मिसाल न्यूज़
छत्तीसगढ़ी सिनेमा की सुप्रसिद्ध चरित्र अभिनेत्री उपासना वैष्णव 28 जुलाई को रिलीज होने जा रही छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कबड्डी’ में निराले अंदाज़ में नज़र आएंगी, कबड्डी खेलते हुए। वो भी महिलाओं के साथ नहीं पुरुषों के साथ। ‘कबड्डी’ ऐसा सिनेमा है जिसमें नारी शक्ति आततायी पुरुष को ललकारती नजर आती है। उपासना कहती हैं- “कबड्डी के मुकाबले वाले सीन का फ़िल्मांकन बेहद कठिन था, जो कि काफ़ी बेहतरीन बन पड़ा है।”
‘मिसाल न्यूज़’ से बातचीत करते हुए उपासना ने कहा कि “कबड्डी में मेरा किरदार सती का है। उर्वशी साहू इसमें मेरी छोटी बहन बनी हैं। हम दोनों बहनें एक ही घर में ब्याह कर जाती हैं, अर्थात् दो सगे भाइयों के साथ दो सगी बहनों की शादी होती है। जिन गांव में हम रहती हैं वहां समस्याओं का अंबार है। शराबखोरी में डूबा हुआ वह गांव है। सामंती किस्म का एक व्यक्ति भैरव सिंह गांव वालों का शोषण करता है। कितने ही लोगों की जमीन वह हथिया लेता है। गांव की महिलाएं भैरव सिंह के खिलाफ़ उठ खड़ी होती हैं। हम दोनों बहनें उस आदमी के खिलाफ़ बराबर से संघर्ष करती हैं। असल में ‘कबड्डी’ उन 12 महिलाओं की कहानी है जो अत्याचारी राक्षस से लोहा लेते हुए पुरुषों के साथ कबड्डी मैच खेलती हैं। ‘कबड्डी’ के उस सीन को फ़िल्माना काफ़ी बड़ा चैलेंज था। कई बार सीन करते-करते हम महिलाएं चोटिल हुईं, लेकिन सभी में जोश इस कदर था कि एक-एक दृश्य यादगार बनते चला गया। डायरेक्टर कुलदीप कौशिक जी आर्टिस्टों से बेहतर काम निकलवा पाने में सफल रहे। उनका होम वर्क काफी तगड़ा रहता था। एक दिन पहले ही बता देते थे कि आने वाले कल में क्या-क्या काम होना है।” उपासना कहती हैं- “जो भी व्यक्ति सिनेमा हाल से इस फ़िल्म को देखकर निकलेगा दूसरों को इसे देखने के लिए ज़रूर प्रेरित करेगा।”
यह पूछने पर कि क्या वजह है कि कामयाबी के झंडे गाड़ चुके डायरेक्टर सतीश जैन अपनी हर छत्तीसगढ़ी फ़िल्म में आपको ज़रूर मौका देते हैं, ज़वाब में उपासना कहती हैं- “हां यह सही है कि मैंने उनकी ‘झन भूलौ मां बाप ला’, ‘मया’, ‘लैला टीपटॉप छैला अंगूठा छाप’, ‘हॅस झन पगली फॅस जबे’ एवं ‘ले शुरु होगे मया के कहानी’ जैसी फ़िल्मों में काम किया है। सतीश जी हम कलाकारों से यही कहते हैं कि जो बरसों से छत्तीसगढ़ी सिनेमा में काम करते आ रहे हैं उनके साथ बेहतर तालमेल बैठ पाता है। मैं क्या चाहता हूं वे तूरंत समझ जाते हैं।” उपासना कहती हैं- “मैं पिछले 21 वर्षों से छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों में काम कर रही हूं। मेरा यही अनुभव रहा है कि एक तो फ़िल्म बनाना कठिन है और बन जाने के बाद उसे छत्तीसगढ़ी सिनेमा प्रेमियों तक ले जा पाना और भी ज़्यादा कठिन है। कारण, एक तो हमारे यहां सिनेमाघर कम हैं, दूसरा यहां नई फ़िल्म नीति बन जाने के बाद भी प्रोड्यूसरों को सरकार की तरफ से सब्सिडी मिलनी शुरु नहीं हुई है। ज़रूरी है कि सरकार कस्बों एवं गावों में छोटे-छोटे सिनेमाघर बनाने के नाम पर विशेष रियायत दे और फ़िल्म निर्माण बनाने वालों को ज़ल्द सब्सिडी देना शुरु करे।”