(छत्तीसगढ़ी सिनेमा के फ़ेमस डायरेक्टर सतीश जैन एक बार फिर ‘मोर छंइहा भुंईया’ लेकर आ रहे हैं। पार्ट-2। यानी रीमेक। पार्ट-2 का प्रदर्शन 24 मई को पूरे छत्तीसगढ़ में होने जा रहा है। नई ‘छंइहा भुंईया’ में सब कुछ बदला-बदला सा नज़र आएगा। नहीं बदले नज़र आएंगे तो सतीश जैन, डायरेक्टर जो हैं। ‘छंइहा भुंईया’ पार्ट-1 जब निर्माणाधीन थी, सांध्य दैनिक ‘हाईवे चैनल’ की तरफ से मैंने सतीश जी से लंबी बातचीत की थी, जिसका प्रकाशन 2 मार्च 2000 को हुआ था। उस दौर में जब छत्तीसगढ़ में बड़े पर्दे के लिए फ़िल्म बनाने छुटपुट असफल प्रयास होते रहे थे, मुम्बई रिटर्न सतीश जैन ने ‘छंइहा भुंईया’ बनाने का करिश्मा कर दिखाया। उस समय सतीश जैन ने “छत्तीसगढ़ में एक पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री तैयार हो सकती है” वाली जो बात कही थी आज वह क़रीब 24 साल बाद साकार होती नज़र आती है। सतीश जी की उस दूरदर्शिता पर दाद देते हुए उनसे लिया गया वह यादगार इंटरव्यू पुनः संपादन के साथ एक बार फिर आप सबके सामने प्रस्तुत है…)
छत्तीसगढ़ में एक पूरी फ़िल्म
इंडस्ट्री तैयार हो
सकती है- सतीश जैन
■ अनिरुद्ध दुबे
छत्तीसगढ़ी फ़ीचर फ़िल्म ‘मोर छंइहा भुंईया’ के लेखक एवं निर्देशक सतीश जैन का मानना है कि “छत्तीसगढ़ राज्य बनने में अब ज़्यादा देर नहीं। यदि बेहतर प्रयास हों तो यहाँ एक पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री स्थापित हो सकती है।“ सतीश जैन मुम्बई में रहकर ‘दुलारा’, ‘आग’, ‘हथकड़ी’, ‘परदेसी बाबू’, ‘राजाजी’ एवं ‘संन्यासी मेरा नाम’ जैसी फ़िल्मों की कहानी लिख चुके हैं। उनकी लिखी आने वाली फ़िल्म ‘हद कर दी आपने’ (गोविंदा-रानी मुखर्जी) है। ‘मोर छंइहा भुंईया’ का निर्माण पूरा हो चुका है। ‘हाईवे चैनल’ ने सतीश जैन से लम्बी बातचीत की, जो यहाँ पेश है…
पहला सवाल यह कि आपके मन में फ़िल्मों के प्रति रुझान कैसे पैदा हुआ? सतीश जैन बताते हैं- “भानुप्रतापपुर बस्तर का छोटा सा हिस्सा है, जहां मैं पला बढ़ा। बहुत छोटी उम्र में फ़िल्मों के प्रति दीवानगी हो गई थी। उस समय भानुप्रतापपुर में टॉकीज़ नहीं थी। कभी-कभी टूरिंग टॉकीज़ आ जाती थी जिसमें फ़िल्में देखना होता था। जब भी कांकेर, बिलासपुर एवं धमतरी मैं अपने रिश्तेदारों के यहां जाता फ़िल्म देखने का शौक पूरा कर लेता। घर में जब पता लगा कि फ़िल्में देखने का शौक पागलपन की हद तक बढ़ते जा रहा है तो इसके लिए मुझे काफी डांट पड़ने लगी। बचपन में फ़िल्मों का मेरे मन में इतना गहरा असर क्यूं हुआ, इस बारे में आज सोचता हूं तो यह बात समझ में आती है कि फ़िल्मों में फैंटेसी का जो तत्व होता है उसका मुझ पर प्रभाव था। फ़िल्मों में महानगर की जो जीवन शैली दिखाई जाती है उसका 1 प्रतिशत अंश भी बस्तर में देखने नहीं मिलता था। यहां तक की कॉलेज़ में पहुँचने के बाद पहली बार मैं रेलगाड़ी पर चढ़ा। फ़िल्मों में नजर आने वाला माँ-बेटे का अद्भुत प्यार, बड़ी-बड़ी हवेलियां मेरे दिमाग में घुमड़ती रहती थीं। