मिसाल न्यूज़
(छत्तीसगढ़ के जाने-माने लोक कलाकार एवं फिल्म अभिनेता शिव कुमार दीपक का कल 25 जुलाई को निधन हो गया। दीपक जी छत्तीसगढ़ी लोक कला एवं सिनेमा दोनों के इतिहास पुरुष के रूप में याद किए जाएंगे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार परदेशीराम वर्मा ने दीपक जी पर केन्द्रित लेख क़रीब दस वर्ष पूर्व हमारा पत्रिका ‘मिसाल’ के लिए भेजा था, जिसका प्रकाशन जनवरी-मार्च 2014 के अंक में हुआ था। दीपक जी की यादों को सहेजे रखने के लिए वह लेख पुनः आप सब के सामने प्रस्तुत है…)
■ परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ़ में एक मिसाल ऐसी है जिसने अपने एकल अभिनय द्वारा अपने प्रदेश की जीवन्त तस्वीर सफलतापूर्वक उतारी है, उनका नाम है- शिव कुमार दीपक। अपनी प्रस्तुतियों की तरह यह बेमिसाल अदाकार भी एक अजूबा है। उनके जीवन का यह 80 वां वर्ष है लेकिन सक्रियता के हिसाब से वे अब भी 25-30 वर्ष के जवान नज़र आते हैं। आज भी वे तीन-तीन घंटे अकेले मंच पर एकाभिनय कर सकते हैं। लोगों को हंसा सकता हैं, रुला सकते हैं और हंसते-रोते हुए लोगों को अपना दिल चीरकर दिखा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के दर्द को अपने दिल में समेटे अपने ही बल पर जन जन तक पहुंचने में समर्थ और सफल अद्वितीय कलाकार हैं- दीपक। उनकी कला यात्रा तब से प्रारंभ होती है जब वे छह -सात वर्ष के थे। दुर्ग के करीब पोटियाकला गांव में 15 नवंबर 1933 को जन्मे दीपक सर्वप्रथम अपने गांव की लीला मंडली में बाल कलाकार के रूप में पहचाने गए। उसके बाद हाईस्कूल से लेकर दुर्गा महाविद्यालय रायपुर तक सफलताओं का सिलसिला जो शुरु हुआ वह आज भी अनवरत जारी है। रमाकांत बख्शी जी की प्रेरणा से एकाभिनय के क्षेत्र को दीपक ने चुना और आज वे इस अंचल के सर्वमान्य एकाभिनय सम्राट है।
दुर्ग महाविद्यालय के छात्र दीपक ने नागपुर में 1958 में अखिल भारतीय युवक महोत्सव में भाग लिया तब जवानी की दलहीज पर कदम पड़े ही थे। दीपक उस छोटी सी उम्र में ही पं. जवाहरलाल नेहरू के हाथों पुरस्कृत हुए थे। डाकुओं के हदय परिवर्तन पर आधारित एकाभिनय पर उन्हें यह पुरस्कार मिला। तब से अब तक उपलब्धियों की लंबी यात्रा उन्होंने की है। दीपक की उपलब्धियां उल्लेखनीय और गौरवास्पद हैं।
मंच पर राग द्वेष, पीड़ा, शोषण और जिंदगी के तमाम रंगों को पेश करता हुआ हर व्यक्ति के दुलारे कलाकार दीपक के अपने 4 बेटे और एक बेटी हैं जिन्हें दीपक जी फाइव स्टार कहते हैं। मंच पर अत्यन्त गतिशील, कल्पनाशील और अप्रतिम प्रतिभा में मंच विशेषज्ञों के दीपक जी अपने जीवन में निपट भोकवा और जकला कहलाने में ही सुख का अनुभव करते हैं। अपनी उदारता और सर्वज्ञात सदाशयता के कारण भी अनचाहे लोगों से अनावश्यक उपालभ के शिकार होने वाले दीपक हर विरोध को हंस कर टालने की अपनी अपूर्ण शक्ति के कारण खेमे और गुट से परे हैं। उत्तीसगढ़ के तमाम कला मंचों का एक समान स्नेह और सम्मान किसी कलाकार को मिला है तो ये हैं श्री दीपक। छत्तीसगढ़ में कला के आचार्य अपने अपने दलों और गुटों की आंतरिक राजनीति के बहुचर्चित रहे हैं। यही कारण है कि आए दिन नये-नये बैनर विभिन्न संगीतिक और मंचीय संस्थाएं प्रकट होती रहती हैं। अपने ही को बिगाड़ना और बिगड़े को फिर से बनाना इनका विशेष शौक रहा है। एक तरह से खाली समय को भरने का एक सरल माध्यम भी। ऐसे में केवल अभिनय के बल पर तमाम घटकों की कृपा प्राप्त करके चलना एक उपलब्धि है। दीपक उद्देश्य की सुचिता को महत्व देते हैं और इसीलिए जहां भी जिस मंच पर उन्हें कुछ सौद्देश्य और उत्तम नजर आता है, वे उनके साथ न केवल हो लेते हैं बल्कि अपना श्रेष्ठ भी उस मंच को प्रदान कर देते हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ी की प्रारंभिक दोनों फिल्मों में काम किया है।
