‘नई’ से पहले पुरानी ‘मोर छंइहा भुंईया’ पर एक नज़र… 24 मई को फिर एक नया इतिहास रचने की तैयारी…

(‘मोर छंइहा भुंईया’ फिर लौटकर आ रही है। नये रंग में। नये अंदाज़ में। 24 मई को छत्तीसगढ़ के सिनेमाघरों में इसका प्रदर्शन होने जा रहा है। सन् 2000 में डायरेक्टर सतीश जैन का यह ड्रीम प्रोजेक्ट था और 2024 में भी है। यह क्या कम बड़ी बात है कि 2025 में ‘छंइहा भुंईया’ की सिल्वर जुबली होगी। और जब सिल्वर जुबली का जश्न मन रहा होगा तो नई व पुरानी दोनों ‘छंइहा भुंईया’ सामने होंगी। 2000 का साल ऐतिहासिक रहा, जब दीपावली के ठीक दूसरे दिन 27 अक्टूबर को ‘मोर छंइहा भुंइया’ सिनेमाघरों में पहुंची और 31 अक्टूबर की रात घड़ी के कांटे के 12 क्रास करते ही छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आ गया। इस तरह दोतरफा जश्न का माहौल था- छत्तीसगढ़ी सिनेमा का, नये छत्तीसगढ़ राज्य बनने का। राज्य स्थापना के ठीक दूसरे दिन यानी 2 नवम्बर को मेरे व्दारा ‘मोर छंइहा भुंईया’ पर लिखी गई फ़िल्म समीक्षा सांध्य दैनिक ‘हाईवे चैनल’ में प्रकाशित हुई थी। वह समीक्षा एक बार फिर पुनः संपादन के साथ आपके सामने प्रस्तुत है…)

● ‘मोर छंइहा भुंईया- 1’ (प्रदर्शन 27 अक्टूबर 2000)

■ अनिरुद्ध दुबे

आज यदि कोई सिनेमा तैयार करे तो उसके सामने ढेर सारी चुनौतियां हैं। दर्शकों की नब्ज़ पकड़ पाना अब पहले जितना आसान नहीं रहा, ऊपर से ‘केबल पायरेसी’ तो जैसे लाइलाज़ मर्ज़ बन गया है। किसी फ़िल्म को थियेटर में लगे दो-तीन दिन होते नहीं हैं कि उसके धड़ाधड़ वीडियो कैसेट तैयार हो जाते हैं। फिर अब वह दिन भी लद गए जब कम बजट में फिल्में बन जाया करती थीं। तभी तो पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कहि देबे संदेश’ का निर्माण करने वाले मनू नायक जी अपनी दूसरी फिल्म ‘पठौनी’ की घोषणा करने के बाद भी उस पर काम शुरू नहीं कर पाए। हालांकि यहां आगे बात ‘मोर छंइहा भुंईया’ पर शुरू होनी है लेकिन 1964-65 में मनु नायक जी ने ‘कहि देबे संदेस’ बनाकर छत्तीसगढ़ी सिनेमा जगत का एक नया इतिहास जो लिखा था उसे याद करते हुए कम से कम मेरे जैसा एक अदना सा समीक्षक यहां उनका नाम भुलाकर अपराध बोध से ग्रस्त नहीं होना चाहेगा। नायक जी ने ‘कहि देबे संदेस’ से शुरूआत की तो 1970-71 में ‘घर व्दार’ बनाकर प्रोड्यूसर विजय कुमार पांडे एवं डायरेक्टर निर्जन तिवारी ने छत्तीसगढ़ी फ़िल्म के निर्माण की गाड़ी आगे बढ़ाई। लेकिन पता नहीं वक़्त ने कैसा क्रूर मजाक किया कि बीच का क़रीब 29 साल का लम्बा समय ख़ाली चला गया। इस बीच कोई छत्तीसगढ़ी फ़िल्म नहीं बनी। जब शताब्दी का आख़री साल 1999 गुज़र रहा था, तब सतीश जैन ने घोषणा की कि वह छत्तीसगढ़ी में ‘मोर छंइहा भुंईया’ बनाएंगे। सतीश जैन की यह घोषणा छत्तीसगढ़ के लोगों में कोई उत्साह पैदा नहीं कर पाई थी। बल्कि बहुत से लोगों ने सतीश जैन के छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने के इस मिशन पर अविश्वास ज़रूर जताया था। इसमें ग़लत वो बहुत से अविश्वास करने वाले नहीं थे, बल्कि ग़लत तो वो लोग थे जो बीच के इन कई सालों में छत्तीसगढ़ अंचल में फ़िल्म बनाने की घोषणाएं करते रहे और घोषणाओं के बल पर न जाने कितने ही भोले-भाले लोगों को ठगा। सतीश जैन जिनका कि ‘जन्म छत्तीसगढ़ की ही माटी भानुप्रतापपुर में हुआ है… सतीश जैन जिन्होंने मुम्बई में रहकर कुछ सालों तक फ़िल्मी पत्रकारिता की… सतीश जैन जिन्होंने ‘अपने दम पर’, ‘पनाह’, ‘आग’, ‘हथकड़ी’, ‘दुलारा’, ‘परदेसी बाबू’, ‘संन्यासी मेरा नाम’ एवं ‘राजा जी’ जैसी फ़िल्में लिखीं… ‘मोर छंइहा भुंइया’ की गहराई में जाने के पहले उनका इतना परिचय देना ज़रूरी लगा।