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के पिता के दबाव के चलते मैंने दुर्ग पॉलिटेक्नीक कॉलेज़ में प्रवेश लिया। दुर्ग में लगातार फ़िल्में देखते-देखते मेरी दृष्टि बदलने लगी। अब मैं एक आलोचक की नज़र से फिल्में देखने लगा था। साथ में यह भी सोचा करता था कि अगर मैं इस फ़िल्म का निर्देशक होता तो किस तरह का काम करता। एक फ़िल्म आई थी- ‘सोलहवां सावन’। अमोल पालेकर के कारण मैं इस फ़िल्म को देखने चला गया। फ़िल्म देखने पहुँचा तो नज़रें अमोल पालेकर की बजाय श्रीदेवी पर ठहर गईं। उस समय मैंने अंदाज़ा लगाया था कि यह हीरोइन मौका मिले तो कमाल कर सकती है। कुछ सालों बाद जब श्रीदेवी ने ‘हिम्मतवाला’ में कमाल कर दिखाया तो मेरे अंदर यह आत्मविश्वास जागा कि मेरा सोचना सही उतरता है। हालांकि यह कहने सुनने में काफ़ी छोटी सी बात लगती है पर यही वह समय था जब मेरे दिमाग में यह बात उठी कि मुम्बई फ़िल्म नगरी में जाकर कुछ करना चाहिए। वह 1984 का वक़्त था। मुझे मालूम था कि पिताजी से अपने दिल की बात कहूंगा तो वह कभी इसके लिए हामी नहीं भरेंगे। इसलिए मैंने उन्हें यही बताया कि मुम्बई मैं एक अख़बार की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रहा हूँ, जबकि माँ को बता दिया था कि मेरा लक्ष्य मुम्बई की फ़िल्म नगरी है।“
मुम्बई पहुँचने के बाद फ़िल्म लाइन से जुड़ने के लिए आपकी ओर से किस तरह के प्रयास हुए? पूछने पर सतीश जी बताते हैं “फ़िल्म लाइन से जुड़ा रत्ती भर अनुभव तो था नहीं। जो कुछ मेरे पास था तो वह था आत्मविश्वास। न जाने कितनी फ़िल्म हस्तियों के पास मैं काम माँगने गया, सबका एक ही सवाल होता था तुम्हारे पास अनुभव क्या है? उन लोगों का भी अपनी जगह कहना सही था। मुम्बई पहुँचने के बाद इस मामले में मैं खुशकिस्मत रहा कि माँ की सिफारिशी चिट्ठी पर एक खान साहब के यहां रहने की छोटी सी जगह मिल गई। संघर्ष के उस दौर में एक दिन मेरी पहचान जानी- मानी फ़िल्म पत्रिका ‘माधुरी’ (जो अब बंद हो चुकी है) के सम्पादक विनोद तिवारी जी से हुई। ‘माधुरी’ में कहानी का एक कॉलम हुआ करता था। उसमें ऐसी कहानियों को जगह दी जाती थी जिन पर फ़िल्म बन सकें। मैंने कुछ कहानियां ‘माधुरी’ में लिखकर दी थीं, जो प्रकाशित भी हुईं। एक दिन विनोद तिवारी जी ने मुझसे कहा कि तुम ‘माधुरी’ के रिपोर्टर क्यूं नहीं बन जाते। मैंने उनसे कहा कि लेखन तो मेरा काम रहा नहीं, मेरी तमन्ना तो निर्देशक बनने की है। उन्होंने सलाह दी कि यदि तुम्हें फ़िल्म लाइन में कुछ करके दिखाना ही है तो पहले वहाँ तक पहुँचने के लिए रास्ता तैयार करो और इस काम के लिए लिखने से अच्छा कोई दूसरा माध्यम नहीं हो सकता। तिवारी जी की बात मुझे जम गई और मैं बन गया ‘माधुरी’ का फ़िल्म रिपोर्टर। ‘माधुरी’ से जुड़ने के बाद बतौर रिपोर्टर अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, श्रीदेवी और न जाने कितनी ही फ़िल्म हस्तियों तक पहुंचने का मौका मिला। अमिताभ बच्चन जब राजनीति में प्रवेश किए थे तब ‘दो नाव की सवारी’ शीर्षक से मैंने उन पर एक लेख लिखा था, जो कि ‘माधुरी’ का कवर स्टोरी बना था। उस लेख में मैंने लिखा था कि अमिताभ को राजनीति रास नहीं आएगी और वह फ़िल्म ही करेंगे। ऐसा ही हुआ। तीन सालों तक मैंने ‘माधुरी’ में ख़ूब लिखा। इस बीच अभिनेता सुरेश ओबेराय से काफी घनिष्ठता हो गई। उन्होंने ही एक बार मुझे निर्देशक स्व. मुकुल आनंद से मिलवाया। मुकुल आनंद उस समय फ़िल्म ‘सल्तनत’ बना रहे थे। उन्हें मालूम हुआ कि मैं निर्देशक बनना चाहता हूं। उन्होंने मुझे ‘सल्तनत’ का सहायक निर्देशक बना दिया। इस बीच मैंने एक कहानी लिखी जिस पर फ़िल्म बनी- ‘पनाह’। नसीरुद्दीन शाह पल्लवी जोशी