वे एक ओर जहां दाऊ रामचंद्र देशमुख की प्रस्तुतियों में समाहृत रहे, वहीं दूसरी ओर दाऊ महासिंग चंद्राकर के द्वारा विनिर्मित ‘लोरिक चंदा’ में भी समान आदर के साथ अभिनय के लिये आमंत्रित किए जाते रहे। ‘सोनहा बिहान’ और ‘चंदैनी गोंदा’ दोनों में समान आदर अवसर उन्हें मिला। बालकवि बैरागी लिखित कथा पर बनी फिल्म ‘भादवा माता’ में उन्होंने अविस्मरणीय अभिनय किया। ‘लमसेना’ और ‘हरित क्रांति’ उनकी बहुचर्चित एकाभिनीत प्रस्तुतियां हैं। छत्तीसगढ़ के दर्द को हास्य के माध्यम से प्रस्तुत करने का उनका अभिनव प्रयास हमेशा सराहा गया है। जाली सर्टिफिकेट जैसे नितांत नीरस किंतु ज्वलंत विषय को उन्होंने जिस सरस ढंग से पेश किया, वह उन्हीं के बूते की बात हो सकती है। उनकी यादगार संरचना छत्तीसगढ़ रेजिमेंट की चर्चा भी अत्यावश्यक है। क्षेत्रीय आधार पर तथा नस्लों के आधार पर तमाम रेजिमेंट हैं। किन्तु हमारे उत्तीसगढ़ अंचल का प्रतिनिधित्व फौज में कतई असंतोषजनक है। श्री दीपक ने नितांत रोचक ढंग से इस विषय को छुआ है। उन्होंने इस विषय को अत्यंत जिम्मेदारीपूर्वक उठाया है। हास्य के माध्यम से छत्तीसगढ़ की अनचाही तकलीफ को इस तरह किसी दूसरे कलाकार ने पेश किया हो अब तक ज्ञात नहीं हुआ है। छत्तीसगढ़ के इस दुलारे कलाकार ने एकाभिनय के अतिरिक्त तमाम नाटकों में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की है। पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कहि देबे संदेस’ तथा ‘घर द्वार’ में भी शिवकुमार दीपक ने अभिनय किया है। तब से अब तक वे लगातार अभिनय कर रहे हैं। ऐसे तपस्वी कलाकार को सरकार की तरफ से जैसा सम्मान मिलना चाहिए था नहीं मिला। जबकि विगत पचास वर्षों में छत्तीसगढ़ से राजकाज चलाने के लिए चुना जाने वाला हर शक्तिमंत राजनेता शिवकुमार दीपक को और उसकी प्रतिभा को भली-भांति जानता है।
शिव कुमार दीपक ने सदैव छत्तीसगढ़ी अस्मिता को मंच पर अभिनय की दमक से उपस्थित करने का सफल प्रयत्न किया है। डा. खूबचंद बघेल ने उन्हें 1962 में दुर्ग के वकील गयंदलाल बंछोर के घर बुलवाया। तब तक शिवकुमार दीपक मशहूर हो चुके थे। डा. बघेल ने कहा कि दीपक जी मेरा नाटक है ‘जरनैल सिंह।’ छत्तीसगढ़ को प्रेरित करने के लिए मैंने यह नाटक लिखा है। इसे आप मंच पर प्रस्तुत करिये। डा. खूबचंद बघेल के आदेश को मानकर ‘जरनैल सिंह’ की हस्तलिखित प्रति श्रद्धापूर्वक उठकर दीपक जी घर ले आये। पढ़कर अनुभवी दीपक ने महसूस किया कि नाटक में पात्रों की अधिकता है। साधने का अभाव भी है। ऐसे में उन्होंने उसे एकाभिनय के माध्यम से प्रस्तुत करने का संकल्प लिया। इस तरह डा. खूबचंद बघेल लिखित प्रसिद्ध नाटक ‘जरनैल सिंह’ नये स्वरुप में छत्तीसगढ़ रेजीमेण्ट के रूप में मंच पर साकार हुआ। डा. खूबचंद बघेल लिखित इस नाटक को शिव कुमार लगातार अपने एकाभिनय से लोगों तक पहुंचाते रहे। उन्होंने बहुत सी फिल्मों में काम किया। वे छत्तीसगढ़ के ऐसे प्रतिभावान कलाकार हैं जिन्हें चार भाषाओं की फिल्मों में अभिनय करने का अवसर लगा। मालवी में ‘भादवा माता’, भोजपुरी में ‘घर आजा परदेसी’, हिन्दी में ‘हल और बंदूक’ के अलावा ‘मोर छंइहा भुंईया’ तथा ‘परदेसी के मया’ समेत कितनी ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों में वे अपने अभिनय का जादू बिखेरते रहे। दुर्ग के आदर्श नगर से जुड़ा हुआ गांव पोटियाकला दीपक जी के कारण विख्यात हो चला है। जिस तरह देवदास बंजारे का गांव धनोरा, पद्द्मभूषण तीजनबाई का गांव गनियारी, बुलवाराम यादव का गांव बघेरा, महासिंह चंद्राकर का गांव मतवारी, दुलार सिंह साव मंदराजी का गांव रवेली प्रसिद्ध है उसी तरह दीपक जी का गांव पोटियाकला भी चर्चित है।