ऐतिहासिक छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ एवं ‘घर व्दार’ के हीरो कान मोहन- (17 नवंबर को पुण्य तिथि पर विशेष)

■ अनिरुद्ध दुबे

जब कभी छत्तीसगढ़ी भाषा की ऐतिहासिक पहली फ़िल्म ‘कहि देबे संदेस’ एवं दूसरी फ़िल्म ‘घर व्दार’ की चर्चा होगी कान मोहन याद आएंगे। इन दोनों ही फ़िल्मों के हीरो कान मोहन थे। कान मोहन छत्तीसगढ़ी के अलावा हिन्दी एवं सिन्धी फ़िल्मों में भी नज़र आए थे।

‘कहि देबे संदेस’

कान मोहन का जन्म 20 फरवरी 1933 को पाकिस्तान के जेकबाबाद में हुआ था। 1947 में विभाजन के बाद उनका परिवार मुंबई आ गया। कान मोहन ने कॉलेज की पढ़ाई जय हिन्द कॉलेज मुम्बई से की। कॉलेज़ के दिनों में उनके भीतर अभिनय का शौक जगा। कॉलेज में होने वाले वार्षिकोत्सव में उन्होंने नाटक में हिस्सा लिया। ट्रॉफी भी जीती। आगे चलकर अभिनय का यह शौक उन्हें फ़िल्मों में ले आया। उनके फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत सिन्धी फ़िल्म से हुई। उनकी सिंधी फ़िल्म ‘अबाना’ एवं ‘इंसाफ़ कित्थे आ’ काफ़ी सफल रही। ‘सुशीला’ समेत कुछ अन्य हिन्दी फ़िल्मों में भी काम किये। सन् 1957 की बात है। छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र मनु नायक को फ़िल्मों की चाह मुम्बई खींच ले गई। वहां उन्हें सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता एवं निर्देशक महेश कौल के दफ़्तर में नौकरी मिल गई। मुंबई के फ़िल्म संसार से जुड़े रहते हुए नायक जी ने वर्ष 1961-62 में जब पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो’ की तूफानी सफलता को देखा तो उनके मन में विचार आया कि हमारी छत्तीसगढ़ी भाषा में फ़िल्म क्यों नहीं बन सकती! नायक जी ने ‘कहि देबे संदेस’ बनाने का फ़ैसला किया। कान मोहन हीरो के रोल के लिए साइन कर लिए गए। उस समय कान मोहन की सिंधी फ़िल्मों में अलग पहचान बन चुकी थी। नवंबर 1964 में ‘कहि देबे संदेस’ का निर्माण प्रारंभ हुआ। 19 अप्रैल 1965 को यह फ़िल्म दुर्ग की प्रभात टॉकीज़ में प्रदर्शित हुई। ‘कहि देबे संदेस’ के प्रदर्शन के बाद भनपुरी (तब रायपुर से लगा गांव था) के मालगुजार विजय कुमार पांडे ने ‘घर व्दार’ बनाई। इस फ़िल्म में भी हीरो कान मोहन को लिया गया। यह फ़िल्म 1970 में बननी प्रारंभ हुई और 1971 में रिलीज़ हुई।

‘घर व्दार’ के बाद क़रीब तीस साल बड़े पर्दे के लिए कोई छत्तीसगढ़ी फ़िल्म नहीं बनी। इस बीच जहां कहीं भी ‘कहि देबे संदेस’ व ‘घर व्दार’ का प्रदर्शन होता प्रचार माध्यम में कलाकार वाले स्थान पर पहला नाम कान मोहन का ही लिखा होता। छत्तीसगढ़ के जाने-माने नाट्य निर्देशक जलील रिज़वी बताते हैं- “कान मोहन खाने-पीने के काफ़ी शौकीन थे। मैंने उनको ‘घर व्दार’ की शूटिंग के दौरान काफ़ी नज़दीक से देखा था। मुझे याद है सरायपाली में ‘घर व्दार’ की शूटिंग चल रही थी। शूटिंग शुरु होने से पहले लूंगी व कुर्ता पहने हुए कान मोहन एक कुर्सी में आसन जमाए हुए थे और गरमागरम भजिये का आनंद ले रहे थे। ‘घर व्दार’ में अभिनय कर चुकीं नीलू मेघ ने भी कान मोहन को क़रीब से देखा था। नीलू मेघ ने अपने लेख- “मैं, मेरा बचपन और घर व्दार” में लिखा है कि कान मोहन भजिया प्रेमी ‘सिंधी माणहूं’ थे।

ऐसा भी समय आया जब कान मोहन का फ़िल्मों से मन भर गया। उन्होंने फ़िल्मों से संन्यास लेकर रेडीमेट गारमेन्टस का व्यवसाय शुरु किया। लम्बे समय तक वे इस व्यवसाय से जुड़े रहे। मनु नायक के अलावा छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों के जाने-माने चरित्र अभिनेता एवं लोक कलाकार शिव कुमार दीपक का कान मोहन से बराबर संपर्क बने रहा था। अप्रैल 2012 में कान मोहन के शरीर के पिछले हिस्से में दर्द होना शुरु हुआ। धीरे-धीरे यह दर्द बढ़ते ही चले गया। कमजोरी आने लगी। बाद में वे इस स्थिति में आ गए कि बिना सहारे के बिस्तर से उठ भी नहीं पाते थे। फिर सांस लेने में भी भारी तकलीफ होने लगी। बेटे महेश वासवानी और बहू श्रीमती रीमा वासवानी कान मोहन की सेवा में लगे रहे। सन् 2012 के नवम्बर महीने की शुरुआत में हालत ज़्यादा बिगड़ गई। उन्हें मुम्बई के गोरेगांव स्थित सांई हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां 17 नवम्बर 2012 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म के हीरो ने दुनिया से इस तरह चुपचाप विदाई ली कि उनके नहीं रहने की ख़बर छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े लोगों को महीनों तक नहीं हो पाई थी। उनके निधन की ख़बर सर्वप्रथम ‘मिसाल’ पत्रिका के अप्रैल-जून 2013 के अंक के माध्यम से सामने आई थी। जब भी छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास के पन्ने पलटे जाएंगे कान मोहन का नाम प्रमुखता से सामने नज़र आएगा।

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