किरण कुमार एवं प्राण ने इस फ़िल्म में काम किया। इस फ़िल्म की काफ़ी तारीफ़ हुई। ‘पनाह’ फ़िल्म फेयर अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट हुई थी। अब सहायक निर्देशन एवं फ़िल्म की कहानी लिखने का काम साथ-साथ चलने लगा था। इसी दौरान फ़िल्म अभिनेता गोविंदा के ग्रुप से जुड़ना हुआ। गोविंदा के भाई कीर्ति कुमार ने दो फ़िल्में निर्देशित की थीं ‘हत्या’ एवं ‘राधा का संगम’। ‘हत्या’ में मैं सहायक निर्देशक एवं ‘राधा का संगम’ में सह निर्देशक था। आगे मेरे व्दारा लिखी हुई फ़िल्में ‘दुलारा’ ‘आग’ ‘हथकड़ी’ परदेसी बाबू’ एवं राजाजी’ पर्दे पर पहुंचीं। आने वाले दिनों में मेरी लिखी हुई फ़िल्म ‘हद कर दी आपने’ पर्दे पर पहुँचने वाली है। इसमें गोविंदा एवं रानी मुखर्जी हैं।“
छत्तीसगढ़ आकर आपने छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘मोर छंइहा भुंईया’ बनाई, जिसके लेखक एवं निर्देशक आप ही हैं- तो क्या मुम्बई फ़िल्म नगरी से आपका मन भर गया है? इस प्रश्न पर सतीश जैन कहते हैं कि “अब वह समय ज़्यादा दूर नहीं जब छत्तीसगढ़ राज्य बनेगा। यहाँ पर पूरी एक फ़िल्म इंडस्ट्री विकसित की जा सकती है। मराठी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, उड़िया जैसी क्षेत्रीय भाषाओं पर फ़िल्में बन सकती हैं तो छत्तीसगढ़ी में क्यूं नहीं? फिर मैं छत्तीसगढ़ अंचल का हूँ तो यहाँ के प्रति मेरा कुछ तो उत्तरदायित्व बनता है। मैने ‘मोर छंइहा भुंईया’ खेल-खेल में नहीं बल्कि पूरी गम्भीरता के साथ बनाई है। कलाकारों की तलाश में रायपुर दुर्ग, अभनपुर, राजनांदगांव, खैरागढ़, डोंगरगढ़, अर्जुंदा जैसे स्थानों पर गया। बकायदा फ़िल्म की शूटिंग के लिए मुम्बई से एक टीम यहां आई। भिलाई, दुर्ग एवं रायपुर में हमने इस फ़िल्म की शूटिंग की। फ़िल्म में ८ गाने हैं जो काफ़ी अच्छे बन पड़े हैं। तीन एक्शन दृश्य हैं जिसे तैयार करने मुम्बई से फाइट मास्टर अंदलीब पठान यहां आए हुए थे। फ़िल्म में जैसा जिसका जो काम रहा वैसा ही उसे हमने पारिश्रमिक भी दिया। मैं यह बात फिर दोहरा रहा हूँ कि यहां के लोग फ़िल्म बनाने की कला जान लें तो पूरी एक फ़िल्म इंडस्ट्री तैयार हो सकती है।“
आप यहां फ़िल्म बनाने का दम भर रहे हैं जबकि कई सालों पहले ‘कहि देबे संदेस’ एवं ‘घर व्दार’ फ़िल्में जो छत्तीसगढ़ी में बनी थीं उनका कोई बहुत अच्छा नतीजा सामने नहीं आया था? इस सवाल पर सतीश जैन कहते हैं- “मैंने इन दोनों फ़िल्मों को तो देखा नहीं। जैसा कि दूसरों से सुना है- ‘कहि देबे संदेस’ अच्छा जोर पकड़ रही थी लेकिन इसके विषय को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ था। उसका काफ़ी विरोध हुआ था। उस विरोध पर राजनीतिक रंग अलग चढ़ गया था, जिसका कि फ़िल्म के बिजनेस पर बुरा असर पड़ा। ‘घर व्दार’ के बारे में बताया जाता है कि इसका तकनीकी पक्ष कमज़ोर था। जहाँ तक ‘मोर छइंहा भुइंया’ की बात है, न तो इसका विषय विवादास्पद है और न ही तकनीकी पक्ष कमज़ोर। ‘मोर छइंहा भुइंया’ दो भाइयों की कहानी है। यह एक पारिवारिक ड्रामा है जिसमें कॉमेडी को विशेष जगह दी गई है। इस फ़िल्म में सभी कलाकारों ने काफ़ी अच्छा काम किया है। फ़िल्म का संगीत भी काफी मधुर बन पड़ा है। फ़िल्म की शूटिंग तो पूरी हो गई है, डबिंग का काम बाक़ी है। इस फ़िल्म के निर्माता मेरे पिता शिवदयाल जैन हैं।“