● “गोंदा फुलगे मोरे राजा…” आज भी महकते हैं छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘घर व्दार’ के गीत…

■ अनिरुद्ध दुबे

‘घर व्दार’ का नाम छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास में दूसरी फ़िल्म के रूप में दर्ज़ है। इस फ़िल्म का निर्माण भनपुरी के मालगुजार विजय कुमार पांडे ने किया था। निर्देशक निर्जन तिवारी थे। फैमिली ड्रामा था। महान गायक मोहम्मद रफ़ी एवं सुमन कल्याणपुर जैसी हस्तियों ने इस फ़िल्म के गानों के लिए अपनी आवाज़ दी। यह फ़िल्म गीत-संगीत के लिए याद की जाती है और आगे भी याद की जाती रहेगी।

(‘घर व्दार’ में बाएं से गीता कौशल, जाफ़र अली फ़रिश्ता, कान मोहन एवं रंजीता ठाकुर)

जाने-माने साहित्यकार रामदयाल तिवारी के पुत्र निर्जन तिवारी अपने पिता की ही तरह गुणी थे। पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ का निर्देशन पहले निर्जन तिवारी करने वाले थे। निर्माता मनु नायक से उनका मनमुटाव हो गया। तिवारी ने वह फ़िल्म छोड़ दी और संकल्प लिया था कि एक फ़िल्म हाथ से गई तो क्या हुआ कोई दूसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म निर्देशित करके रहेंगे। उन्होंने ‘घर व्दार’ की कहानी लिखी।  जब फ़िल्म बनाने की बात आती है तो सबसे पहले फायनेंसर की ज़रूरत होती है और निर्जन तिवारी को फायनेंसर के रूप में भनपुरी (पहले गांव था अब राजधानी रायपुर का हिस्सा) के मालगुजार विजय पांडे मिले। विजय पांडे के पास ज़मीन जायजाद की कमी तो थी नहीं, अतः फ़िल्म के निर्माण में किसी तरह का आर्थिक संकट नहीं आया। 1970 में फ़िल्म का निर्माण हुआ। फ़िल्म की अधिकांश शूटिंग सरायपाली में हुई। सरायपाली के राजा के महल में भी कुछ दृश्य फ़िल्माए गए। ‘कहि देबे संदेस’ के बाद ‘घर व्दार’ के भी हीरो बम्बई (अब मुम्बई) के कान मोहन थे। इसी तरह रायपुर शहर वासी जाफर अली फरिश्ता ‘कहि देबे संदेस’ के बाद ‘घर व्दार’ में भी अहम् किरदार में नज़र आए। ‘घर व्दार’ की कहानी दो भाइयों पर केन्द्रित थी, जिसमें एक सीधा-सरल (कान मोहन) एवं दूसरा बिगड़ैल (जाफर अली फरिश्ता) रहता है। दूसरे भाई को बरबादी की राह पर ले जाने वाले खलनायक की भूमिका  रायपुर शहर के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं कांग्रेस नेता इक़बाल अहमद रिज़वी ने निभाई थी।

(गीता कौशल, नीला अहमद एवं इक़बाल अहमद रिज़वी)

जाफ़र अली फरिश्ता एवं इकबाल अहमद रिज़वी के अलावा रायपुर शहर के कुछ और कलाकारों बसंत दीवान, यशवंत गोविन्द जोगलेकर, भास्कर काठोटे, श्रीराम कालेले, राम कुमार तिवारी, भगवती चरण  दीक्षित, नीला अहमद (अब नीलू मेघ) एवं परवीन ने इस फ़िल्म में भूमिका निभाई थी। निर्माता विजय कुमार पांडे की बेटी जयबाला पांडे इस फ़िल्म में बाल कलाकार थीं। बम्बई के दो और कलाकार रंजीता ठाकुर (विवाह के बाद रजीता कोचर), गीता कौशल एवं दुलारी ने ‘घर व्दार’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दुलारी अपने ज़माने की जानी-मानी चरित्र अभिनेत्री थीं। वहीं रंजीता ठाकुर, अमोल पालेकर-विद्या सिन्हा अभिनीत फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ एवं अनिल धवन-जया बच्चन अभिनीत फ़िल्म ‘पिया का घर’ में नज़र आई थीं। ‘रजनीगंधा’ में रंजीता जहां विद्या सिन्हा की सहेली के रोल में थीं वहीं ‘पिया का घर’ में अनिल धवन की भाभी बनी थीं। स्थानीय कलाकारों में नीला अहमद ने आगे जाने-माने प्रयोगधर्मी निर्देशक मणि कौल की फ़िल्म ‘सतह से उठता आदमी’ में भी काम किया था। ‘सतह से उठता आदमी’ फ़िल्म सुप्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कृति पर बनी थी।

