●कारवां (17 दिसंबर 2023)- कांग्रेस से क्यूं बिदक गए आदिवासी वोटर

■ अनिरुद्ध दुबे

घूम फिरकर वही प्रश्न उठ रहा है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में आदिवासी सीटों ने कांग्रेस का साथ क्यों नहीं दिया? आदिवासी बहुल सरगुजा में 14 की 14 सीटें भाजपा के खाते में गईं। वहीं दूसरे आदिवासी बहुल बस्तर क्षेत्र की 12 में से 8 सीटों पर भाजपा जीतने में क़ामयाब रही। उल्लेखनीय है कि सन् 2000 में कांग्रेस आलाकमान ने अजीत जोगी को आदिवासी मानते हुए मुख्यमंत्री पद पर बिठाया था। यह अलग बात है कि आज जोगी परिवार की जाति को लेकर कुछ और ही तस्वीर सामने है। वहीं 2018 के चुनाव में कांग्रेस की सत्ता आने पर भूपेश बघेल जब मुख्यमंत्री बने और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़े उनकी जगह पर बस्तर के आदिवासी नेता मोहन मरकाम ने ज़िम्मेदारी संभाली। जब मोहन मरकाम प्रदेश अध्यक्ष पद से हटे तो उनकी जगह पर बस्तर के ही आदिवासी नेता दीपक बैज को दायित्व सौंपा गया। यानी पूरे पांच वर्ष आदिवासी वर्ग का नेता प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहा। राजधानी रायपुर में विश्व स्तर का आदिवासी महोत्सव आयोजित कर यह बराबर मैसेज दिया जाता रहा कि कांग्रेस में आदिवासी वर्ग के लिए विशेष सम्मान है। इतना सब होने के बाद भी आदिवासी बहुल क्षेत्र के मतदाताओं का रूझान दूसरी तरफ कैसे हो गया इस पर गहन पड़ताल हो सकती है।

आगे कैसा रहेगा

साय का सफ़र

सवाल तो यह भी उठने लगा है कि अब वरिष्ठ आदिवासी नेता नंद कुमार साय का आगे का राजनीतिक सफ़र कैसा रहेगा? साय जी कभी भाजपा में रहते हुए प्रदेश भाजपा अध्यक्ष से लेकर राज्यसभा सदस्य, विधानसभा नेता प्रतिपक्ष जाने क्या-क्या रहे थे। इसी 2023 के चुनावी वर्ष में उपेक्षा का आरोप लगाते हुए वे भाजपा छोड़ कांग्रेस में आ गए। जिस कांग्रेस में आए वह विधानसभा चुनाव में 35 सीटों पर सिमटकर रह गई और भाजपा ने 54 सीट जीतकर सरकार बना ली। साय जी जिस सरगुजा संभाग के सीनियर नेता रहे हैं वहां की सभी 14 की 14 सीटें भाजपा की झोली में गई है।

रामदयाल और सौरभ के

साथ वक़्त का हंसी सितम

वरिष्ठ आदिवासी नेता रामदयाल उइके एवं जाने-माने युवा नेता सौरभ सिंह के साथ मानो समय लगातार आंख-मिचौली खेलते रहा है। इस बार भाजपा की सरकार बनी और दोनों ही नेता भाजपा की टिकट पर चुनाव हार गए। पीछे की तरफ चलें। 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तित्व में आने के बाद प्रथम मुख्यमंत्री बने अजीत जोगी विधायक नहीं थे। उन्हें जनता का विश्वास साबित करने किसी सीट से विधायक चुनाव लड़ना था। उन्हें मरवाही सीट उपयुक्त लगी। तब मरवाही के तत्कालीन भाजपा विधायक रामदयाल उइके से उन्होंने मामला सेट किया। उइके को विधायक पद से इस्तीफा दिलवाकर कांग्रेस में ले आए। खाली हुई मरवाही सीट से जोगी खुद चुनाव लड़े और जीते। इसके बाद 2003, 2008 एवं 2013 में उइके लगातार तीन बार पाली तानाखार सीट कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़े और जीते। 2018 में अजीत जोगी की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के नाम से अलग पार्टी सामने आ चुकी थी। तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल ने उइके से कहा था कि मरवाही से जनता कांग्रेस उम्मीदवार जोगी के खिलाफ़ चुनाव लड़ने की तैयारी करें। उइके बघेल की बात नहीं माने और अपनी पुरानी पार्टी भाजपा में लौट आए। 2018 में वे भाजपा की टिकट पर पाली तानाखार सीट से ही चुनाव लड़े। 2018 में कांग्रेस बंपर 68 सीट के साथ सरकार बनाने में क़ामयाब रही थी। भाजपा प्रत्याशी उइके को पाली तानाखार सीट से हार मिली थी। अब 2023 के चुनाव में आएं। उइके फिर भाजपा की टिकट पर पाली तानाखार से ही चुनावी मैदान में थे। इस बार पाली तानाखार से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के तुलेश्वर मरकाम को जीत मिली, कांग्रेस प्रत्याशी दुलेश्वरी सिदार पराजित होकर वोटों की गिनती में दूसरे स्थान पर रहीं और उइके छिटककर तीसरे स्थान पर पहुंच गए। यानी अब कि बार भाजपा की सरकार आई तो उइके मैदान से ही बाहर हो गए। बात सौरभ सिंह की करें। उन्होंने कांग्रेस से अपना राजनीतिक कैरियर शुरु किया था। 2008 के चुनाव में उन्होंने अकलतरा विधानसभा क्षेत्र से टिकट मांगी थी। टिकट नहीं मिलने पर बागी होकर बहुजन समाज पार्टी से चुनाव लड़े और जीते थे। 2013 में एक बड़े नेता यह वादा करके सौरभ सिंह को वापस कांग्रेस में लेकर आए थे कि अकलतरा से तुम्हें टिकट दिलाने की गारंटी मेरी। जब टिकट वितरण का समय आया सौरभ की टिकट ही कट गई। मतलब 2013 हाथ से निकल गया और वे बिना चुनाव लड़े रह गए। इसके बाद वे भाजपा में आ गए। 2018 के चुनाव में भाजपा ने उनको अकलतरा से टिकट दी। उस चुनाव में भाजपा मात्र 15 सीट जीत पाई थी। उन कठिन परिस्थितियों में भी सौरभ सिंह जीत दर्ज करने में क़ामयाब रहे थे। इस बार के चुनाव में वे फिर अकलतरा से चुनावी मैदान में थे। कांग्रेस ने बड़ा दांव खेलते हुए सौरभ के भतीजे राघवेंद्र कुमार सिंह को टिकट देकर चुनावी मैदान में सामने कर दिया। भतीजा जीत गया, चाचा हार गया। अब कि बार जब भाजपा की सरकार बन चुकी है, विधानसभा में सौरभ की बुलंद आवाज़ सुनाई नहीं देगी।

