‘ले सुरू होगे मया के कहानी’… सतीश है तो सिनेमा है…

■ अनिरुद्ध दुबे

चर्चा है कि मशहूर डायरेक्टर सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘ले सुरू होगे मया के कहानी’ ने अपने प्रदर्शन के पहले ही हफ़्ते में ‘हॅस झन पगली फॅस जबे’ का रिकॉर्ड तोड़ दिया। ‘हॅस झन पगली…’ सतीश जैन की ही पूर्व में आई बेहद सफल फ़िल्म थी। ‘ले सुरू होगे…’  को देखने न सिर्फ सिंगल स्क्रीन बल्कि मल्टीप्लेक्स में भी भारी भीड़ टूटी पड़ी है। सतीश जैन ने इस बार अमलेश नागेश एवं एल्सा घोष पर दांव खेला। दोनों ही न सिर्फ़ सतीश जैन बल्कि दर्शकों की भी उम्मीदों पर खरे उतरे हैं। सवाल यह है कि ‘ले सुरू होगे…’ में ऐसी कौन सी बात है जो दर्शकों को सिनेमा हाल व मल्टीप्लेक्स की तरफ खींचे जा रही है? इसके ज़वाब में ‘जुड़ाव’ शब्द ज़्यादा उपयुक्त होगा।

वही फ़िल्म अच्छी मानी जाती है जिससे दर्शक ठीक तरह कनेक्ट हो पाएं। छत्तीसगढ़ी सिनेमा में ज़्यादातर फ़िल्मों को देखो तो ऐसा लगता है कि ड्रामे या फ़िल्म के किसी रिहर्सल वाले सीन को ही सीधे पर्दे पर उतार दिया गया हो। पर्दे पर जब मनमाने सुस्त सीन चलें तो उन्हें देखने वाले दर्शक भी सुस्त पड़ जाते हैं। कभी बॉलीवुड में लंबा रहते हुए सतीश जैन ने जो अनुभव कमाए वह छॉलीवुड में काम आते रहे हैं। ‘ले सुरू होगे…’ का हर सीन काफ़ी सधा और कसा हुआ महसूस होता है। अमलेश नागेश और एल्सा घोष पर फ़िल्माया गया फ़िल्म का पहला ही गाना जिसे स्वप्न गीत भी कह सकते हैं कमाल का बन पड़ा है। “ले सुरू होगे मया के कहानी…” गीत में हीरो विद्या सागर कल्पनाओं में अपनी प्रेयसी ज्योति को जिस शिद्दत से महसूस करता है वह फ़िल्मांकन अद्भुत है। कह सकते हैं कि इस गाने से ही दर्शक फ़िल्म से बंधना शुरु हो जाते हैं। दूसरे गीत “पहला पहला प्यार के पहला मुलाकात हे…” का फ़िल्मांकन भी कोई कम नहीं, जिसमें नायक एवं नायिका के ठीक पीछे डेम नज़र आ रहा है और डेम में नाव चलती दिख रही है। सोचिए यदि इस गाने से नाव को हटा दिया जाए तो दृश्य कितना खाली-खाली लगेगा। सतीश जैन की पिछली फ़िल्म ‘चल हट कोनो देख लिही’ में कहीं-कहीं पर कहानी का तारतम्य टूटते नज़र आया था। ये भी कह सकते हैं कुछ दृश्य और गाने अतिरिक्त खींचे हुए नज़र आए थे। जैन ने इस बार काफ़ी सावधानी बरती। ‘ले सुरू होगे…’ का स्क्रीन प्ले काफ़ी चुस्त दुरुस्त रहा, वहींं एडिटिंग भी कमाल की है। कई जगह पर संवाद गुदगुदाने वाले हैं, जो कि छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों के दर्शकों की ज़रूरत हैं। फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले कितने ही लोगों ने संंदेह ज़ाहिर करते हुए कहा था कि जैन ने साधारण से नज़र आने वाले अमलेश नागेश पर दांव कैसे खेल दिया! यू ट्यूब का स्टार होना अलग बात है और सिनेमा करना अलग बात! अमलेश ने साबित कर दिखाया कि सही अवसर मिले तो वे बड़े पर्दे पर भी अपना ज़लवा दिखा सकते हैं। इसी तरह बंगाली बाला एल्सा घोष जो बांग्ला, ओड़िया, तेलुगू एवं छत्तीसगढ़ी चारों भाषाओं की फ़िल्में करती हैं उन्हें भी छत्तीसगढ़ी में एक सुपरहिट का इंतज़ार था जो उन्हें ‘ले सुरू होगे…’ से मिल गया। यदि किसी एक्टर व एक्ट्रेस को इस बात का गुमान रहा होगा कि छत्तीसगढ़ी सिनेमा का जहाज़ उन्हीं के भरोसे खींंच रहा है तो अमलेश व एल्सा उनके सामने बेहतर ज़वाब बनकर सामने आए हैं। स्कूल टीचर के रूप में पप्पू चंद्राकर ने कमाल का हास्य पैदा किया है। वहीं अमलेश नागेश के पिता के रूप में शीतल शर्मा ने अपने अभिनय की छाप छोड़ी है। एल्सा के पिता बने सुरेश गोंडाले (प्रिंसिपल) और चाचा की भूमिका में मनोज जोशी (थानेदार) ने फिर साबित कर दिया कि वे मंजे हुए कलाकार हैं। अमलेश के दोस्त बने अनिल सिन्हा एवं घनश्याम मिर्जा पूरी फ़िल्म का ख़ास हिस्सा हैं। वहीं डॉ. अजय सहाय, उपासना वैष्णव, अंजलि सिंह, संगीता निषाद एवं उषा विश्वकर्मा के हिस्से में थोड़े दृश्य हैं और ये सभी कलाकार थोड़े में भी अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज़ करा गए हैं। गायक एवं संंगीतकार सुनील सोनी हमेशा से सतीश जैन की ख़ास पसंद रहे हैं और यह गायक व संगीतकार एक बार फिर अपने प्रिय डायरेक्टर व संगीत प्रेमी दर्शकों की उम्मीदों पर ख़रे उतरे हैं। छत्तीसगढ़ में काफ़ी समय एक से नारा चला हुआ है “भूपेश है तो भरोसा है।” एक नारा यह भी बन सकता है कि “सतीश है तो सिनेमा है…” यहां पर कहानी पर जान-बूझकर प्रकाश नहीं डाला गया है कि ताकि फ़िल्म का पूरा-पूरा आनंद आप सीधे सिनेमा हाल में जाकर ले सकें। स्टोरी ही मालूम हो जाए तो फिर पर्दे पर देखने का मज़ा क्या…

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