‘घर व्दार’ के गीत जाने-माने साहित्यकार, इतिहासकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हरि ठाकुर ने लिखे थे। हरि ठाकुर के गीतकार के रूप में ‘घर व्दार’ से जुड़ने की कहानी भी दिलचस्प है। कंकालीपारा में आनंद समाज लायब्रेरी के पास निर्जन तिवारी का एक मकान था, जिसमें हरि ठाकुर किराये से रहते थे। हरि ठाकुर एवं निर्जन तिवारी के बीच काफ़ी आत्मीयता थी। निर्जन तिवारी ने जब ‘घर व्दार’ की कल्पना संजोई तो उन्होंने हरि ठाकुर से कहा कि इस फ़िल्म के गीत आप ही लिखेंगे। हरि ठाकुर जाने-माने कवि एवं गीतकार तो थे लेकिन किसी फ़िल्म के लिए गीत लिखने का उनका कोई इरादा नहीं था। पीछा छुड़ाने कि लिए हरि ठाकुर ने कहा कि “ठीक है आपको गीत मिल जाएगा लेकिन शर्त यह है कि आप बम्बई के जिस संगीतकार को लेने की बात कर रहे हैं उन्हें बुलाकर मुझसे मिलवाएं। इसके अलावा गाने की धुन में छत्तीसगढ़ी टच होना चाहिए।“ निर्जन तिवारी भी अपनी धुन के पक्के थे। वह फ़िल्म के संगीतकार जमाल सेन को रायपुर ले आए और हरि ठाकुर से मिलवाए। जमाल सेन कमाल अमरोही जैसे मशहूर लेखक एवं निर्देशक की फ़िल्म ‘दायरा’ में संगीत देकर लोकप्रियता हासिल कर चुके थे। ‘दायरा’ की हीरोइन मशहूर अदाकारा मीना कुमारी थीं। जमाल सेन के खानदान में संगीत परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही थी। जमाल सेन के वंशज सम्राट अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक गायक तानसेन के शिष्य रहे थे। रायपुर में जमाल सेन एवं हरि ठाकुर के बीच हुई मुलाक़ात का ही नतीज़ा रहा कि “सुन सुन मोर मया पीरा के संगवारी रे…”, “गोंदा फुलगे मोर राजा…” एवं “झन मारो गुलेल…” जैसे अजर अमर गीत कर्णप्रिय संगीत से सजकर सिनेमा एवं संगीत प्रेमियों के बीच पहुंचे और उनके अंतस मन में सदा के लिए रच बस गए। जमाल सेन के बेटे दिलीप सेन भी (दिलीप सेन-समीर सेन) हिन्दी फ़िल्मों के जाने-माने संगीतकार रहे हैं।

