■ अनिरुद्ध दुबे
1 नवंबर को राज्योत्सव की सांध्य बेला में प्रथम छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ के निर्देशक मनु नायक जी को महामहिम राज्यपाल सुश्री अनुसुईया उइके एवं मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने राज्य स्तरीय किशोर साहू अलंकरण से सम्मानित किया। यहां अलंकरण समारोह के अलावा सन् 2002 में खिंची गई एक यादगार तस्वीर शेयर कर रहा हूं। तस्वीर में नायक जी व रोशन तनेजा जी के मध्य में मैं हूं। रोशन तनेजा जी वो शख़्सियत थे, जिन्होंने साठ के दशक में मुम्बई में पहले फ़िल्म ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट की शुरुआत की थी। इन दो तस्वीरों के अलावा मनु नायक जी के साथ वह बातचीत भी यहां प्रस्तुत कर रहा हूं जो मैंने सन् 2013 में फ़िल्म पत्रिका ‘मिसाल’ के लिए की थी…
” छत्तीसगढ़ी सिनेमा का दौर आया तो बहुत सारे ऐसे लोग फ़िल्म बनाने कूद पड़े, जिन्हें सिनेमा की ज़रा भी समझ नहीं थी। बहुत से पैसे वाले छत्तीसगढ़ी सिनेमा पर दांव लगाने लगे। कोई पैसे के बल पर हीरो बन गया तो कोई डायरेक्टर। सिनेमा एक आर्ट है। इस आर्ट को जानने समझने के लिए काफ़ी समय खपत करने की ज़रूरत पड़ती है। सन् 2000 में छत्तीसगढ़ी सिनेमा का दौर आया तब से लेकर अब तक दो-चार लोग ही ऐसे निकले जिनके काम को देखने पर लगा कि हां इन्होंने कुछ किया है। कोई भी छत्तीसगढ़ी सिनेमा बनाना चाहता है तो पहले इस बात पर ज़रूर विचार करे कि कहां के लिए और किसके लिए सिनेमा बनाना है। छत्तीसगढ़ के दर्शक जब छत्तीसगढ़ी सिनेमा देखें तो उसमें उन्हें सब कुछ अपना नज़र आना चाहिए। हिन्दी में ‘मदर इंडिया’ इसलिए ख़ूब चली क्योंकि उसमे हकीक़त बयां की गई थी। एक ग़रीब औरत पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है और वह डटकर परिस्थितियों का मुक़ाबला करती है। दिल को छू जाने वाली फ़िल्म थी ‘मदर इंडिया’। ‘कहि देबे संदेस’ बनाने से पहले मैंने मुंबई में रहकर सिनेमा को समझा। वहां ज्ञानी लोगों के साथ काम करने का मौका मिला। उस समय हिन्दी सिनेमा में लेखक व गीतकार मुखराम शर्मा जी जैसी हस्ती थी जिनके नाम से फ़िल्म बिक जाया करती थी। मुंबई में महेश कौल जी जैसे डायरेक्टर के क़रीब रहकर मैंने सिनेमा की बारीकियां जानी। छत्तीसगढ़ी सिनेमा में जिसे देखो हिन्दी या भोजपुरी फ़िल्म की रीमेक बना रहा है। यह ग़लत है। छत्तीसगढ़ी में सिनेमा बना रहे हो तो कथानक छत्तीसगढ़ का होना चाहिए। वहीं का परिवेश होना चाहिए। छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों का दर्शक फ़िल्म देखना चाहे तो रीमेक क्यों देखेगा, मूल हिन्दी फ़िल्म नहीं देख लेगा। ख़राब छत्तीसगढ़ी फ़िल्में देखने के बजाय वह टीवी पर सीरियल देखना पसंद कर लेगा। ख़राब नकल कोई नहीं देखना चाहता। छत्तीसगढ़ी सिनेमा के गीत-संगीत पर भी गंभीरता से काम नहीं हो रहा है। पुराने छत्तीसगढ़ी गीतों को सुनिए, कितने शानदार हुआ करते थे। छत्तीसगढ़ी सिनेमा के संगीत में भी नकल मारने की प्रवृत्ति ले डूबी। फिर भी मैं छत्तीसगढ़ी सिनेमा के डायरेक्टर सतीश जैन में काफ़ी संभावनाएं देखता हूं। सतीश जैन मूलतः स्क्रीप्ट राइटर हैं। स्क्रीप्ट तगड़ी बनी तो समझिए 50 प्रतिशत मैदान आपने ऐसे ही मार लिया। मेरे पास ‘पठौनी’ की स्क्रीप्ट बरसों से पड़ी है। मुझे लगता है इस पर अच्छी फ़िल्म बन सकती है। वक़्त ने साथ दिया तो मैं इस पर ज़रूर फ़िल्म बनाना चाहूंगा।”