सन् २००० में मुम्बई फ़िल्म उद्योग काफ़ी सम्हला हुआ दिखाई दे रहा है, वरना बीच के दो साल 98 व 99 तो काफ़ी बुरे गए। उन्हीं दो बुरे सालों वाले दौर में सतीश जैन ने छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बनाने का संकल्प लिया जिसकी परिणति ‘मोर छंइहा भुंईया’ के रूप में सामने है। इस क़रीब दो घंटे की फ़िल्म को थियेटर में देखते समय इस समीक्षक ने महसूस किया फ़िल्म के गीतों पर प्रसन्नचित दर्शकों की सीटियां व तालियां तो बजती ही हैं, साथ ही इसके चुटीले संवाद और कुछ कलाकारों की अदायगी पर भी दर्शकों के बीच से तुरंत मज़ेदार कमेन्ट्स सिनेमा हाल में गूंजायमान होते हैं। इससे ज़ाहिर यही होता है कि आज छत्तीसगढ़ का दर्शक अपनी माटी और अपनी ही छत्तीसगढ़ी बोली में बनी ‘मोर छंइहा भुंईया’ जैसे साफ सुथरे सरोवर में आनंद के गोते लगा रहा है।

‘मोर छंइहा भुंईया’ की कहानी घर-घर की कहानी लगती है। पैसा कमाने के जुगाड़ में किसन (आशीष सेंद्रे) अपनी पत्नी (संजू साहू) एवं अपने दो छोटे बच्चों के साथ गांव से शहर आ गया। किसन कचहरी में बाबू है। उसने न सिर्फ़ अपने बच्चों का अच्छे से लालन- पालन किया बल्कि शहर में एक अच्छा सा मकान भी बनवा लिया। उसके दोनों बच्चे उदय (शेखर सोनी) एवं कार्तिक (अनुज) जवान हो चुके हैं। कार्तिक ने कॉलेज में नया-नया दाखिला लिया है, जबकि उदय वहां पहले से पढ़ रहा है। दोनों भाइयों की प्रकृति एक दूसरे से काफ़ी भिन्न है। उदय जहां पढ़ाई में आगे और गंभीर किस्म का है वहीं कार्तिक चंचल और ख़ुराफ़ाती है। उदय का दिल पड़ोस में ही रहने वाली सुधा (पूनम नकवी) पर आ जाता है। कार्तिक अपने ही कॉलेज में पढ़ने वाली मुम्बई वाली छोरी डॉली (जागृति राय) के पीछे पड़ा रहता है। समय का खेल देखिए 85 प्रतिशत अंक पाकर कॉलेज से स्नातक हुए उदय को तो नौकरी मिली नहीं, वहीं एक जाने माने नेता दाऊ जी (रवि तिवारी) का चमचा बनकर गलत-सलत काम करने वाला कार्तिक ज़रूर मालामाल हो गया। सुधा के माता-पिता बेरोजगार उदय के साथ आख़िर शादी कैसे करते। उसके हाथ किसी दूसरे लड़के के साथ पीले कर दिए गए। नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए उदय के जीवन में एक और बड़ी घटना उस समय घटती है जब अनजाने में ही कार्तिक व्दारा चलाया गया छुरा उसके पेट में जा घुसता है। इधर, अदालत ने कार्तिक को एक साल की सजा सुनाई उधर उदय ने अपनी सोच बदल ली। उदय ने अब गांव जाकर खेत में अपने दादा के साथ हल थाम लिया है। एक दिन उदय जब अपने छोटे भाई कार्तिक के बच्चे को खिला रहा होता है तो उसके घर के सामने एक कार आकर रुकती है। कार से सुधा अपने पति के साथ उतरती है। सुधा, उदय से कहती है “मैं चाहती हूं कि मेरी बहन की शादी तुमसे हो… तुम इसके लिए इंकार नहीं करना…।“ उदय कहता है- “मैंने क्या आज तक तुम्हारी बात से इंकार किया है।“

फ़िल्म में शेखर सोनी, अनुज शर्मा, पूनम नकवी, जागृति राय, आशीष सेंद्रे, संजू साहू, मनमोहन ठाकुर, प्रकाश अवस्थी, रवि तिवारी, निशा गौतम, सुरेश गोंडाले, क्षमानिधि मिश्रा, ललित उपाध्याय, धर्मेन्द्र चौबे, कमल नारायण सिन्हा, शिव कुमार ‘दीपक’, वेदप्रकाश दास, दीपक ताम्रकार, मास्टर पीयुष एवं मास्टर वत्स ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया है। इनमें से अधिकांश कलाकारों के लिए तो अभिनय एकदम नई चीज रही है। फिर भी निर्देशक सतीश जैन इनसे अच्छा काम ले पाने में सफल रहे हैं। “टूरी आइस्क्रीम खाके फरार होगे जी…”, “चटनी बना के रख दूंगी मैं ओ छत्तीसगढ़ के छोरे…”, “बम्बई के टूरी रे…”, “देख के तोला संगी मोला…” एवं “जान ले पहिचान ले…” – ये फ़िल्म के ऐसे गीत हैं जिनकी इन दिनों धूम मची हुई है। गीतों को लिखा है लक्ष्मण मस्तूरिया एवं विनय बिहारी ने। इन गीतों के लिए संगीतकार बाबला बागची ने बेहतरीन धुनें बनाई हैं। यह बड़े फ़क्र की बात है कि संगीतकार बाबला बागची छत्तीसगढ़ अंचल के ही पंखाजूर के रहने वाले हैं। जहां तक सतीश जैन की बात है तो उन्होंने फिल्म की कथा, पटकथा एवं संवाद लिखने से लेकर निर्देशन तक की सभी ज़िम्मेदारियां बख़ूबी निभाई है।

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