तब अख़बारों में ख़ूब जगह होती थी सिनेमा विज्ञापनों के लिए…

■ अनिरुद्ध दुबे

वह भी एक दौर था जब अख़बारों में नियमित रूप से सिनेमा के विज्ञापन छपा करते थे। वह भी कम दरों पर। अख़बार मालिक जानते थे सिनेमा विज्ञापन की अपनी अलग रीडरशिप है, इसलिए कम दरों में भी वह फायदे का ही सौदा लगता। जानकार लोग बताते हैं अख़बारों में सिनेमा विज्ञापन तभी छपने शुरु हो गए थे जब देश आज़ाद नहीं हुआ था। आज़ादी के बाद बहुतायत में फ़िल्में बनने लगीं और अधिकांश समाचार पत्रों ने सिनेमा विज्ञापन के लिए पूरा एक पेज ही अलग रख दिया। सत्तर के दशक तक ज़्यादातर अख़बारों में सिने विज्ञापनों को यथोचित स्थान मिलते रहा लेकिन उसके बाद मतांतर दिखने लगा। कुछ अखबारों में सिनेमा विज्ञापन दिखता तो कुछ में नहीं। खैर इस कम-ज़्यादा से सिनेमा की सेहत पर कभी कोई असर पड़ते नहीं दिखा। जब भी किसी बड़े स्टार की फ़िल्म लगती थियेटर पर भीड़ उमड़ पड़ती। सन् 2000 के आसपास के सभी बड़े शहरों में मॉल और मल्टीप्लेक्स संस्कृति की दस्तक शुरु हो गई और इसके कुछ सालों बाद मोबाइल पर ही इंटरनेट आ गया। इसके साथ ही बचे-खुचे वो अख़बार जिन्होंने सिनेमा विज्ञापन के लिए अलग से पेज रखने की परंपरा को जीवित रखा था वह धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।

