हज़ारों साल में जिस ‘राम’ की कल्पना का विघटन नहीं हुआ उससे अच्छी कल्पना और क्या- डॉ. अरुण सेन

■ अनिरुद्ध दुबे

(संगीत जगत में नये प्रयोगों के लिए मशहूर रहे डॉ. अरुण कुमार सेन व्दारा रचित ‘गीत रामायण’ का विशेष रूप से उल्लेख होते रहा है। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ में उप कुलपति रह चुके डॉ. सेन ने लगभग 25 वर्षों तक ‘गीत रामायण’ को मंच पर प्रस्तुत किया था। ‘गीत रामायण’ को लेकर मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई थी, जिसके मुख्य अंश का प्रकाशन 9 अक्टूबर 1996 को दैनिक ‘देशबन्धु’ में हुआ था। उस साक्षात्कार का पुनः संपादित अंश यहां प्रस्तुत है।)

यह अनुरोध करने पर कि सबसे पहले ‘गीत रामायण’ से जुड़ी 25 वर्ष पहले की यादें ताजा करें, डॉ. अरुण कुमार सेन ने कहा कि “बात उन दिनों की है जब मैं संगीत के अलावा हिन्दी साहित्य का भी विद्यार्थी था। तब धर्म एवं अध्यात्म को लेकर तेजी से समझ विकसित हो रही थी। उन दिनों रामायण ने मेरे मन में गहरा असर छोड़ा। भीतर इच्छा शक्ति जोर मारने लगी कि रामायण पर कुछ काम करूं। उस समय कुछ बातें रह-रहकर मेरे मन में उठा करती थीं। वो ये कि अवधी जिस पर रामायण है बोलचाल की भाषा नहीं है। दूसरा जिन कविजनों ने रामायण पर काम किया उनकी दृष्टि अलग-अलग है। ‘गीत रामायण’ पर काम शुरु करने से पहले मुझे गोस्वामी तुलसीदास जी के रचित ‘राम चरित मानस’ एवं वाल्मिकी रामायण में से किसी एक को चुनना था। मैंने ‘राम चरित मानस’ को आधार बनाया। ‘गीत रामायण’ का पहला गीत राम जन्म को लेकर बना। लोगों की धारणा थी कि वर्णित छंद गाए नहीं जा सकते। लेकिन मैंने ‘गीत रामायण’ में वर्णित छंदों का का इस्तेमाल किया है। रामचंद्र जी के जन्म को मैंने राग गोड़ सारंग पर लिया। यह दोपहर का राग है। रामचंद्र जी का जन्म भी दोपहर में ही हुआ था। मैंने उपेक्षित नारी पात्र को ‘गीत रामायण’ में उभारने की कोशिश की। यह पात्र है लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला। ‘गीत रामायण’ में मैंने भरत जी के प्रसंग को काफ़ी विस्तार दिया है। बात उन दिनों की है जब मैं भरत जी पर लिख रहा था। मेरे एक परिचित सवाल कर बैठे तूम यह कैसे कह सकते हो कि भरत जी निष्कलंक थे? मेरा मानना है ये आज की मनोवृत्ति है। कितने ही ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनका अधिकांश समय तरह-तरह की उधेड़बुन और बुराई करते रहने में बीतता है। आज बहुत से लोग तो यह कहने से भी नहीं चुकते कि राम एक काल्पनिक चरित्र है। चलो माना राम एक काल्पनिक चरित्र है, जोर देकर आगे मैं यही कहना चाहूंगा कि हज़ारों साल बीत जाने के बावजूद जिस कल्पना का विघटन नहीं हुआ तो फिर उससे अच्छी कल्पना और क्या हो सकती है!“

राम और कृष्ण के देश में पाश्चात्य संस्कृति का जिस तरह हमला हो रहा है क्या यह चिंता का विषय नहीं? इस प्रश्न पर डॉ. अरुण सेन ने कहा कि “इतने सारे चैनलों का इडियेट बाक्स पर सुलभ हो जाना ख़तरनाक है। आज भटकाव किस कदर है इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि राम का रामा और कृष्ण का कृष्णा उच्चारण होने लगा है। “हैप्पी बर्थ डे टू यू कृष्णा” ऐसे गीत बनने लगे हैं। हमारे यहां बड़ों के पैर छूने की परंपरा रही है। आज बहुत से लोगों के हाथ बमुश्किल बड़ों के सिर्फ़ घुटनों तक ही पहुंच पाते हैं। बहुत से बच्चे तो हाय-हाय करते हाथ हिलाते नज़र आ जाएंगे। जबकि ‘हाय’ शब्द को हमारे यहां अशुभ समझा जाता रहा है। असल में हम संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता कितनी ही घुसपैठ करने की कोशिश क्यूं न करे भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप कभी नष्ट नहीं होने वाला।“

(15 दिसंबर 2000 को डॉ. अरुण कुमार सेन का देवलोक गमन हुआ)

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