‘घर व्दार’ में जो स्थानीय कलाकार काम किए उनके साथ कुछ दिलचस्प अनुभव जुड़े हुए हैं। फोटोग्राफर एवं साहित्यकार बसंत दीवान ने ‘घर व्दार’ में साहूकार का रोल करने के साथ फ़िल्म की स्टील फोटोग्राफी भी की थी। पुरानी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने बताया था कि “शूटिंग के लिए मुम्बई से जो युनिट आई थी उसका निर्माता विजय पांडे पर जबरदस्त दबाव रहता था। एक-दो ऐसे भी मौके आए जब जब मुम्बई से यहां पहुंचे कुछ लोगों ने फ़िल्म अधूरा छोड़कर चले जाने की धमकी तक दी थी। विजय पांडे सीधे एवं सरल व्यक्ति थे। इधर, निर्देशक निर्जन तिवारी फ़िल्म ज़ल्द से ज़ल्द पूरा कर लेना चाहते थे। आख़िर फाइनेंसर बड़ी मुश्किल से जो मिला था। महीने भर में ही ‘घर व्दार’ का शूट पूरा हो गया था। सरायपाली में राजा महेन्द्र बहादुर सिंह के महल के अलावा वहां बाज़ार के कुछ दृश्य लिए गए थे। कुछ गिने-चुने कलाकार महल में ठहरे थे, बाक़ी धर्मशाला में। इस फ़िल्म को बनाने विजय पांडे ने अपनी कुछ ज़मीन कौड़ियों के मोल बेची थी। ‘घर व्दार’ के निर्माण में विजय कुमार पांडे की पत्नी श्रीमती चंद्रकली पांडे पूरे समय फ़िल्म टीम के साथ रहते हुए नाश्ता, चाय, भोजन से लेकर अन्य महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां संभाली थीं। उन्होंने फ़िल्म से जुड़े हुए कलाकारों एवं टेक्नीशियनों का वैसा ही ध्यान रखा था जैसे कि कोई परिवार के सदस्यों का रखता है।“

साठ का दशक। लंबे-पूरे स्टाइलिश युवक जाफ़र अली फरिश्ता जो बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेते थे। जाफ़र ने पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ एवं दूसरी फ़िल्म ‘घर व्दार’ दोनों में काम किया। इन दोनों फ़िल्मों के बाद वे मुम्बई में रहते हुए अभिनय की दुनिया में जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे पर किस्मत को कुछ और मंज़ूर था। वहां उनका इस्तेमाल फ़िल्म प्रोडक्शन के काम में ज़्यादा हुआ। नाट्य निर्देशक जलील रिज़वी बताते हैं- “जाफर ने ‘विक्टोरिया नंबर 203’, ‘एक से बढ़कर एक’, ‘बॉम्बे 405 मील्स’ एवं ‘तक़दीर’ जैसी फ़िल्म बनाने वाले ब्रिज सदाना के प्रोडक्शन का काम लंबे समय तक संभाला था। ब्रिज से अलग होने के बाद जाफ़र अली अभिनेता अशोक कुमार के संपर्क में आए और उनके कामों को देखा। इस बीच जाफ़र की मुलाक़ात अशोक कुमार के दामाद देवेन वर्मा से हुई। दोनों ने एक फ़िल्म की प्लानिंग की ‘भागो भूत आया।‘ इस फ़िल्म का निर्माण जाफ़र अली एवं निर्देशन कृष्णा नायडू ने किया था। यह फ़िल्म नहीं चली।“

न सिर्फ़ जाफ़र अली बल्कि निर्जन तिवारी ने भी मुम्बई में रहकर संभावनाएं तलाशने की कोशिश की थी। मुम्बई में निर्जन तिवारी फ़िल्म निर्देशक व्दय महेश कौल एवं ज्योति स्वरूप के सहायक रहे थे। मुम्बई में रहते हुए उन्होंने गुमनामी की ज़िन्दगी जी और वहां उनकी मौत कब हुई, छत्तीसगढ़ में किसी को इसकी कोई ख़बर तक नहीं लगने पाई। जाफ़र अली फरिश्ता भी आज हमारे बीच नहीं हैं। 11 मार्च 1987 को निर्माता विजय पांडे बेटी जयबाला की सगाई के लिए जा रहे थे। अभनपुर के पास सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया। स्व. पांडे का परिवार भनपुरी में ही रहता है। स्व. पांडे की पत्नी श्रीमती चंद्रकली पांडे रायपुर नगर निगम में भारतीय जनता पार्टी से पार्षद भी रही थीं। वे सन् 2004 में यति यतनलाल वार्ड से पार्षद चुनाव जीती थीं। उनके पुत्र जयप्रकाश पांडे पिता की स्मृति में समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित करते रहते हैं। यूं कहें ‘घर व्दार’ की परंपरा को जयप्रकाश पांडे आगे बढ़ाए हुए हैं।

(कवि, गीतकार व इतिहासकार हरि ठाकुर जी, फोटोग्राफर व अभिनेता बसंत दीवान जी तथा नाट्य निर्देशक जलील रिज़वी जी से बातचीत के आधार पर)

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