर गाने तो मिल जाते हैं पर उस ज़माने की गाने की उन किताबों की तस्वीर बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिली। फिर कृष्णा जी का ध्यान आया। इन दिनों वे महाराष्ट्र के नागपुर शहर में निवासरत् हैं। थोड़ी सी मशक्कत के बाद उनका मोबाइल नंबर मिल गया। कॉल करके जब अपना परिचय दिया तो तूरंत पहचान गईं, लेकिन बातचीत में वह गर्मजोशी नदारत थी, जो कि सन् 78 के आसपास हुआ करती थी। शायद वक़्त के थपेड़ों ने उन्हें ऐसा बना दिया। उनका एक बेटा और दो बेटियां हैं। सभी की शादी हो चुकी। कुछ वर्षों पहले कृष्णा जी के पति का देहांत हो गया। बरसों बाद मोबाइल पर मेरी आवाज़ सुनकर कृष्णा जी को शायद अच्छा ही लगा। मैंने उन्हें याद दिलाया कि “आपके पास गाने की पुस्तकों का खजाना हुआ करता था। क्या उसकी कुछ तस्वीरें मिल सकती हैं।“ उन्होंने कहा- “क्यों नहीं।“ फोन पर चर्चा के कुछ दिनों बाद उनकी बेटी अल्पना ने गाने की पुस्तकों के कुछ चित्र मेरे पास वॉट्सएप के माध्यम से भेजे। और हां, कृष्णा जी ने मुझसे यह भी कह रखा है कि “जब भी रायपुर आना होगा गानों की वो सारी पुस्तकें तुम्हारे हवाले कर दूंगी। हो सकता है तुम्हारे कुछ काम आ जाएं।“ मैंने भी कृष्णा जी से हॅंसकर कहा कि “ऐसे खज़ाने को भला कौन छोड़ेगा।“