वो सिनेमा के विज्ञापन कितनी ही खूबियों को समेटे रहते थे। फ़िल्म के प्रदर्शन को जब हफ्ते-दो हफ्ते का समय बचा होता, अतिशीघ्र प्रदर्शित लाइन के साथ अख़बारों में विज्ञापन दिखना शुरु हो जाता। जब फ़िल्म के प्रदर्शन की तारीख व थियेटर तय हो जाता, इस लाइन के साथ उसके प्रदर्शन की घोषणा होती- “इंतज़ार की घड़ियां खत्म। अमुक तारीख से दमदार उद्घाटन या दहाड़ता उद्घाटन।“ किसी हॉरर फ़िल्म का विज्ञापन होता तो यह ज़रूर लिखा होता कि “दिल दहला देने वाला उद्घाटन।“ जब ‘मुगल-ए-आज़म’ फ़िल्म रायपुर में रिपीट में लगी तो विज्ञापन पढ़ने मिला- “इतिहास का सुनहरा पन्ना।“ विनोद खन्ना की फ़िल्म ‘इम्तिहान’ के विज्ञापन में लिखा था “युवाओं के लिए विशेष तौर पर देखने लायक प्रेरक फ़िल्म।“ अमिताभ बच्चन को स्टार बनाने वाली फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ का विज्ञापन कुछ इस तरह पढ़ने में था- “अमिताभ की ईमानदारी, जया भादुड़ी की अदाकारी, प्राण की यारी एवं अजीत की गद्दारी” देखिये ‘ज़ंजीर’ में। राज कुमार या शत्रुघ्न सिन्हा की फ़िल्म के विज्ञापन में उनके व्दारा पर्दे पर बोला गया डायलॉग ज़रूर पढ़ने मिलता। मसलन शत्रुघ्न सिन्हा की फ़िल्म ‘विश्वनाथ’ के विज्ञापन के साथ उनका वह डायलॉग प्रकाशित हुआ-“जली को आग कहते हैं, बूझी को राख कहते हैं जिस राख से बारूद बने उसे विश्वनाथ कहते हैं।“ अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा एवं शशि कपूर स्टारर फ़िल्म ‘काला पत्थर’ के विज्ञापन में पढ़ने मिला- “आज कौन सा वार है… मंगल… लिख दे…।“ ‘काला पत्थर’ में शत्रुघ्न सिन्हा का नाम मंगल था। इसी तरह राज कुमार एवं शत्रुघ्न सिन्हा की फ़िल्म ‘चंबल की कसम’ के विज्ञापन में “खून का बदला खून यही चंबल की रीत है“ डायलॉग का इस्तेमाल किया गया। राज कुमार की फ़िल्म ‘बुलंदी’ के विज्ञापन में उनका वह डायलॉग-ख़ूब चला- “जो हमको मिटा सके वो ज़माने में दम नहीं… ज़माना हमसे है हम ज़माने से नहीं।“ कुछ विज्ञापन ऐसे भी छपते जिनका उस फ़िल्म से कोई सरोकार नहीं होता। यानी वो केवल भ्रामक होते। सुनील दत्त और रेखा की फ़िल्म ‘अहिंसा’ का विज्ञापन कुछ इस तरह पब्लिश हुआ-“यह फिल्म लोकनायक जयप्रकाश नारायण के समक्ष डाकुओं व्दारा किए गए आत्म समर्पण की घटना से प्रेरित।“ सिनेमा हाल के भीतर जाने पर मालूम होता कि उस लाइन से ‘अहिंसा’ फ़िल्म का कोई लेना-देना नहीं है। भीतर कभी किसी विज्ञापन में फ़िल्म के कॉमेडियन व्दारा कहे डायलॉग को भी जगह मिल जाती। जैसे मिथुन चक्रवर्ती व रंजीता की लीड रोल वाली फ़िल्म ‘सुरक्षा’ के विज्ञापन में पढ़ने मिला- “खंबा उखाड़ के।“ यह डायलॉग उस फिल्म में हास्य कलाकार जगदीप के हिस्से का था। गाने के बोल भी विज्ञापन में बराबर जगह पाते। जैसे कि शत्रुघ्न सिन्हा की फ़िल्म आई थी- ‘चोरों की बारात।‘ इसके विज्ञापन में कव्वाली के बोल के माध्यम से लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश की गई। कव्वाली के बोल थे- “यार दगा दे गया दुल्हन को ले गया… आगे दुल्हा… ओ पीछे चोरों की बारात…।” जितेन्द्र की फ़िल्म ‘शाका’ के विज्ञापन में ज़ोरदार संवाद पढ़ने आया था- “अपराध करने वाले को कानून और शाका दोनों माफ नहीं करते।“ मिथुन चक्रवर्ती व रंजीता की हॉरर फ़िल्म ‘भयानक’ के विज्ञापन में उस फ़िल्म के एक गाने के बीच का बोल पब्लिश हुआ-“धुंआ सा उठा देखो चारों तरफ कहीं खो ना जाए मेरा चित चोर…।“ देखा जाए तो गाने के बोल वाला यह विज्ञापन किसी हॉरर फ़िल्म के लिहाज़ से कहीं से आकर्षक नहीं था। वहीं फिरोज़ खान, विनोद खन्ना एवं जीनत अमान स्टारर फ़िल्म ‘कुरबानी’ का गीत “लैला मैं लैला…” ने फ़िल्म के प्रदर्शन से पहले ही धूम मचा दी थी। ‘कुरबानी’ के पर्दे पर पहुंचने की घड़ी आई तो विज्ञापन इस तरह प्रकाशित हुआ- “लैला से मिलना है तो हो जाइये तैयार…।“ एक धार्मिक फ़िल्म आई थी ‘गंगा सागर।‘ इसका विज्ञापन कुछ इस तरह किया गया-“सारे तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार…।” इसी लाइन पर इस फ़िल्म में एक गाना भी था। दिलीप कुमार, मनोज कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, हेमा मालिनी एवं परवीन बॉबी स्टारर फ़िल्म ‘क्रांति’ के विज्ञापन में इस संवाद को प्रमुखता से दर्शाया गया-“हमें इस खून की कसम, हम आसमान पर क्रांति लिख देंगे।“ फ़िल्म में यह डायलॉग दिलीप साहब बोले थे। मशहूर डायरेक्टर सुभाष घई ने शाहरुख खान, अनिल कपूर एवं जैकी श्रॉफ जैसे सितारों को लेकर ‘त्रिमूर्ति’ फ़िल्म बनाई थी। जब ‘त्रिमूर्ति’ का निर्माण हो रहा था डायरेक्टर अजीत देवानी ने दांव खेला और शाहरुख खान, संजय दत्त एवं जैकी श्रॉफ के हमशक्लों को लेकर ‘तीन मोती’ नाम से फ़िल्म बना दी। ‘त्रिमूर्ति’ से पहले ‘तीन मोती’ रिलीज़ हो गई। अख़बारों में विज्ञापन कुछ इस तरह छपा था- “त्रिमूर्ति का इंतज़ार छोड़िये, तीन मोती देखिये।“ ‘जूली’ में बाल कलाकार के रूप में नज़र आने के बाद ‘सोलहवां सावन’ श्रीदेवी की बतौर हीरोइन पहली हिन्दी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में उनके हीरो अमोल पालेकर थे। अख़बार में ‘सोलहवां सावन’ के प्रकाशित विज्ञापन में उस नई हीरोइन के लिए खास तौर पर लिखा नज़र आया था- “सोलह साल की श्रीदेवी।“

(संलग्न 8 अक्टूबर 1997 को प्रकाशित दैनिक ‘देशबन्धु’ के रायपुर संस्करण का सिनेमा विज्ञापन पेज)

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