चकित कर गया महंत

रामसुंदर दास का

कांग्रेस छोड़ना

महंत रामसुंदर दास के इस्तीफ़े की ख़बर हर किसी को चौंका गई। वे हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में रायपुर दक्षिण से कांग्रेस के प्रत्याशी थे। भाजपा प्रत्याशी बृजमोहन अग्रवाल ने महंत जी को 67 हज़ार से अधिक मतों से हरा दिया। आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो यह पूरे प्रदेश में सबसे ज़्यादा मतों से हार है। महंत जी पूर्व में दो बार कांग्रेस से विधायक रह चुके हैं। एक बार पामगढ़ और दूसरी बार जैजैपुर से। तीसरी बार जब कांग्रेस की ही टिकट पर जैजैपुर से विधानसभा चुनाव लड़े थे उन्हें बसपा प्रत्याशी केशव चंद्रा से हार का सामना करना पड़ा था। 2018 के विधानसभा चुनाव में वे चुनावी मैदान में नहीं थे। यानी महंत जी ने इससे पहले भी राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे थे। लेकिन इस बार जिस तरह उन्होंने कांग्रेस ही छोड़ देने का निर्णय लिया वह सब को चकित कर गया। तो क्या भविष्य में महंत जी का रूख़ भाजपा की तरफ हो सकता है, यह सवाल राजनीति से वास्ता रखने वाले कितने ही लोगों के मन में है। वैसे ऐसा तो बिलकुल नहीं लग रहा कि महंत जी सक्रिय राजनीति से दूर हो जाएंगे। यदि नहीं होते तो फिर उनका अगला बड़ा कदम क्या होगा, इसका ज़वाब आने वाले समय में ही मिलेगा।

क्या हाशिये में चला

जाता है बृजमोहन

के खिलाफ़ लड़ने वाला…

राजनीतिक हल्कों में इन दिनों लगातार यह चर्चा हो रही है कि वरिष्ठ भाजपा नेता बृजमोहन अग्रवाल के ख़िलाफ़ जो भी चुनाव लड़ता है वह राजनीति में अलग-थलग प़ड़ जाता है। इस बार के चुनाव में बृजमोहन अग्रवाल से महंत रामसुंदर दास हारे हैं। महंत जी से पहले बृजमोहन अग्रवाल से जो नेता हारे उनमें स्वरूपचंद जैन, राजकमल सिंघानिया, पारस चोपड़ा, गजराज पगारिया, योगेश तिवारी, श्रीमती किरणमयी नायक एवं कन्हैया अग्रवाल हैं। इनमें से कौन राजनीति की मुख्य धारा में है और कौन परिदृश्य से पूरी तरह गायब है इस पर नीर-क्षीर राजनीति में रुचि रखने वाले लोग भली-भांति कर सकते हैं।

विधानसभा में नज़र आ

सकती है सरलता व

सहजता की त्रिमूर्ति

वरिष्ठ आदिवासी नेता विष्णुदेव साय मुख्यमंत्री और डॉ. चरणदास महंत विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष बन गए लेकिन दिग्गज नेता डॉ. रमन सिंह को लेकर सस्पेंस बरक़रार है। प्रश्न यह है कि क्या डॉ. रमन सिंह विधानसभा अध्यक्ष बनेंगे? इस पर रविवार या सोमवार को स्थिति साफ हो ही जाएगी।  यदि डॉ. रमन सिंह विधानसभा अध्यक्ष बनते हैं तो इस बार की विधानसभा में सरलता और सहजता की त्रिमूर्ति के दर्शन होंगे। विष्णदेव साय, डॉ. रमन व डॉ. महंत की छवि तो सरलता व सहजता वाली ही मानी जाती है।

एक ही पार्टी से दो पूर्व

आई.ए.एस. विधायक

छत्तीसगढ़ विधानसभा के 23 साल के इतिहास में पहली बार यह देखने मिलेगा कि दो पूर्व आईएएस एक ही पार्टी से विधायक चुनकर आए हैं। ओ.पी. चौधरी व नीलकंठ टेकाम दोनों ही आईएएस की नौकरी से इस्तीफ़ा देकर भाजपा में आए और दोनों ही इस बार चुनाव जीते हैं। चौधरी रायगढ़ से व टेकाम केशकाल से जीते हैं।

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